
निराशा
हूँ निराशा के क्षणों को भोगता मैं अंध कूपों में पड़ा निर्जन जगत में अँधेरे में बहुत गहरा गया हूँ एक ठूँठा वृक्ष-सा सून सान टीले पर अँधेरे में घिरा…
हूँ निराशा के क्षणों को भोगता मैं अंध कूपों में पड़ा निर्जन जगत में अँधेरे में बहुत गहरा गया हूँ एक ठूँठा वृक्ष-सा सून सान टीले पर अँधेरे में घिरा…
जहाँ एक ओर पितृसत्ता का दंश और शोषण झेलती स्त्रियाँ हैं, तो कहीं आदर्श दांपत्य को सँभालती हुई देवियाँ, तो कहीं विकलांगता के बावजूद प्रतिरोध और संघर्ष करती नई स्त्रियाँ हैं तो कहीं स्वयं नारी होकर नारी का ही विरोध व शोषण करती हुई अबोध स्त्रियाँ हैं।
आप कब किसके नहीं हैं हम पता रखते नहीं हैंजो पता तुम जानते हो हम वहाँ रहते नहीं हैं
सामान बदल गया था। कत्ल का सामान मेरे साथ आ गया था।’ फिर मैंने कत्ल के सामान वाली अटैची उठायी हत्यारे को सौंप दी और कहा ‘अब तुम भले ही मुझे मार सकते हो। तुमने...तुमने मुझ पर जो उपकार किया है, हत्या कहीं बहुत छोटी पड़ गई है।’ यह कहते हुए वह फूट-फूट कर रो पड़ा। ‘मार दो, जिस काम के लिए आए उसे पूरा कर लो।’
उपन्यास की प्रस्तावना में उन्होंने लिखा है–‘सुना है कभी तानी नाम का कोई फूल कहीं पर खिला था। लोगों की जुबान पर वह सिर्फ एक फूल है–रंगोंवाला फूल–रंगीन फूल–मानो उसमें कोई खुशबू ही नहीं थी
आखिर एक दिन मालिक से कह ही दिया उसने ‘इस चाबी से आपके घर की खुशियाँ खुलती है और आप इसे रोज फेंक कर देते हैं।’ मालिक को बात सही लगी। उसने दरवाजे के हुक पर चाबी लटकाना शुरू कर दिया।