चमन से दगा बागवाँ जब करेगा

चमन से दगा बागवाँ जब करेगा तो फिर खैर से कैसे गुँचा खिलेगाधुआँ उठ रहा हो नशेमन में जिसके तो घुट-घुट के कैसे परिंदा जिएगा

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नीली आँखों के समंदर में खड़ा पहाड़

जैजों शहर के मरासी मुहल्ले में होने वाली सरगोशियाँ चमारों, कुम्हारों, लुहारों के मुहल्लों से होकर उड़ती-उड़ती हमारी छोटी दुकानों वाले बाजार में चक्रवात-सा धूमा करतीं। सब बहुत हैरान थे कि यह कैसे और क्यों हुआ कि कंजर मुहल्ले का खानदानी चौधरी अपनी जवान बेटियों को लेकर लाहौर चला गया।

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मेरे प्रथम साहित्य-गुरु

लक्ष्मी पुत्रों की चार पीढ़ियाँ माँ सरस्वती के मंदिर में मात्र दीप प्रज्वलित ही न करे–गह्वर को लीप-पोत कर आलीशान प्रसाद बना दे जिसके कँगूरे की चमक स्वतः देदीप्यमान हो उठे–यह एक ऐतिहासिक गाथा है जिसे सार्थक किया है कलम के धनी शैली सम्राट स्व. राजा साहब ने और दिलोदिमाग के धनी प्रसिद्ध कथाकार स्व. उदय राज सिंह ने।

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लेखकीय जिम्मेदारी बढ़ी

इस महत्त्वपूर्ण अवसर पर सबसे पहले तो नई धारा के संस्थापक-संपादक उदय राज सिंह की पावन स्मृति को नमन करता हूँ। साथ ही ‘नई धारा’ पत्रिका के इस गौरवशाली 72 वर्षों के सफर को भी प्रणाम करता हूँ।

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हाथ में जब सभी के ही पत्थर रहे

हाथ में जब सभी के ही पत्थर रहे किस तरह फिर सलामत कोई सर रहेतोड़कर सारी दीवारें मैं आ गया कैद कब तक कोई घर के अंदर रहे

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मैं भी रहने लगा गम से गाफिल बहुत

मैं भी रहने लगा गम से गाफिल बहुत रात दिन अब तड़पने लगा है दिल बहुतयूँ हुई रोज पत्थर की बारिश यहाँ सब के सब सर मिले हमको घायल बहुत

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