पहाड़ों के बीच

हल्के हरे रंग और सुनहरे रंग की पत्तियों के बीच झाँकते, मुस्कुराते, खिड़की से आती हवा के झोंकों से सिहरते इन फूलों के बीच दिन में न जाने कितनी बार झाँक उठती है अंजलि।

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नामसुख

उनका आपसी स्वनाम पुकार–व्यापार मुझ वर्णाधम को भी बेतरह भाया इसमें मैंने नाम-सुख पाया सो मैंने भी अपने लिए उनसे गाँधी–प्रिय पुकारू नाम–हरिजन कहकर बुलाने का अनुरोध फरमायाइस पर उन दोनों ने पहले तो ठहाका लगाया पर न जाने क्यों एकबारगी उनके चेहरे का रंग उतर आया

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वह कौन थी

‘स्वाल है, हम क्या बचाणा चाहते हैं और क्या बच पाता है। एक-एक कर प्यारी लगने वाली चीजें हमें फेंकनी पड़ती हैं, ताकि गढ्डा हल्का हो, हम भेड़ियों से जाण बचाकर भाग सकें। अब अपणा ही देखो, बची भागवंती, पेट में की निशानी, माने मैं उसकी बेटी लाजो, और...दादा जी का हुक्का। गुजरे जमाने की यादें ताजिंदगी ढोया करे हैं हम जबकि खुद को ही ना ढोया जावे...और यादों को ढोने का जज्बा...? भौत-ई खतरनाक है ये जज्बा भौत-ई खतरनाक! बचा तो पाते नहीं, मुफत में कुछ और गँवा आते हैं हम। हाय रे भाई जित्तू और बूआ नीलू! चाहते तो वे पहले भी भाग सकते थे। तब इन्हें बचा लेते हम मगर वो...पुश्तैनी हुक्का! एक निशानी बचाने के लिए सारी निशानियों को मिट जाने दिया हमने।

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ईश्वर बनाम मनुष्यता

बुद्ध महावीर जैसे अकुंठ मनुष्यता के धनी महापुरुषों के अनन्य अनुपमेय कर्मों को ईश्वरीय का नाम दे ईश्वर के नाम पर महिमामंडित कर वस्तुतः ईश-रचयिताओं ने इन्हें ओछा अनअनुकरणीय बनाने की ही की है सफल कोशिश और सामान्यजन की समझ को जाँचा-परखा है

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समझने के लिए लहजे

समझने के लिए लहजे बहुत हैं जुबान से क्या कहूँ किस्से बहुत हैंहवा के साथ मैं जाऊँ कहाँ तक मेरे होने के भी चर्चे बहुत हैंनहीं जो आँधियों से खौफ खाते चिरागों की तरह जलते बहुत हैं

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खल साहित्यिकों का छलवृत्तांत

अपने गिरोह के मुट्ठी भर खल साहित्यिकों के साथ मिल बैठ कर खड़ा किया उन्होंने किसी कद्दावर कवि के नाम पर एक ‘सम्मान’ और वे सम्मान-पुरस्कर्ता बन कर तन गए इस तिकड़म में महज कुछ सौ रुपयों में अपने लिए पूर्व में खरीदे गए दिवंगत साहित्यकारों के नाम के कुछ क्षुद्र सम्मानों का नजीर उनके काम आया

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