सहज भाषा में कठोर यथार्थ की गजलें
विजय कुमार स्वर्णकार एक ऐसे गजलकार हैं जिन्होंने गजल के रूप रंग को बिगाड़े बिना अपने समय के सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक विषयों को अपनी गजलों के साथ जोड़ा है।
विजय कुमार स्वर्णकार एक ऐसे गजलकार हैं जिन्होंने गजल के रूप रंग को बिगाड़े बिना अपने समय के सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक विषयों को अपनी गजलों के साथ जोड़ा है।
तुम मुझे एक कप चाय पिलाके मुझसे क्या कहलवाना चाहते हो
सीमाओं में रह कर चल अच्छा पहले अंदर चलसब तन-तनकर चलने लगें इतना भी मत झुककर चल
मेरा यही रूप मेरी लिए बेड़ी बन चुकी है दीदी। मन तो करता है अपने चेहरे को जला दूँ। जहाँ जाती हूँ, वहीं ताना सुनना पड़ता है।
वीथिका अपनी मित्र भारती दत्त के साथ यहाँ आकर देर से खड़ी चढ़ती गंगा को देख रही थी। जून माह का यह आखिरी दिन है। ग्रीष्मावकाश है। परिसर खाली है।
बस आखिरी यही तो इक रस्ता है, बात कर यों चुप्पी साधने से तो अच्छा है, बात करपिघलेगी बर्फ कर भी यकीं हो न यूँ उदास क्यूँ सर को थाम के यहाँ बैठा है, बात कर