आश्वस्ति के बादल
नष्ट कर दिए गए हैं आश्वस्ति के बादल नहीं जाना उस राह मुझे जहाँ है सिर्फ अनुरक्ति के दलदल मौन हूँ विच्छेद हूँ सब रिश्तों से विभेद हूँ समय ने तोड़ा अपनो से झंझोड़ा-मोड़ा फिर भी, मैं सब से जुड़ी रही तुम्हें मन ही मन गुनती रही
नष्ट कर दिए गए हैं आश्वस्ति के बादल नहीं जाना उस राह मुझे जहाँ है सिर्फ अनुरक्ति के दलदल मौन हूँ विच्छेद हूँ सब रिश्तों से विभेद हूँ समय ने तोड़ा अपनो से झंझोड़ा-मोड़ा फिर भी, मैं सब से जुड़ी रही तुम्हें मन ही मन गुनती रही
आज मैं ओड़िसा राज्य की राजधानी भुवनेश्वर में हूँ, जहाँ किसी समय में सात हजार मंदिर हुआ करते थे और जिन्हें सात सौ वर्षों में बनाया गया था। लेकिन अब 600 मंदिर ही बचे हैं जो कि अपने आप में अद्भुत हैं। दोपहर के भोजन के बाद हम राजकीय अतिथिशाला से निकल पड़े इन गुफाओं के दर्शन करने। भुवनेश्वर की चौड़ी सड़कों और सीधे-सादे शहर के दिल में उतरना एक सुखद अहसास रहा। सबसे पहले हम जा पहुँचे शहर को अपनी गोद में लिए उन पहाड़ियों के पास जहाँ की चट्टानें अपने आगंतुकों का स्वागत करने को बेचैन थीं।
नींव कितनी भी ली बड़ी हमने की तो दीवार ही खड़ी हमनेवक्त का जो मिजाज भी कह दे अब लगा ली है वो घड़ी हमनेहम जहाँ रोज आके मिलते थे जंग अक्सर वहीं लड़ी हमने
रेतीले टीले उपेक्षा, अवज्ञा, अस्वीकृति से क्या डरना एक अनजान भय कि छतरी को खोल कर क्यों चलना जीवन के मोड़ सड़कों की तरह स्पष्ट नहीं होते कोई सूचना पट भी नहीं लगा होता कि आगे तीव्र मोड़ है रफ्तार धीरे कर लें
लोकनायक जयप्रकाश उनके उस अधूरे कार्य को पूरा करने में आजीवन लगे रहे। इसलिए भारतीय जन-मानस में जयप्रकाश दूसरे गाँधी के रूप में दिखाई पड़ते हैं। मैं खुद को भी उन लाखों-करोड़ों लोगों में मानता हूँ, जो गाँधी और जयप्रकाश के प्रति वास्तविक श्रद्धा रखते हैं। इसलिए जीवन में जब कभी भी मौका मिला, साबरमती, वर्धा, सेवाग्राम आदि जगहों में गाँधी और जयप्रकाश की उस मनोवृति का दर्शन करने जाता रहता हूँ, जिसने रचनात्मक कार्यकर्ताओं की एक समृद्ध टोली तैयार की थी।
आधे-अधूरे कपड़ों में बड़ी बेहयाई से रैंप वॉक करता है झूठ सच के सलीके से पहने कपड़े खींचते हैं लोग इधर-उधर से!