रवींद्र साहित्य में नारी

रवींद्र साहित्य में नारी

जन्म से मृत्यु तक; सुख में, दुख में; हर्ष में, विषाद में, हास्य में, रुदन में सर्वदा किसी-न-किसी रूप में नारी के साथ प्राणीमात्र का संबंध बना ही रहता है। कोई भी नारी से बचकर नहीं रह सकता। नारी विविध रूपों में सदा साथ रहती है। और इसी कारण कहा जा सकता है कि संसार के समस्त साहित्य का 90 प्रतिशत अंश नारी के क्रिया-कलापों, उसकी विविध लीलाओं से भरा पड़ा है। नारी पुरुष के लिए सदा से एक पहेली ही रही है। और कवियों के लिए तो और भी ज्यादा रहस्यमय रही है। इस बात में कोई संदेह नहीं कि पुरुष नारी से कभी उऋण नहीं हो सकता। आधुनिक नारियों के संबंध में लिखते हुए रवींद्र नाथ ठाकुर ने स्वयं इनके ऋण को स्वीकार किया है–“जिन्हें तुम आधुनिका कहती हो, उन्हें मैं पहचानता हूँ, और (सच पूछो तो) कवि-यश के लिए उन्हीं के निकट बारह आने का ऋणी हूँ। आधुनिका के ही हाथ मैंने ‘यत्परो नास्ति’ (जिससे अधिक हो नहीं सकता उतना) पुरस्कार भी पाया है, दंड भी पाया है। सबूत भी रख गया हूँ । इस काल की रमणी के रमणीय तालों में ही इस रमणी के रक्त का छंद बंधा हुआ है। नजदीक पाऊँ या खो दूँ, तथापि उसी की स्मृति से आज भी मेरे गानों में सुर-सौरभ जगा करता है। जो मनोलोक में माधुरी निकुंज की दूती हैं, मैंने तो उन्हीं का गुण गुंजार किया है। पुरुष कवि के भाग्य में कोई शुभ ग्रह है, इसीलिए उसके प्रति यह महान अनुग्रह सदा होता आया है–”

“आधुनिका जारे बलो तारे आमि चिनि जे, कवि यशे तारि काछे बारो आना ऋणी जे।
तारि हाते चिर दिन यत्परो नास्ति, पेयेछि पुरस्कार, पेयेछियो शास्ति।
प्रमाण गियेछि रेखे, ऐ कालिनी रमणीर, रमनीय ताले बाँधा छंद ऐ धमनीर।
काछे पाइ हाराइ वा तबू तारि स्मृतिते, सुर सौरभ जागे आजो मोर गीतिते।
मनोलोके दूति जारा माधुरी निकुंजे, गुंजन करियाछि ताहादेरि गुण जे।
से कालेओ कालिदास वररुचि आदिरा, पुर-सुंदरीदेर प्रशस्तिवादीरा।
जादेर महिमा-गाने जागालेन वीणा रे, ताराओ सबाइ छिलो अधुनार किनारे।
ताहादेरि कल्याणे काव्यानुशीलना–
पुरुष कविर भाले आछे कोनो सुग्रह, चिरकालताइ तारे एत महानुग्रह।”

रवींद्रनाथ के साहित्य में इसी स्त्री-रूप-कूल में बंधकर प्रेम और कल्याण की निर्मल धारा नाना रूपों में बही है! उनके विभिन्न ग्रंथों में हम नारी के विभिन्न रूपों को देख सकते हैं। वे सभी उनकी रचनाओं में एक-एक पूर्ण और विशिष्ट रूप को प्राप्त हुए हैं। उन जीवंत रूपों में सदियों की सताई हुई, अपनी आन पर जान देने वाली, प्रेम में पागल, कर्तव्य पर सब कुछ न्यौछावर करने वाली तथा परिवार के लिए प्राण देने वाली स्त्रियों के दर्शन मिलते हैं। जो नारी देश के घर-घर में माँ, बहन, कन्या व पत्नी रूप में अपने को भुलाकर समय बिता रही है, उसे हमारे कवि ने अमरदेवी के आसन पर बिठलाया है। अपने ‘दुई बोन’ में कवि ने स्त्रियों की दो जातियाँ मानी हैं–एक तो प्रधानत: ‘माँ’ की व दूसरी ‘प्रिया’ की। ‘माँ’ को उन्होंने वर्षा ऋतु–जलदान देने वाली व ताप से बचाने वाली माना है और प्रिया को बसंत ऋतु–अत्यंत गंभीर एवं रहस्यमय माना है। जिसकी चंचलता रक्त में एक तरंग पैदा कर देती है।

उनके काव्य साहित्य में भी इसी तरह के दो नारी रूपों को हम देखते हैं–एक उर्वशी का और दूसरा लक्ष्मी का–

“कौन क्षणे
सृजनेर समुद्र मंथने
उठे छिलो दुइ नारी–
अतलेर शय्या तले छाड़ि।
एक जना उर्वशी सुंदरी–
विश्वेर कामना-राज्ये रानी–
स्वर्गेर अप्सरी
अन्यजना लक्ष्मी से कल्याणी–
विश्वेर जननी ताँरे जानि
स्वर्गेर ईश्वरी।”

एक मादक सौंदर्य से हृदय को पागल बना देती है, किंतु दूसरी अपनी श्री, ह्री और कल्याण से शांति की वर्षा करती है। एक को संबोधन करके कहते हैं–हे अनंत यौवन। उर्वशी, तुम क्या कभी भी बारी उम्र की अविकसित कलिका नहीं थी–

‘कोनो काले छिले नारि मुकुलिका बालिका वयसी, है अनंतयौवना उर्वशी!’

दूसरी के लिए कहते हैं–‘तुम मंगल की देवी हो, मंगल की पूर्ण मूर्ति हो।’–‘पवित्र तुमि, निर्मल तुमि, तुमि देवी, तुमि सती।’ नारी का यह लक्ष्मी रूप और भी स्पष्ट हुआ है ‘गोरा’ में। साधारणत: नारी का यही रूप हम घर-घर में देखते हैं। रवींद्रनाथ की नारी–घर की लक्ष्मी सताए हुए को सांत्वना देती है, तुच्छ को भी प्रेम के गौरव से प्रतिष्ठा देती है। वह जीवन की सारी कटुताओं को बिना चूँ किए झेल लेती है, किंतु औरों पर आँच नहीं आने देती।

एक प्रश्न उठता है–नारी के उस मोहक रूप की, जिसे पाकर वह अपने को भी भूल बैठती है और दूसरों को भी भुला डालती है सृष्टि किसने की? कवि ने उत्तर दिया है–“ऐ नारी, तुम केवल विधाता की सृष्टि नहीं हो, पुरुष ने तुममें सौंदर्य का संचार करके तुम्हें अपने अंतर से गढ़ा है। तुम आधी मानवी और आधी कल्पना हो–‘शुधु विधातार सृष्टि नह तुमि नारी, पुरुष गड़ेछे तोरे सौंदर्य संचारि, आपन अंतर होते! अर्धेक मानवी तुमि अर्धेक कल्पना।’ नारी के उस अधकल्पित रूप का उज्ज्वल चित्र ‘चोखेर वाली’ में विनोदिनी के रूप में स्पष्ट देखने को मिलता है। कवि की राय में–पुरुष को यथार्थ होना आवश्यक है, किंतु स्त्रियों को तो सुंदर होना ही चाहिए। पुरुष के व्यवहार का स्पष्ट होना अच्छा है, किंतु स्त्रियों के व्यवहार में अनेक आवरण, आभास और इंगित होना जरूरी है।”

“नारी यदि नारी हय
शुधु-शुधु धरपिर शोभा शुधु आलो
शुधु भालोवासा, सुमधुर छले
शत रूप भंगिमाय पलके-पलके
फूटाए-जड़ाए बके-बधे हेंसे केंदे
सेवाय सोहागे छेपे चेपे थाके सदा
तबे तारे सार्थ जनम। की हइबे
कर्म कीर्ति वीर्यवल शिक्षा-दीक्षा तार।”

नारी के रूप में तो ‘जननी का स्नेह, रमणी की दया, कुमारी का नवीन प्रेम’–इन सबने मिलकर कवि की हृदय वीणा में सम्मिलित गान झंकृत कर दिया है।

‘जननीर स्नेह रमनीर दया, कुमारीर नव–नीरव प्रीति
आमार हृदय वीणार तन्न, बाजाए तुलिलो मिलित गीति!
आनंदमयी मूरति तूमि, फुटे आनंद बाहुते तोमार
छूटे आनंद चरण चूमि!’

आदर्श जननी का चित्र हमें ‘चोखेर बाली’ में अन्नपूर्णा और मासीमा के रूप में, ‘गोरा’ में आनंदमयी के रूप में और ‘शेषेर कविता’ में योगमाया के रूप में देखने को मिलता है। जहाँ ऐसी भी माता हैं जो पुत्र के लिए समाज, संस्कार, आत्मीय परिजन और यहाँ तक कि अपना सर्वस्व छोड़कर कह सकती हैं–‘यह बचा रहे, यही हमारे लिए बहुत है, हमें किसी और संपत्ति की जरूरत नहीं है। वहाँ ही गांधारी जैसी धर्म और सत्य के लिए पुत्र को त्याग करने वाली जननी भी हैं । और ऐसी माताओं को भी साहित्य में उन्होंने स्थान दिया है जो अन्याय को आदर देकर संतान के स्वभाव को बिगाड़ देती हैं, पुत्र के दोष, त्रुटि, चरित्र शैथिल्य को देखर भी आँखें बंद कर लेती हैं।

दूसरा चित्र है पत्नी का। वहाँ कल्याणी सती होकर दिखलाई पड़ती हैं, केवल रूपसी होकर नहीं। जहाँ धैर्य, वीर्य और क्षमा प्रेम के प्रकाश को फौलाते हैं, वहाँ (सुंदरता लाने के लिए) रंग के आयोजन और आडंबर की कोई आवश्यकता नहीं। रवींद्रनाथ की गृहिणी यदि सेविका न बने तो स्वामिनी भी नहीं हो सकती।

रवींद्र साहित्य में स्त्री-चरित्र का प्रत्येक पहलू से और उनकी सभी समस्याओं को सामने रखकर विश्लेषण किया गया है। उनका अच्छी तरह से तो क्या, थोड़े में भी दिग्दर्शन कराना इस अल्पकाय लेख की शक्ति और सामर्थ्य के बाहर की बात है। कवि के स्त्री में चरित्रों की एक विशेषता यह है कि वे संयम और समाज की परिधि में रहकर भी सत्य को सुंदर और शिव से पिछड़ने नहीं देते हैं। दूसरी विशेषता यह है कि जहाँ रक्त का सीधा संबंध है–बिल्कुल अपनापन है, जहाँ अपनी माता और सहोदरा बहन है वहाँ तो थोड़े बहुत रूप में उदारता का अभाव है, यहाँ तक कि कुछ संकीर्णता भी दिखाई पड़ती है। मगर जहाँ केवल प्रेम का बंधन है, स्नेह का रिश्ता है, वहाँ आदर्श भक्ति, प्रीति और वात्सल्य भाव की मूर्ति प्रदीप्त हो उठी है। ‘गोरा’ की आनंदमयी और लीला आदि इसके उदाहरण हैं।
अभी तक आदर्श चरित्रों के संबंध में ही कहा गया है । एक दूसरा पहलू भी है यथार्थता का। यथार्थ सत्य को छोड़कर बच नहीं सकता। उसमें क्षुद्रता है, संकीर्णता है, राग है, लोभ है, वासना है, फिर भी हम उसे छोड़ नहीं सकते। ‘शेषेर-कविता’ में कवि ने एक ऐसा ही चित्र खींचा है। दूसरा चित्र है ‘गोरा’ में आनंदमयी के रूप में।

स्त्रियों की वर्तमान दुरवस्था को देखकर कवि ने जिस रूप में अपनी व्यथा का प्रकाश किया है, वह मौखिक नहीं अंतर की पुकार है। स्त्री-शिक्षा के संबंध में भी उन्होंने बहुत कुछ कहा है। अपनी ‘सबला’ कविता में कवि ने नारी के हृदय में जल रही भावना को प्रदीप्त किया है। रवींद्र की नारी केवल प्रदीप जलाकर वरण करके अब संतुष्ट नहीं रहना चाहती। उसकी आकांक्षा उससे भी एक कदम आगे बढ़ गई है–

हे विधाता! नारी को अपना भाग्य जय करने का अधिकार क्यों नहीं दोगे? क्यों दैवात उपस्थित दिन में रास्ते के किनारे क्लांत धैर्य होकर प्रत्यशा की पूर्ति के लिए जगी रहूँगी? क्यों केवल आसमान की ओर ही ताकती रहूँगी । सार्थकता का मार्ग खुद क्यों न खोज लूँगी? दुर्धर्ष अश्वों को दृढ़ वल्गा पाश में बाँधकर संधान का रथ तेजी से क्यों न दौड़ाऊँगी? दुर्जय आश्वास से प्राणों की बाजी लगाकर दुर्गम दुर्ग से साधना का धन क्यों न आहरण कर लाऊँगी?

वधू के वेश में किंकिणी को बजाती हुई सोहाग के गृह में न जाऊँगी, मुझे प्रेम के वीर्य से नि:शंक बना लो। वीर हाथों में एक दिन वरमाला लूँगी–ऐसा लग्न क्या गोधूलि क्षीण आलोक में एकदम विलीन हो गया है? अपनी कठिनता को मैं कभी उसे भूलने न दूँगी। दुर्बल लज्जा का आच्छादन फेंक दूँगी…माथेउ का घूँघट खोकर उसे बतलाऊँगी, त्रैलोक्य में एक मात्र तुम्हीं मेरे हो। हे विधाता! मुझे वाक्यहीन न रखो, मेरे रक्त में आज रुद्र वीणा जग रही है।…

नारी के आपन भाग्य जय कविवार
केनो नाहि दिए अधिकार
हे विधाता।
पथप्रांते केनो रब जागे
क्लांत धैर्य प्रत्याशा पूरणेर लागी
दैवागत दिने
शुधु: शून्ये चेये र’ ब। केनो बिजे नाहि लब चिने
सार्थकेर पथ?
केनो ना छुटावो तेजे संधानेर रथ
दुर्धर्ष अश्वेरे बाँधि’ दृढ़ बल्गा पाशे
दुर्जय आश्वासे
दुर्गमेरे दुर्ग हंते साधानार धन
केनो नाहि करि आहरन
प्राण करि परम।
याब ना वासर कक्षे वधुवेशे बाजाय किकिणी
आमारे प्रेमेर वीर्ये करो अशकिनी
वीर हस्ते वरमाला ल’ ब एक दिन
से लग्न कि एकांते विलीन
क्षीन दीप्ति गोधूलिते
मोर दृप्त कठिनता
विनम्र दीनता
सम्मानेर योग्य नहे तार
फेले देबो अच्छादन दुर्बल लज्जार।
देखा हबे क्षुब्ध सिंधुतीरे
तरंग गर्जनोच्छवास मिलनेर विजयध्वनि रे
दिगंतरे वक्षे निक्षेपिबे।
माथाय गुंठन खुलि’ कब ता’ रे, मर्त्ये वा त्रिदिवे
एकमात्र तुबिइ आमार
हे विधाता आमारे रेखोना वाक्यहीना
रक्ते मोर जागे रुद्रवीना।


Image: Tahitian woman and boy
Image Source: WikiArt
Artist: Paul Gauguin
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