
चेहरे
भीड़ कभी-कभी महज भ्रम होती है कभी दिखती, कभी अदृश्य होती है कभी चलती, कभी रुकती है कभी सोती, कभी झुकती है।
भीड़ कभी-कभी महज भ्रम होती है कभी दिखती, कभी अदृश्य होती है कभी चलती, कभी रुकती है कभी सोती, कभी झुकती है।
वास्तव में जिस नामवर सिंह की आलोचना का लोहा माना जाता है, उसकी निर्मिति के पीछे एक आलोचक के रूप में उनका आत्म-संघर्ष है। ‘कविता के नए प्रतिमान’ के प्रथम संस्करण की भूमिका में वे लिखते हैं–‘कविता के नए प्रतिमान आलोचना के उस सहयोगी प्रयास का अंग है,
उत्तरआधुनिकता की लपेटे हुए चादर आज का समय धीरे-धीरे बढ़ रहा
नेपथ्य के वादक थोड़ा झिझक रहे थे पतझर से पृथ्वी सो रही थी पहाड़ से चिपककर भय में तुमने कहा कि मेरा वादक पहले सोई पृथ्वी को जगाए
कोई-न-कोई रंग है हरा काला उजला नीला बैंगनी चंपई गेहूँवा भंटई रंग
इन अभागे दिनों में कलाकार के कपड़े फटे हों जब मैं कैसे जगा दूँ सोई हुई पृथ्वी को सपने देखते पहाड़ को और यह भी कि मेरा समय रेत से घिरा है पानी से नहीं