दो भूत

दो भूत

(अनुवादक-वसंत पुराणिक)

भीषण अकाल का वर्ष था वह! गाँव के सारे लोग मंदिर में इकट्ठा हो गए। बाल-वृद्ध, स्त्री-पुरुष, गरीब-अमीर, सभी हाथ जोड़कर भगवान की प्रार्थना करने लगे–“हे भगवन! हम दीनों पर दया करो। हे प्रभो अपने कृपा मेघ अब इधर बरसने दो–हम सभी तुम्हारे बच्चे हैं!”

प्रार्थना समाप्त हो रही थी कि उसी समय भीड़ को चीर कर एक नास्तिक आगे बढ़ा और समुद्र-सी घनगंभीर गर्जना करते हुए बोला–“मूर्खों! क्यों इस पत्थर से दया की भीख माँगते हो? मंदिर के बाहर छोटे-मोटे पत्थरों का समूह पड़ा है, उन्हीं का बड़ा भाई है यह। फूलों से इसमें शोभा आ सकती है परंतु देवत्व नहीं। तुम्हारे अबोध बच्चे घर में भूख से बिलखकर मर रहे हैं। उन्हें जीवित रखना है या नहीं? रखना है तो मेरी बात सुनो। इस अलंकृत पत्थर की आराधना छोड़ो। इसी वक्त मेरे साथ चलो। मैं तुम्हें नदी बताता हूँ। उसका पानी दिन-रात काम करने पर हमारे खेतों को हरा-भरा कर सकता है। सच्चा भगवान इस पत्थर में नहीं, तुम्हारी भुजाओं में है।”

अज्ञात दिशा से एक नुकीला पत्थर सन-सन करता आया। पके हुए फल पर पंछी जिस तरह अपनी चोंच गड़ा देता है, वैसे ही वह पत्थर उस नास्तिक के मस्तक पर आ गिरा। रक्त रंजित चेहरे से चारों ओर देखते हुए उसने फिर कहा–“भाइयों! अब भी मेरी बात मान लो। आँखें खोलो। प्रार्थना बंद करो। पत्थर के पसीजने का यह मूर्ख धंधा त्याग…।” आगे उसके मुँह से शब्द निकले ही नहीं। सैकड़ों पत्थर टप-टप करते उसपर बरसने लगे। लोगों ने उसे विषैले साँप की तरह मार डाला।

एक के बाद दूसरा नक्षत्र आकर, सारे चले गए। परंतु आकाश से पानी का एक बूँद भी नहीं टपका। गरीबों के घर में चूल्हे रूठ कर बैठे थे। माँ-बाप दीन-हीन बच्चों की ओर देख नहीं सकते थे। दिन दोपहर को, घर में, बाहर, पड़ोस में, मृत्यु की काली विकराल छाया विकट हास्य करती उनका पीछा कर रही थी।

गाँव के सारे लोग पुन: मंदिर में इकट्ठा हो गए। बाल-वृद्ध, स्त्री-पुरुष, गरीब-अमीर, सभी हाथ जोड़कर भगवान से प्रार्थना करने लगे–“हे भगवन, हम दीनों पर दया करो। हे प्रभो, अपने कृपा मेघ अब इधर बरसने दो। भक्तवत्सल हम सभी तुम्हारे बाल बच्चे हैं।”

प्रार्थना समाप्त हो रही थी कि उसी समय एक आस्तिक भीड़ को चीरकर आगे बढ़ा। शरद की नदी प्रवाह-सी प्रसन्न वाणी में उसने कहा–“भाइयो! यहाँ केवल प्रार्थना करने से काम नहीं चलेगा। हम सब एक ईश्वर के बच्चे हैं–एक माँ के बच्चे हैं। एक ही कुनबे के मनुष्य हैं–हैं ना?” सभी ने सम्मतिसूचक गर्दन हिलाई। आस्तिक आगे बोलने लगा–“तो फिर चलो मेरे साथ। गाँव का सारा अनाज इकट्ठा करें। घरों में रखा–छतों में छिपाया-सभी अनाज–एक-एक दाना हम लोग ढूँढ़ निकालेंगे। यह सारा अनाज इकट्ठा कर प्रत्येक को आवश्यकता भर देने पर गाँव का कुत्ता भी भूखा नहीं मर सकता। यदि ऐसा न हुआ तो मंदिर के बाहर पत्थरों की राशियाँ पड़ी है ना? वैसे ही प्रेतों का अंबार लग जाएगा। चलो भाइयों, सच्चा भगवान तुम्हारे सामने नहीं, तुम्हारे हृदय में…”

अज्ञात जगह से नुकीला पत्थर फिर आया। कड़कड़ आवाज के साथ गिरने वाली बिजली जैसे किसी महावृक्ष के शिखर पर प्रहार करती है वैसे ही वह पत्थर आस्तिक के मस्तक पर गिरा। जनता को शांत रखने का प्रयत्न करते वह जोश में बोलने लगा–“पागल हो! भगवान दयालु है। यह भूलो मत। तुम सब परमात्मा के बच्चे हो। तुम में से प्रत्येक का जो कुछ है वह अकेला का नहीं–सबका…”। आगे के शब्द उसके मुँह से निकले नहीं। सैकड़ों बंदूकें जैसे एक साथ चलती हैं वैसे उस आस्तिक पर चारों ओर से पत्थर बरसने लगे। लोगों ने उसे भी पागल कुत्ते जैसा मार डाला।

उस वर्ष के अकाल में गाँव के सभी गरीब लोग मर गए। बचे हुए मुट्ठीभर अमीर गाँव छोड़कर भाग गए।

उस निर्जन गाँव में अब केवल उस मंदिर के खंडहर शेष थे। कभी-कभी मध्यरात्रि को उस मंदिर के खंडहरों में दो भूत हाथ में हाथ डालकर हँसते-खेलते दिखाई पड़ते हैं। कभी-कभी वे दोनों उस ध्वस्त मंदिर से झाँककर भगवान को पूछते हैं–“भगवन् यह गाँव निर्मनुष्य क्यों हो गया? तुम्हारी प्रार्थना करने वाले वे सब लोग कहाँ चले गए?

वे दोनों कान लगाकर भगवान का उत्तर सुनने को उत्सुक खड़े रहते हैं। परंतु पास के वृक्ष पर निद्रा भंग से जगे पंछियों के पंखों की फटफटाहट-मात्र उन्हें सुनाई पड़ती है।


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वी. स. खांडेकर द्वारा भी