कैक्टस
कैक्टस, तुम कितने अच्छे हो मेरे पिता की तरह! वरना हज़ारों काँटों की चुभन को सहकर मुस्कुराते हुए खिलना इतना आसान है क्या?
कैक्टस, तुम कितने अच्छे हो मेरे पिता की तरह! वरना हज़ारों काँटों की चुभन को सहकर मुस्कुराते हुए खिलना इतना आसान है क्या?
कभी-कभी बेवजह ही उग जाती है घास पत्थर के सख्त शरीर पर बेवजह ही खिल कर गिर जाते हैं हरसिंगार बेवजह ही शोर मचाता है समंदर बेवजह ही बरस जाते हैं
खाई पाटी भी जा सकती है चट्टान लाँघी भी जा सकती है या अपनी ही तरफ़ बनाया जा सकता है एक छोटा-सा घर जहाँ हर ज़हनी बहस पहनी जाए
बड़े शहरों में फुटपाथ से चिपक कर नाली के बगल की झोपड़पट्टी में या किसी ओवर ब्रिज के नीचे शैवाल की तरह जी रहे लोगों को देखकर तुम्हें दुख तो होता है न, कवि?
जब सहेली उससे उसके भविष्य के बारे में पूछती है तो कहती है–‘लाखों की भीड़ में एक और हिराबाई कहीं खो जाएगी।’
धधकती आग पर पाँवों को चलना खूब आता है हमें मुश्किल दिनों से भी निकलना खूब आता है हमारी चुप को कमज़ोरी समझकर भूल मत करना लहू को सूर्ख लावे में बदलना खूब आता है