सुविधा की शैम्पेन
शहरी राधा को गाँवों की मुरली नहीं सुहाती है, पीतांबर की जगह ‘जींस’ की चंचल चाल लुभाती है। सुविधा की शैम्पन में खोकर, रस की गागर भूल गए।
शहरी राधा को गाँवों की मुरली नहीं सुहाती है, पीतांबर की जगह ‘जींस’ की चंचल चाल लुभाती है। सुविधा की शैम्पन में खोकर, रस की गागर भूल गए।
एक संदर्भ और परिप्रेक्ष्य मिलता है जो समाचार को महत्त्वपूर्ण भी बनाता है, और अर्थवान भी। मैं संवेदनशील पत्रकारिता का पक्षधर हूँ और मेरे भीतर का कवि मुझे इस संवेदनशीलता से जोड़ता है।
असुरक्षा, अभाव और भटकाव का जो दर्द उसके सीने में उठा, उसने सहसा ही उसे एक आम भारतीय स्त्री में बदल दिया और वह मेरी उस भावुकता, जिसे वह प्यार करती थी, को कोसने लगी। बात बढ़ती गई और एक-दूसरे के प्रति विरोध, अविश्वास और अवज्ञा का भाव भी उग्र होता गया।
पता नहीं कौन-सा तार है, जो हम दोनों को जोड़कर, बाँधकर रखता है। वे मेरे भीतर हैं, हर पल मुझे यही महसूस होता है कि अभी यहीं कहीं से वे मंद-मंद मुस्कुराती हुई सामने खड़ी होगी। जीते जी मैं उनको कभी नहीं भूल पाऊँगी। उनकी आत्मीयता मेरी स्मृतियों में सदैव रहेगी।
बिन चर्चित कहानियों में एक आपातकाल के दिन में लिखी गई है–‘मंगलगाथा’। आपातकाल में मंगलगाथा? क्या आपातकाल मंगल के लिए ही आया था? आपातकाल से किस ओर संकेत है?
साधु मुस्कुरा पड़े–‘क्या फर्क है लड़की लड़का में? यह तो तुम्हारी मुसाफिर काकी थी, क्या नारी नहीं थी? तुम सबको सँभालती थी। है ऐसा कोई मर्द तुम्हारे गाँव में!’