गौर करो तो सुन पाओगे

गौर करो तो सुन पाओगे परदे भी क्या कुछ कहते हैंखिड़की से ये टुक-टुक देखें नभ में उड़तीं कई पतंगें अक्सर नीदों में आ जाते सपने इनको रंग-बिरंगे लेकिन इनको नहीं इजाजत

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यथार्थ की जमीन पर खड़ी कहानियाँ

सामाजिक यथार्थ को शब्दों में पिरोकर कहानीकार अशोक कुमार सिन्हा ने अपनी सामाजिक प्रतिबद्धता को निभाने की भरपूर कोशिश की है।

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मजबूरी ही पैदल चलती

मजबूरी ही पैदल चलती सिर पर लादे धूपआँतों में अंगारे रखकर चलते जाते पाँव लेकिन इनको भान नहीं अब बदल चुका है गाँव लाचारी, उम्मीदें हारी नहीं कहीं भी छाँव और राह में मिलते केवल सूखे अंधे कूपभूख, रोग, दुर्घटना, चिंता है मौसम की मार हिम्मत कब तक साथ निभाये किस्मत ही बीमार

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इन अनचाहें बदलावों से

इन अनचाहे बदलावों से डर लगता हैहम अपने कंफर्ट जोन को त्यागें कैसे सीधी पटरी छोड़ वक्र पर भागें कैसे छिल जाएँगे घुटने ठोकर अगर लगी तो हमें अभी भावी घावों से

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ज्यों-ज्यों बू़ड़े ‘अशोक’ संग

अशोक चक्रधर के साथ वफादारी, दोस्ती का एक लंबा दौर है और शायद इसलिए ही वे मेरे लिए बेहतरीन किताब हैं।

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रेणु और दिनकर

उदीयमान कवि आलोक धन्वा का विचार है कि बिहार में दिनकर-दग्ध लोग काफी हैं। कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो रेणु से दग्ध हैं।

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