गीत मुखर हों
मुझमें गीत मुखर हों जैसे मन का मीत पुकारे! सुधि अपनी जो टाँक-टाँक दे
मुझमें गीत मुखर हों जैसे मन का मीत पुकारे! सुधि अपनी जो टाँक-टाँक दे
आज कहानी-लेखन के साथ-साथ, कहानी-संबंधी चर्चा-परिचर्चा का जो सिलसिला बँध गया है, उससे अपने को एकदम तटस्थ रख पाना किसी भी जागरूक कहानीकार के लिए न तो संभव है, न शुभ ही।
शंकाओं के बादल तेरे– घिर आये हैं मेरे मन में!
यही गाछ है जिसके नीचे कभी किसी दिन सपना टूटा