अपराधमुक्त देश भूटान

ये आज के संपादक का संकट है। गद्य कविता के नाम पर जो कुछ लिखा जा रहा है। वह प्रायः नीरस और अबूझ है।

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कविता की परख ही श्रेष्ठ संपादन की कसौटी है

जैसे सुनार पुराने आभूषण को गलाकर नया स्वर्ण आभूषण गढ़ता है और इस तरह नए और पुराने का भेद समाप्त हो जाता है।

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कम्फ़र्ट ज़ोन

माँ बूढ़ी हो रही पिता भी बूढ़े हो रहे चुभता है प्रकृति का यह नियम चुभती है उनकी बढ़ती शारीरिक शिथिलता मैं खुद को देखती हूँ

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हिम्मत

तुम्हारे मुट्ठी भींच लेने और आँखें बड़ी करने से अब न आत्मा डरने वाली और न एक स्त्री का शरीर तुमने रुई के फाहों सा नरम पाया था उसे पर उन्हीं कोमलाँगियों पर

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सृजन का गणित

पत्ते झर रहे हैं फूल सुख चुके हैं मगर कुछ फल बचे हैं पेड़ों की शाख पर जिन्हें तुम शायद गिन सकते हो। तुम गिन सकते हो प्रकृति के सारे मौसमों को

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खुद से मोह

अरे! कब तक अलापते रहोगे एक ही राग कब तक इस दंभ में रहोगे तुम्हारे कदमों से आगे कोई कदम बढ़ नहीं सकता तुम्हारी पोटली से भारी दूसरों की नहीं हो सकती और तुमसे ज्यादा मॉडर्न तो कोई हो नहीं सकता

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