कभी कभी
कभी-कभी उलझा लेता है कोई काँटा। कभी कोई तार, कभी चलते-चलते कोई कील लेती उलझा!उलझ कर रह जाता है कोई वस्त्र। उलझा लेता है कभी-कभी कोई सन्नाटा!
कभी-कभी उलझा लेता है कोई काँटा। कभी कोई तार, कभी चलते-चलते कोई कील लेती उलझा!उलझ कर रह जाता है कोई वस्त्र। उलझा लेता है कभी-कभी कोई सन्नाटा!
यह चिड़ियों की आवाज है कही से आती हुई सुंदर है। यहीं यहीं यहीं कहीं। यह चिड़ियों की आवाज है देर से, दूर से भी न आती हुई– यह एक डर है!!
फूल की सुगंध में सुबह जल की लहरियों पर सुबह पंछी के परों पर सुबह धरों पर सुबह छतों, छज्जों पर सुबह उपवन में सुबह चितवन में सुबह
हाथ से छूट गई डाल कहती हुई मानो : नहीं, और मत तोड़ो, फूल बहुत हैं, जितने हैं हाथ में छोड़ो...और मत तोड़ो!
विष्णुचन्द्र शर्मा की कविता ने उनको ताकीद की है कि तुम्हारे जैसे कवि का जीवन ‘सपनों का आख्यान भर नहीं’ है।
‘आज देखता हूँ।’–आत्मविश्वास से मैं तन गया था! इसका आभास होते ही मेरी गर्दन पुनः सामान्य हो गई। ‘मामा जी, यदि एक बार अंदर कर देंगे तो जल्दी बेल भी नहीं होने देंगे एमएलए साहब, उसका तो जिला जज के साथ अच्छा उठना-बैठना होता है।