बड़ा फर्क है प्रेम करने और निभाने में
निभाने और मन से अपनी इच्छा के अनुसार प्रेम करने में फर्क होता है, जो दूसरों को दिखता नहीं।
निभाने और मन से अपनी इच्छा के अनुसार प्रेम करने में फर्क होता है, जो दूसरों को दिखता नहीं।
मुसाफिर थक के जब प्यासा भी होगा घने जंगल में इक दरिया भी होगाकभी जब आएगी गलती समझ में किए पर अपनी शर्मिंदा भी होगादुखों को आँसुओं में गर बहा दो तो मन से बोझ कुछ हल्का भी होगा
दशरथ माँझी पहाड़ से भी है ऊँचा जिसे देखकर पहाड़ के उड़ जाते हैं होश दशरथ माँझी सिर्फ तुम्हारा नाम ही है काफी पहाड़ को थर्राने के लिए क्योंकि तुम्हारे अंदर बसी है फागुनी देवी जैसे आगरे की ताजमहल में मुमताज
‘प्रेम का उदय’ आँखों से और आँखों में ही यह ‘अस्त’ भी हो जाता है– ‘होता है राज़-ए-इश्क-ओ-मुहब्बत इन्हीं से फाश आँखें जुबाँ नहीं है, मगर बेजबाँ भी नहीं।’
‘जाने जीवन की कौन सुधि ले लहराती आती मधु बयार रंजित कर दे यह शिथिल चरण ले नव अशोक का अरुण राग मेरे मंडन को आज मधुर रंजनीगंधा का पराग।’
व्याख्यान का विषय था–‘मैं गाँव पर ही क्यों लिखती हूँ।’ समारोह की अध्यक्षता चर्चित कवि एवं भारतीय ज्ञानपीठ के निदेशक लीलाधर मंडलोई ने की, जबकि संचालन ‘नई धारा’ के संपादक डॉ. शिवनारायण ने किया।