गजलों के गाँव में

यही कारण है कि बीते कई वर्षों से हिंदी गजलें ‘नई धारा’ में ससम्मान प्रकाशित होती रहीं। पाठकों-गजलकारों ने ‘नई धारा’ का गजल-अंक प्रकाशित करने का दवाब भी बनाया। आखिरकार हमने सबका सम्मान करते हुए गजलों के गाँव में पर्यटन का मन बनाया और यह अंक आपके सामने है। आशा है गजलों के गाँव में हमारा पर्यटन पाठकों को पसंद आएगा।

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फ्लेन्यूज़*

मेरे हमशहर मेरे साथी हम दोनों का शहर विस्थापन है हम दोनों अपने विस्थापन में कितने दूर हैं मैं जब शहर की रातों में आवारगी से घूमती हूँ

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गृह प्रवेश

धमनियों को लपेटूँगी अँगूठों पर और दिल को पैरों में पहन लूँगी एड़ी में सुनाई देगी धड़कन घुटने से नव्ज़ मिलेगी जब दरवाज़े से दाख़िल होऊँगी

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सोलह दूनी अड़तीस

फ़लसफ़े और भूख विलोम शब्द हैं एक दिन सभी फ़लसफ़ों को सड़कों पर ले जाएँगे और देखेंगे झोपड़ा फटा ब्लाउज़ और कैसे भूख फ़लसफ़ों को खाने के लिए मजबूर है फ़लसफ़े की कतरन ब्लाउज़ पर चिपका बचे हिस्से को जाड़ा ओढ़ लेगा

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लोक जगत का लड़का

लगभग देहात और लगभग बीहड़ के बीच से वह लगभग कस्बा आया था और उसे यह कस्बा लगभग से आगे बढ़ पूरा का पूरा शहर लगा था

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कवि की आत्महत्या

अभिनेता अभिनय करते-करते मृत्यु का मंचन करने लगता है आप उन्मत्त होते हैं अभिनय देख पीटना चाहते हैं तालियाँ मगर इस बार वह नहीं उठता क्योंकि जीवन के रंगमंच में एक ही ‘कट-इट’ होता है

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