भीड़ के नाम हो जाएँगे

भीड़ के नाम हो जाएँगे रास्ते जाम हो जाएँगेघूस देने से तो आज भी आपके काम हो जाएँगेरात भर नींद आती नहीं कैसे आराम हो जाएँगे

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काला कैक्टस और माँ

‘सबने सब कुछ तो खतम कर दिया...।’ फिर वह काला कैक्टस किसी का चेहरा बन रहा है। उसकी भारी-सी आवाज में गजब का आकर्षण हैं...। मैं परेशान होकर टूटे दरवाज़े को देखता हूँ। शैलजा और सुरभि सामान अंदर ला रही हैं।

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फाग सवैया

नीलम के सुचि खम्भ पै कै, मनि-मानिक-माल-प्रभा हिय हूलै कै निसि के कमनीय कलेवर, सूरज के करै जोति अतूलै ‘प्यारे’ किधौं जमुना जल पै, अरबिंद के बृंद लिखे मन भूलै स्याम सरीर पै सोहै गुलाल, कै किंसुक-माल तमाल पै फूलै।

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सैकड़ों मील चल कर गए

सैकड़ों मील चल कर गए लोग घर से निकल कर गएराह समतल न थी स्वप्न की इसलिए वो सम्हल कर गएउनकी आँखें छलकने लगीं दुःख के बादल विकल कर गए

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नेपथ्य

‘आज अचानक न जाने क्या सोचकर मैं अपने को इधर आने से रोक नहीं सका। वर्षों पुराने इस रंगमंदिर की याद तो हमेशा आती है। सोचा आज उसे देख आऊँ। लेकिन अफसोस दीवारों पर न जाने कितने सालों से रंग नहीं चढ़ा है।

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