रवींद्रनाथ के वसंत गीत

रवींद्रनाथ के वसंत गीत

वसंत अपनी मधुर मदिर हँसी लिए हुए आता है और सर्वत्र मस्ती का संचार कर जाता है। जब वसंत की दुहाई संसार में फिर जाती है उस समय प्रत्येक हृदय में वाणी जाग उठती है, पत्तियों-पत्तियों की आपस की गोपन बातें आरंभ हो जाती हैं। कवि-हृदय वसंत की इस मधुरिमा, इस मादकता से स्पंदित हो उठता है। प्रकृति के संगीत के सुर में सुर मिलाकर वह गा उठता है। युग-युग से यह क्रम चल रहा है फिर भी वसंत नित-नूतन रहता है। कवियों के लिए तो वसंत एक विशेष आकर्षण की वस्तु रहा है इसीलिए अधिकांश कवियों ने वसंत ऋतु से अनुप्राणित होकर वसंत संबंधी कविताओं की रचना की है।

रवींद्रनाथ की वसंत संबंधी कविताओं में वसंत ऋतु के मधुर एवं मादक रूप के दर्शन तो होते ही हैं लेकिन इनके साथ ही कुछ अन्य विशेषताएँ भी दीख पड़ती हैं। वसंत संबंधी अभी तक की मान्य कवि-प्रसिद्धियों एवं रूढ़ियों के बाद भी रवींद्रनाथ ने नई रूढ़ियों की सृष्टि की है। रवींद्रनाथ ने वसंत के साथ एकात्मता का बोध किया है। अंतर और बाहर सर्वत्र समान भाव से उसका खेल चल रहा है। कभी कवि के मन-प्राणों का आनंद ही प्रकृति की विभिन्न वस्तुओं में पुलक एवं आनंद का संचार करता है और कभी वसंत की मधुरिमा उसके प्राणों को स्पंदित कर जाती है।

आज वसंत का आगमन हुआ है, अतएव कवि ने सबको अपने हृदयदल को खोलकर, अपने-पराये का भाव भूलकर उसका स्वागत करने के लिए आह्वान किया है। ऐसा न हो, कि हम अपने कुंठित जीवन के आवरण के कारण खुल कर उसका स्वागत न करें और उसका तिरस्कार करें। पता नहीं, आज वन प्रांतर के बीच सुकुमार पल्लवों में कौन-सी निविड़ वेदना सज रही है। न जाने, आज व्याकुल वसुंधरा साज-शृंगार किए हुए दूर आकाश में किसका पथ देख रही है–

आजि वसंत जाग्रत द्वारे।
तब अवगुंठित कुंठित जीवने
कोरो ना विड़ंबित तारे॥
आजि खुलियो हृदयदल खुलियो,
आजि भुलियो आपन पर भुलियो,

…      …      …

अति निविड़ वेदना वन-माझे रे
आजि पल्लवे पल्लवे बाजे रे–
दूरे गगने काहार पथ चाहिया
आजि व्याकुल वसुंधरा साजे रे।

अरे भाई, वन-वन में, डालियों-डालियों में, फूलों में, फलों में, पत्तियों-पत्तियों में, प्रत्येक कोनों और अंतरालों में आज फागुन की दुहाई फिर गई है। उसने रंगों से आकाश को रंग दिया है। उसने गानों से समस्त जगत् में उदासीनता-सी भर दी है। मानों चंचल नव पल्लवदल मेरे मन में मर्मरित हो रहा है। पृथ्वी के आनंद को देखो, लगता है जैसे वह आकाश की तपस्या को भंग कर रही है। हँसी के प्रहारों से उसका (आकाश का) मौन नहीं रह पा रहा है अतएव वह क्षण-क्षण पर काँप उठता है। पवन सारे वन-प्रांतर में दौड़ लगा रहा है। उसे फूलों का जैसे परिचय नहीं मालूम हो, इसीलिए शायद वह बार-बार कुंजों के द्वार-द्वार पर घूमता हुआ सबसे उनका परिचय पूछता फिरता है–

ओरे भाई, फागुन लेगे छे बने-बने–
डाले डाले फुले-फले पाताय-पाताय रे
आड़ाले-आड़ाले कोने-कोने।
रङे-रङे रङिल आकाश,
गाने-गाने निखिल उदास,
येन चल चंचल नव पल्लवदल मर्मरे मोर मने-मने,
हेरो हेरो अवनीर रंग, गगनेर करे तपोभंग।
हासिर आघाते तार मौन रहे ना आर,
केंपे-केंपे ओठे खने-खने।
बातास छुटिछे बनमय रे, फुलेर ना जाने
परिचय रे।
ताइ बुकि बारे-बारे कुर द्वारे-द्वारे
शुधाए फिरिछे जने-जने॥

और इस फागुन के नवीन आनंद से कवि ने अपने गीत को छंदों में गूँथा है। उसे वनवीथि ने कोकिल की कलगीति दी है और बकुल पुष्पों के गंध से भर दिया है। माधवी के मधुमय मंत्रों ने दिग-दिगंत को रंगों से भर दिया है। उसकी वाणी ने पलाश की कलियों को चुनकर किसी के मणिबंध में बाँध दिया है–

फागुनेर नवीन आनंदे
गानखानि गाँथिलाम छंदे।
दिलो तारे बनवीथि कोकिलेर कलगीति
भरि दिलो बकुलेर गंधे॥
माधवीर मधुमय मंत्र
रङे-रङे राङालो दिगंत।
वाणी मम दिलो तुलि पलाशेर कलिगुलि,
बेंधे दिलो तव मणिबंधे॥

भूले भटके पथिक की नाई वसंत आता है और संध्या वेला में खिलने वाली चमेली तथा प्रभात वेला में फूटने वाली मल्लिका से पूछता है कि क्या वे उसे पहचानती हैं। वे मानों कह उठती हैं कि वे उस नवीन पथिक को पहचानती हैं। जंगलों-जगलों में उड़ने वाले उसके रंगीन वस्त्रों के छोर को उन्होंने देखा है। फाल्गुन के चंचल प्रभात बेला में तथा उदासी से भरी चैत्र-रात्रि में वे उसके पथ में डोलती फिरी हैं–

‘आमि पथभोला एक पथिक एसेछि।
संधावेलार चामेलि गो, सकालवेलार मल्लिका,
आमाय चेनो कि?’
‘चिनि तोमाय चिनि, नवीन पांथ–
बने बने ओड़े तोमार रङिन वसन प्रांत
फागुन प्रातेर उतला गो, चैत्र रातेर उदासी
तोमार पथे आमरा भेसेछि।’

इस भूले भटके वसंत-पथिक को अपने पथ पर जाते हुए बहुतों की जिज्ञासा भी शांत करनी पड़ती है। कोई उसे पहचानता है, कोई नहीं। ‘अरे ओ पथिक तुम्हारा वास स्थान कहाँ है? तुम हृदय को पूर्ण करने वाले हो अथवा संपूर्ण रूप से मिटा देने वाले भी हो, तुम इसी देश के हो या दूर देश से आए हुए हो?’ (बेचारी) मालती और माधवी, क्या यह भी पूछने की बात है? उसका वास स्थान क्या जाना हुआ नहीं है? शायद वे जानती हैं, शायद नहीं। कौन उन्हें बतला देगा? उन्हें लगता है जैसे पथिक उनका अपना ही है और नहीं भी है। अतएव उनका आकुल हृदय कह उठता है–अरे ओ पथिक बोलो, बोलो, तुम किस के हो। पथिक तो उसी का है जो देखते ही उसे पहचान ले! लेकिन माधवी और मालती को कौन बतला देगा कि वह कौन है। वे शायद उसे पहचानती हैं, शायद नहीं पहचानतीं–

‘तोमार वास कोथा-ये, पथिक ओगो, देशे कि विदेशे।
तुमि हृदय-पूर्ण-करा, ओगो, तुमिह सर्वनेशे।’
‘आमार वास कोथा-ये जानोना कि,
शुघाते हय से कथा कि
ओ माधवी, ओ मालती।’
‘हयतो जानि, हयतो जानि, हयतो जानिने,
मोदेर बले देबे के से॥
‘मने करि, आमार तुमि, बुझि नओ आमार।
बलो, बलो, बलो, पथिक, बलो तुमि कार।’
आमि तारि ये आमारे येमनि देखे चिनते पारे,
ओ माधवी, ओ मालती।’
‘हयतो चिनि, हय तो चिनि, हयतो चिनि ने,
मोदेर ब’ ले देबे के से।’

वसंत के स्वागत में जैसे सारी प्रकृति मुखर हो उठती है। वह मानो कह उठती है कि हे वसंत, तुम आओ, आओ, आज दक्षिण द्वार खुला हुआ है। हृदय के झूलने पर तुम्हें झुलाऊँगी, तुम आओ। प्रियाल पुष्प की धूलि को अंग में लगाए हुए, व्याकुल वेणु बजाते हुए, बकुल पुष्पों से बिछे हुए पथ से होकर, नवीन श्यामल सुंदर रथ पर चढ़कर तुम आओ। सघन पल्लव समूह में आओ, वन-मल्लिका के कुंज में तुम आओ। मत्त करनेवाली मृदु-मधुर हँसी हँसते हुए इस पागल हवा के देश में अपने चंचल उत्तरीय को आकाश में उड़ाते हुए आओ। हे वसंत, आओ–

आजि दखिन दुयार खोला–
एसो हे, एसो हे, एसो हे, आमार वसंत, एसो।
दिबो हृदय दोलाय दोला,
एसो है, एसो हे, एसो हे आमार वसंत, एसो॥
नव श्यामल शोभन रथे
एसो बकुल-बिछानो पथे
एसो बाजाये व्याकुल वेणु
मेखे पियाल फूलेर रेणु
एसो हे, एसो हे, एसो हे, आमार वसंत, एसो॥
एसो घन पल्लव पुंजे एसो हे, एसो हे, एसो हे।
एसो वन मल्लिका कुंजे एसो हे, एसो हे, एसो हे।
मृदु मधुर मदिर हेसे
एसो पागल हावार देशे,
तोमार उतला उत्तरीय तुमि आकाशे उड़ाये दियो,
एसो हे, एसो हे, एसो हे, आमार वसंत, एसो।

लेकिन वसंत केवल खिले हुए फूलों का आनंददायी मेला ही नहीं है। उसमें सूखी हुई पत्तियों और झड़े हुए फूलों का भी खेल चलता है। सागर का संगीत केवल उठती हुई लहरों का ही संगीत नहीं है बल्कि नीचे गिरी हुई लहरों का भी संगीत बराबर चलता रहता है। प्रभु के पैरों के नीचे सिर्फ मणि-माणिक्य की ही दीप्ति नहीं है बल्कि उनके चरणों के नीचे लाखों मिट्टी के ढेलों का भी क्रंदन है। हमारे गुरु के आसन के निकट कितने विज्ञ हैं जो स्थान पा सकेंगे। उन्होंने निर्बोध लोगों को अपनी गोद में आश्रय दिया है, इसीलिए मैं उनका चेला हूँ। इस झड़े हुए फूल के खेल को उत्सव-राज वसंत देखें–

वसंते कि शुधु केवल फोटा फुलेर मेला रे।
देखिस ने कि शुक्नो-पाता झरा-फुलेर खेला रे॥
ये-ढेउ उठे तारि सुरे बाजे कि गान सागर जुड़े।
ये-ढेउ पड़े ताहारो सुर जागछे सारा बेला रे।
वसंते आज देख रे तोरा झरा फुलेर खेला रे॥
आमार प्रभुर पायेर तले
शुधुइ कि रे मानिक ज्वले।
चरणे ताँर लुटिये कॉदे लक्ष माटिर ढेला रे।
आमार गुरुर आसन-काछे
सुबोध छेले कजन आछे
अबोध जने कोल दियेछेन,
ताइ आमि ताँर चेलारे।
उत्सवराज देखेन चेये झरा फुलेर खेला रे॥

जिस प्रकार से वसंत में खिले हुए फूलों तथा सौरभ से लदे पवन की क्रीड़ा सर्वत्र देखने को मिलती है उसी प्रकार से सूखी हुई पत्तियों और झड़े हुए फूलों का भी क्रंदन सर्वत्र सुनाई पड़ता है। सुख दु:ख, राग विरागों के इन्हीं खेलों से वसंत का शृंगार होता है। इस वसंत के आनंद का उपभोग वही कर सकता है जो संपूर्ण रूप से अपने आपको दे डालता है। अपने आप को देकर ही वह परिपूर्णता लाभ करता है। एक जगह रवींद्रनाथ ने कहा है कि जो सचमुच का देना है, उसे देकर ही पूर्णता की प्राप्ति होती है। वसंत-उत्सव में दान द्वारा ही धरणी धनी हो उठती है। और इसीलिए वसंत के आगमन के समय वनभूमि कह उठती है–

‘मैं कुछ भी बाकी नहीं रखूँगी। तुम्हारे चलने वाले प्रत्येक रास्ते की भूमि को मैं ढँक दूँगी। ओ मोहन (वसंत) अपने उत्तरीय को मेरे गंध से भर लेना। बकुल, बेला और जूही को तुम्हारे पैरों पर नि:शेष कर दूँगी। तुम जो दक्षिण सागर को पार कर के आए हो पथिक, (अतएव) अपने अतिथि को मैं सब कुछ दे डालूँगी। मेरे सभी नीड़ गान से भरे हुए हैं उन्हें तुम्हें ही संपूर्ण रूप से दान कर दिया है। (अंत में) जब तुम्हारे चरणों का स्पर्श करूँ तो मेरा दान मुझे बिल्कुल कंगाल बना दे और मेरे पास देने को कुछ भी न रह जाए।’

बाकि आमि राख्बो ना किछुइ।
तोमार चलार पथे-पथे
छेये देबो भुँइ॥
ओगो मोहन, तोमार उत्तरीय
गंधे आमार भरे नियो,
उजाड़ करे देबो पाये
बकुल बेला जुइ॥
दखिन सागर पार ह’ ये जे एले पथिक तुमि,
आमार सकल देबो अतिथिरे, आमि वनभूमि।
आमार कुलाय भरा र’ये छे गान,
सब तोमारेह क’रेछि दान,
देबार कांगाल कोरे आमाय
चरण यखन छुँइ॥

वनभूमि की तरह से आम्रकुंज भी अपने आप को निशेष भाव से, बिना किसी फल की आशा किए हुए, दे डालती है। वह कहती है कि फलने की आशा मैंने मन में रखी ही नहीं, इसीलिए दक्षिण समीर में अपनी मंजरियों को झड़ जाने दे रही हूँ। पक्षीगण वसंत-गान गाते हैं और हवा में उनका सुर झड़ जाता है। मंजरियों के झड़ जाने का व्याकुल खेल ही मानो मेरी यह रागिणी है। अरे भाई, मैं नहीं जानती और इसीलिए मैं सोचती भी नहीं कि उस समय मेरी दशा क्या होगी जब इस प्रकार से नष्ट होने और मिटने की क्रिया समाप्त हो जाएगी। उस दिन ताल-ताल पर मेरी शून्य डालियों से यह ध्वनि निकलती रहेगी कि ‘‘मधुर मधु-यामिनी में जो मेरा चरम देना था उसे मैंने दे दिया है।”

फल फलाबार आशा आमि मनेइ राखिनि रे।
आज आमि ताइ मुकुल झराइ दक्षिण समीरे॥
वसंत-गान पाखीरा गाय,
बातासे ता’र सुर झ’रे जाय,
मुकुल झरार व्याकुल खेला
आमारि सेइ रागिणी रे॥
जानिने भाइ, भाबिने ताइ की हबे मोर दशा,
चखन आमार सारा हबे सकल झरा खसा।
एइ कथा मोर शून्य डाले
बाज्बे से दिन ताले ताले,
“चरम देओयाय सब दियेछि
मधुर मधु-यामिनी रे॥”

मनुष्य संसार को अपना सब कुछ देकर ही पूर्णता का अनुभव करता है। ज्ञान, विज्ञान, साहित्य, कला, संगीत आदि जो कुछ भी मनुष्य के मन, बुद्धि और हृदय से प्रसूत होते हैं उन्हें संसार के लिए छोड़ जाने में ही वह संतोष लाभ करता है। जीवन की ‘मधुर मधु-यामिनी’ में जो कंजूसी करता है वह बाद में चलकर पश्चाताप की वेदना से व्यथित होता रहता है, लेकिन फिर वह समय कहाँ आने को है। जब वह जाने लगता है तो मनुष्य का हृदय चीत्कार कर उठता है–

ना, जेयो ना, जेयो ना को।
मिलन पियासी मोरा–कथा राखो कथा राखो॥
आजो बकुल आपनहारा–
हाय रे फुल-फोटानो हय नि सारा,
साजि भरे नि।
पथिक ओगो, थाको थाको॥
चाँदेर चोखे जागे नेशा,
तार आलो गाने गंधे मेशा।
देखो चेये कोन् वेदनाय हाय रे मल्लिका
ओइ जाय चले जाय अभिमानिनी।
पथिक, तारे डाको डाको॥

अरे, मत जाओ, मत जाओ। तुम्हारे मिलन की हमलोग प्यासी हैं–हम लोगों की बात मान जाओ, मान जाओ। आज भी बकुल आात्मविस्मृत-सा है–उसका फूल खिलाना अभी भी शेष नहीं हुआ है, अभी फूलों की डाली भरी नहीं है। अरे ओ पथिक! रुको, रुको। चाँद की आँखों में नशा जग उठा है, उसका आलोक गान और गंध से सना हुआ है। अरे, एक बार देखो, हाय, अभिमानिनी मल्लिका न जाने कौन-सी वेदना लिए चली जा रही है। पथिक, उसे बुलाओ, उसे बुलाओ।

लेकिन वसंत रुकता नहीं, चला जाता है। फिर भी कितने स्नेह और दुलार से वह अपने गान को धूलि पर लिख जाता है। शायद इसीलिए वह धूलि बार-बार नवीन वेश धारण कर हँस उठती है–

वसंत तार गान लिखे जाय धूलिर परे की आदरे।
ताइ से धूला ओठे हेसे बारे-बारे नवीन वेशे,
बारे-बारे रूपेर साजि आपनि भरे की आदरे॥

…               …               …

परंतु कितने हैं जो इस आनंद का उपभोग कर पाते हैं। कारण चाहे जो हो, हमारे आज के जीवन में संतुलन नहीं रह गया है, तभी तो जबकि “बाहर चारों ओर हवा बदल जाती है, पत्तियाँ बदल जाती हैं, रंग बदल जाते हैं, हमलोग उस समय भी बैलगाड़ी के वाहन जैसे रास्ते में धूल उड़ाते हुए पुरातन के बोझ को समान भाव से ढोए चले जाते हैं।”


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