चार दिन की जिदंगी

काँच की मानिंद टूटे छन्न से सब ख्वाब। इस तरह उपभोग तक होते रहे नीलाम। पी गए हमको समझ दो इंच की बीड़ी।बढ़ गए कुछ लोग कंधों को बना सीढ़ी।

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दीवाली आई

सौगातों को दे आमंत्रण फैला कर झोली। नेह पगे अंतर अब उच्चारें आखर ढाई। दीवाली आई।फुलझड़ियों से नित्य नेह के सुंदर फूल झरें। वंचित, शोषक की कुटिया में चलकर दीप धरें।

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फतह किया राजा ने

हँसी-खुशी आका को बोलो कब भाती। राज़ करो फूट डाल नीति ही सुहाती।बात रही इतनी सी फरमाना गौर।कौन यहाँ सच कहने सुनने का आदी। पीटे जा राज़ पुरुष जोर से मुनादी।

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मनुहार

पुण्य जन्मों का, फला तो छट गई मन की व्यथा जिंदगी की पुस्तिका में, जुड़ गई नूतन कथा।ठूँठ-सा था मन महक, संदल हुआ।वेद की पावन ऋचा या, मैं कहूँ तुम हो शगुन मीत! मन की बाँसुरी पर छेड़ते तुम प्रेम धुन।

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समकालीन ग़ज़ल और अनिरुद्ध सिन्हा

हिंदी ग़ज़ल को हिंदी कविता के समानांतर स्थापित करने में ऐसे बड़े ग़ज़लकारों में अनिरुद्ध सिन्हा का नाम सर्वोपरि है।

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