कविता की तासीर

भर सकती है कविता धर्म की आँखों में थोड़ी करुणा पड़ोसी की आँखों में थोड़ा पानी सत्ता की आँखों में थोड़ी शर्म गरीब की आँखों में थोड़ी आस

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अभी थोड़ा जीना चाहता हूँ

जिंदगी की किताब के पन्ने अब थोड़े, बहुत थोड़े ही बचे हैं आँधियों में फड़फड़ाते अक्षर... काली विडंबनाओं से विकटाकार!नेपथ्य में कोई हँसा है बहुत जोर से परदे हिलते हैं

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एक बेढब कविता

तुम रमेश तैलंग को याद करो और रमेश तैलंग हाजिर तुम रमेश तैलंग की बात करो और फेंको हवा में मुट्ठी भर शब्द हवा में बनता रमेश तैलंग का चेहरा

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गढूँगा अपने नायक,बिम्ब और प्रतीक

लो-सँभालो अपने देवी और देवता मैं छोड़ रहा हूँ पूजा-अर्चना करने का पूरा का पूरा ढकोसला। मैं जान गया हूँ

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कहीं के न रहोगे

वर्षों बाद आई है मेरे हाथों में कलम मैं अब करूँगा अपनी पीड़ा की अभिव्यक्ति दिखाऊँगा– समय और समाज को आईना एक-एक करके खोलूँगा

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मैं उन्हें अच्छा लगता हूँ

मैं उन्हें अच्छा लगता हूँ जब उनके घर-आँगन बुहारता हूँ मैं उन्हें अच्छा लगता हूँ जब मैं उनकी– बेगारी करता हूँ

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