मेरी पर्णकुटी
अंजुरी में समेटना समंदर और उगाना बालू पर कमल गिनती तारों की रात भर देखना उल्का पिंड सहम कर
अंजुरी में समेटना समंदर और उगाना बालू पर कमल गिनती तारों की रात भर देखना उल्का पिंड सहम कर
कुछ बच्चे ऐसे भी होते हैं जो अपनी माँ को खा जाते हैं माते! तेरे बहुत से सपूत इन दिनों कर रहे हैं तेरे नाम का कीर्तन। भारत माता अपनी खैर मना!
और अहंकार में डूबे वे कभी मुरझाते नहीं थे फूलों के पास वक्त ही कहाँ था
इस आस में कभी-न-कभी तो अँखुआएँगी कविता की किल्लियाँ हरियाएँगी कविता की डालियाँ फिर कभी जब थक जाऊँगा
गहरे धूमिल-धुँधलके में दिखाई देंगे कुछ चेहरे जिनकी पहचान मटमैली-सी उभर आती है जेहन में राह की सकरी मेढ़ पर धीरे-धीरे बढ़ रही लंबी होती हुई छाया
और उस वक्त पंखों को पूरा खोल देना उस खारे जल में कर देना विसर्जित अपनी तमाम कुंठाएँ