कविता
कविता के लिए मैं कहीं नहीं जाता कोई विशेष उपक्रम भी नहीं करता योजना भी नहीं होती जहाँ और जिनके बीच होता हूँ कविता वहीं होती है
कविता के लिए मैं कहीं नहीं जाता कोई विशेष उपक्रम भी नहीं करता योजना भी नहीं होती जहाँ और जिनके बीच होता हूँ कविता वहीं होती है
हिस्सा था एक भीड़ का कल तक जो आदमी रहता है अब हरेक से तन्हा कटा हुआशीशे में दिल के कोई तो उतरा जरूर था एक अक्स आइने में है अब तक जड़ा हुआपड़ते हैं पाँव राम के किस रोज देखिए
उसे ये कौन बताए कि खींचा-तानी में किसी भी रिश्ते की हो डोर टूट जाती हैसभी के हाथ में ख़ंजर दिखाई देते हैं मगर ये भीड़ कहाँ सच को देख पाती हैजो देखना हो तो देखो बरसते पानी में तभी सड़क की हक़ीक़त समझ में आती है
जिक्र तेरा मेरे शहर में नहीं आईने में है तू नजर में नहीं वो महाजन भी रोज आता है मैं भी कहता हूँ कह दो घर में नहीं सारी दुनिया…
डॉ. कान्तिकुमार जैन पेशे से अध्यापक और फितरत से संस्मरणकार के अनुसार जो न्याय नहीं कर सकते उन्हें संस्मरण नहीं लिखने चाहिए।
तुम क्या दे देते हो जो कोई नहीं दे पाता दो भींगे शब्द जो मेरे सबसे शुष्क प्रश्नों का उत्तर होती हैं तुम मुझसे ले लेते हो तन्हा लम्हें और मैं महसूस करती हूँ एक गुनगुनाती भीड़ खुद के खूब भीतर