मौसमों की मार की शिद्दत
मौसमों की मार की शिद्दत भुला कर उड़ गया इक परिंदा हौसलों के पर लगा कर उड़ गयाचाँदनी ने दिल टटोला हो गया उसको यकीं बादलों के रथ पे चंदा दिल चुराकर उड़ गयादुख का बादल सर पे मँडराता रहा हर पल मगर सुख का बादल एक पल को पास आकर उड़ गया
मौसमों की मार की शिद्दत भुला कर उड़ गया इक परिंदा हौसलों के पर लगा कर उड़ गयाचाँदनी ने दिल टटोला हो गया उसको यकीं बादलों के रथ पे चंदा दिल चुराकर उड़ गयादुख का बादल सर पे मँडराता रहा हर पल मगर सुख का बादल एक पल को पास आकर उड़ गया
...बोल उठी–“यह पुराना ठग है बाबूजी। एक नंबर का लफ़ंगा, बेईमान...!” अब उस स्त्री की ओर स्वभावत: मेरा ध्यान आकृष्ट हो गया।
विजयोत्सव उत्सव या संगीतोत्सव! पटना के प्राचीन कला-उत्सव! राष्ट्रीय रंगमंच काशी में ही! सिनेमा : कहाँ, किधर? लेखक और निंदक!
हिंदी में जब ‘प्रगति’ के नाम पर बहुत कुछ हो रहा है और लोग इसके पीछे न जाने किस-किस की गति बना रहे हैं, तब यहाँ इस क्षेत्र में भी ‘भारतेंदु’ का कुछ करतब देख लेना चाहिए।
[तानपूरे पर दूर से आती हुई ध्वनि जो क्रमश: धीरे-धीरे पास आती है।] झीनी झीनी बीनी चदरिया। काहे कै ताना काहे कै भरनी, कौन तार से बीनी चदरिया।
स्वर्गीय बालमुकुंद गुप्त हिंदी के उन नायकों में से थे जिन्होंने हिंदी-गद्य के पौधे को उस समय सींचा, जब वह बिल्कुल पौधा था। पंजाब उनकी जन्मभूमि थी; उर्दू में ही उनकी शिक्षा-दीक्षा हुई थी। प्रारंभ में वह उर्दू में ही लिखते थे, उर्दू पत्रों का संपादन भी किया था।