काव्य शिशु

एक बच्चा घुटनों के बल चलता खड़ा होने की कोशिश में बार-बार गिरता बार-बार उठता लोग तालियाँ बजाते हैं उसे उँगली पकड़ चलना सिखाते हैं कुछ लोग देने को अच्छे संस्कार उसे ‘बालोहं जगदानंद...’ रटाते हैं।

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स्वाभिमान की रोटी

नगर में एक समाज-सेवी सेठ हैं–ईश्वरचंद सेठ! इन्होंने एक बड़ा-सा प्रतिष्ठान चला रखा है। पहले छोटा-मोटा व्यापार था। उस समय महज एक आदमी वहाँ काम करता था। आज कई लोग जुड़ गए हैं। लेकिन सबसे पुराना विश्वासी मुरलीधर ही है। वह सेठ जी का सभी काम बड़ी तत्परता पूर्वक करता है। फिर भी, उसे गालियाँ सुननी पड़ती है। एक समय था जब सेठ जी ग्राहकों के लिए तरसते थे। उस समय भी एक वफादार व्यक्ति की तरह मुरलीधर ही उनके साथ रहता। ग्राहकों को जुटाने का हर संभव प्रयास करता।

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दृष्टि

अभी अभी तो डाली थी भावनाओं के आँगन में भरोसे की नींव! देखने लगी थी आजादी के सपने सघन भीड़ में तुम लगे थे अपने तुमने भी तो कोताही नहीं की

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बहुत दिन हो गए

आपको आए बहुत दिन हो गए साथ मिल गाए बहुत दिन हो गएखेत की परतें डहकती रह गईं मेघ को छाए बहुत दिन हो गएडाकिया तो रोज ही आता रहा खत मगर पाए बहुत दिन हो गए

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खुद से रूठे तो मौसम बदल जाएंगे

खुद से रूठे तो मौसम बदल जाएंगे दास्तां बनके अश्कों में ढल जाएंगेरास्ते जब बनाओगे घर के लिए आँधियों के इरादे भी टल जाएंगे

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