फुलझड़िया
प्रभाकर और फुलझड़िया के बीच मानवीय संवेदनाओं की जो लौकिक नहीं हो सकती, रिश्ते का कोई नामकरण नहीं हो सकता
प्रभाकर और फुलझड़िया के बीच मानवीय संवेदनाओं की जो लौकिक नहीं हो सकती, रिश्ते का कोई नामकरण नहीं हो सकता
‘मैं वनफूल हूँ, जिसे बंधन की चाह नहीं...अपने वन के एकांत में खिलती हूँ, महकती हूँ...घूमती हूँ...मैं सोलो ट्रैवलर हूँ।
गौरहरि दास की कहानियाँ, दो भिन्न पीढ़ियों में हो रहे बदलाव को रेखांकित ही नहीं करता, उनके बारीकियों को सामने लाता है।
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि श्यौराज सिंह बेचैन का पूरा साहित्य दलित साहित्य की कसौटी पर शत-प्रतिशत खरा उतरता है।
यह ‘मुखहिं जनाई बात’ ही दलित चिंतन की ‘मौखिक परंपरा’ रही है। अब प्रश्न उठता है कि दलित चिंतन की यह मौखिक परंपरा आई कहाँ से है? दलितों की यह मौखिक परंपरा महान आजीवक मक्खलि गोसाल से आई है।
चाहे वो इनसान हो, पशु-पक्षी हो या कोई अन्य, आदेश तो उसी का चलता है, जो दूसरे से बुद्धिमान होता है