चलते-फिरते दिन
मगर क्षणों में ही बाबूजी की खाट पर ही आँखें नम हो आईं, ‘...क्या बदहाल बनी है उनकी जिंदगी!’ वह बुदबुदाए और अंदर से छटपटाते-कराहते से कहीं गुम हो गए।
मगर क्षणों में ही बाबूजी की खाट पर ही आँखें नम हो आईं, ‘...क्या बदहाल बनी है उनकी जिंदगी!’ वह बुदबुदाए और अंदर से छटपटाते-कराहते से कहीं गुम हो गए।
नैन फागुनी रूप चंदनी, तन सबने देखा पर मीरा की कवितावज्ञला मन किसने देखा?कानों में चंदा का कुंडल पहन चांदनी साड़ी,
अपने युग से असंतोष स्वास्थ्य का लक्षण हैं, वरना हम आत्मतृष्ट हो जाएँगे तो नया सृजन कैसे करेंगे। लेकिन बलिदानों की परंपरा हमारी विकास यात्रा को हमेशा रौशन करेगी, प्रेरणा देगी, वंदे मातरम्!
‘कामायनी’ को उसके इस पूरे परिप्रेक्ष्य और उसकी कथ्य-संरचना के साकल्य में देखने की अपेक्षा रही है और, जिसकी उपेक्षा प्रायः हिंदी के कवि-आलोचकों ने लगातार की है। इसका एक बड़ा कारण उपनिषद् और भारतीय दर्शन-विरोधी उनकी पूर्वग्रस्त धारणा रही है।
दलित चिंतन में सामूहिकता नहीं है तो वह दलित चिंतन नहीं है। उसे इस अभिशाप का सामना इस रूप में करना है कि वह बहुतों के लिए काम कर रहा है। परोपकारी मनुष्यों के लिए यह सुखद स्थिति है। दुनिया में कोई आदमी अकेला नहीं है।
बहुत दूर तक नहीं जाना है आसपास ही देखना है बगल में सहमी-सहमी खड़ी हवा को छूना है समझने के लिए कि जहर क्या होता है