संस्कृत-साहित्य में एकांकी

संस्कृत-साहित्य में एकांकी

आधुनिक साहित्य के कतिपय विकसित अंग–स्थापत्य और प्रवृत्तियों की दृष्टि से–पश्चिम की आभा से ही आभासित हैं। उनमें ‘वेदमूलकता’ का संधान आग्रहमात्र होगा। उदाहरण के लिए, आधुनिक उपन्यास कादंबरी की औरस संतान नहीं हैं; आधुनिक छोटी कहानियाँ पंचतंत्र, भोजप्रबंध आदि की परंपरा की नहीं हैं और आधुनिक एकांकी भी भास से प्रभावित नहीं हैं।

इतने पर भी, भारतीय नाट्य-साहित्य एकांकी की कल्पना से सर्वथा वंचित था, यह स्थापना पश्चिम के प्रति अंध पक्षपात-प्रदर्शन करने के अतिरिक्त कुछ नहीं। यह और बात है कि ‘एकांकी’ नाम ‘one-act play’ के अनुकरण पर प्रचलित है–इसका प्राच्य नामों से विशेष संबंध नहीं है ! अथवा, मूल रूप में ये सारी वस्तुएँ भारतीय परंपरा में विद्यमान रही हैं; किंतु आधुनिक साहित्य ने उनसे प्रभाव ग्रहण नहीं किया, वह सीधे पश्चिम से प्रणोदित होता रहा है।

अवश्य मैं मुंशी के ‘भगवान परशुराम’, ‘भगवान कौटिल्य’, किंवा निराला की ‘प्रभावती’ में बाणभट्ट की-सी महान प्रतिभा के दर्शन करता हूँ, और उदयशंकर भट्ट, रामकुमार वर्मा आदि के एकांकियों में प्राच्य संस्कृति की शृंखला को नई छवि-छटा से विच्छुरित भी पाता हूँ; किंतु यह सब पूर्व के प्रति पूर्वग्रह के परिणामस्वरूप कदापि नहीं। तब कह सकता हूँ कि रूपक के प्रधान दस भेदों में जो एक ‘अंक’ नामक भेद है और जो एक ही अंक का होता भी है; किंतु जिसकी प्रकृति करुण रस प्रधान होती है, संपूर्ण सादृश्य की उपेक्षाकर, हम चाहें तो, एकांकी के मूल शास्त्रीय रूप में उसे याद कर सकते हैं।

‘संस्कृत साहित्य में एकांकी’ पर विचार-विमर्श करने के पहले यह लक्ष्य करना अत्यंत आवश्यक है कि हमारे यहाँ साहित्य के प्रत्येक अंग-उपांग का वर्गीकरण पश्चिमी वर्गीकरण से बिलकुल ही पृथक् प्रकार का है । सुस्पष्ट शब्दों में, यहाँ कलामात्र की आत्मा के रूप में ‘रस’ को स्वीकृत कर लिया गया है। अत: हमारी विभाजन-प्रणाली रस को केंद्रित कर, उसी के आस्वाद की प्रक्रिया पर निर्भर है।

रसास्वाद ही यहाँ साहित्य या कला का चरम अभिप्राय समझा जाता रहा है। मुद्राराक्षस जैसे राजनैतिक नाटक में भी हम इतिहास, राजनीति आदि बौद्धिक तत्वों को रसोन्मुख पाते हैं। रस-सृष्टि के इसी आग्रह के कारण हम चाणक्य और चंद्रगुप्त जैसे महान व्यक्तियों के उच्च चरित्र-चित्रण के बावजूद नाटक का नाम ‘मुद्राराक्षस’ देखते हैं। अस्तु, प्रस्तुत ‘एकांकी’ के स्वरूप-निरूपण तथा वर्गीकरण के मूल में भी यही ‘रस’ है।

आचार्य धनंजय ने अपने ‘दशरूपक’ में रूपक के प्रधान दस भेद बतलाए हैं–

नाटकं सप्रकरणं भाण: प्रहसनं डिम:
व्यायोगसमवकारौ वीथ्यकङहामृगा इति ।

अर्थात–नाटक, प्रकरण, भाण, प्रहसन, डिम, व्यायोग, समवकार, वीथो, अंक और ईहामृग–ये दस रूपक कहे जाते हैं। इन दसों में पाँच एकांकी हैं–भाण, प्रहसन, व्यायोग, वीथी और अंक। भाण में किसी कल्पित धूर्त नायक का चरित्र चित्रित होता है। इसमें शृंगार अथवा वीर-रस की प्रधानता होती है। संस्कृत-साहित्य में ‘भाण’ प्रचुर परिमाण में उपलब्ध होते हैं, जैसे–वसंततिलक, पद्मताडितक आदि। इनके अतिरिक्त वत्सराज का ‘कर्पूर चरित्र’, वामनभट्ट बाण का ‘शृंगार-भूषण’ भी उल्लेख्य भाण-ग्रंथ हैं।

प्रहसन में कोई कवि-कल्पित धृष्ट नायक होता है और वह भरसक तपस्वी, संन्यासी अथवा ब्राह्मण ही रहता है। भाण में भी और प्राय: प्रहसन में भी ‘मॉनोलॉग’ (monologue) की भाँति नाना अवस्थाओं के भीतर से एक चरित्र का चित्रण मुख्य होने के कारण स्वगत-भाषण अथवा ‘आकाशभाषित’ के सहारे उक्ति-प्रत्युक्तियों के लिए पर्याप्त अवकाश रहता है। मत्तविलास, लटकमेलक तथा वत्सराज-कृत ‘हास्य-चूड़ामणि’ संस्कृत के प्रतिनिधि प्रहसन हैं।

व्यायोग तीसरा प्रकार है एकांकी का। इसकी कथावस्तु कल्पित न होकर इतिहास-पुराण से गुंफित होती है। इसके नायक की प्रकृति में भी विविधता पाई जाती है। वह देवता हो सकता है; राजर्षि हो सकता है; धीरोद्धत भी हो सकता है। इसमें हास्य-रस की प्रधानता हो सकती है, शृंगार-रस की और शांत-रस की भी। इस प्रकार वस्तु-विस्तार के साथ-साथ रस-विस्तार के लिए भी यहाँ काफी गुंजाइश रहती है।

ईस्वी सन् 1909-10 में स्वर्गीय महामहोपाध्याय टी. गणपति शास्त्री ने दक्षिण-ट्रैवनकोर में महाकवि भास के जिन 13 नाटकों का पता लगाया था, केवल उनमें भी पाँच एकांकी हैं और संयोगवश वे सब-के-सब ‘व्यायोग’ हैं। क्रमश: उनके नाम हैं–मध्यमव्यायोग, दूतवाक्य, दूतघटोत्कच, कर्णभार और ऊरुभंग। इनके अतिरिक्त विश्वनाथ कृत ‘सौगंधिकाहरण’, प्रह्लादन देव-कृत ‘पार्थ पराक्रम’, कांचनाचार्य-कृत ‘धनंजय-विजय’, रामचंद्र रचित ‘निर्भय-भीम’, वत्सराज-रचित ‘किरातार्जुनीय’ और धर्मपंडित-निर्मित ‘नरकासुर-विजय’ संस्कृत के प्रतिनिधि ‘व्यायोग’ हैं।

‘वीथी’-नामक प्रकार में भी एक ही अंक होता है और एक ही कवि-कल्पित नायक भी, जो उत्तम, मध्यम या अधम–कैसा भी हो सकता है । वह ‘आकाश-भाषित’ द्वारा ही अपनी उक्ति प्रत्युक्तियों से, विशेषकर शृंगार और सामान्य रूप में दूसरे-दूसरे रसों को भी अभिव्यक्त करता है। स्थापत्य की दृष्टि से इसके एक ही अंक में पूरे नाटक की-सी कसावट होती है; क्योंति इसमें ‘मुख’ और ‘निर्वहण’ संधियों तथा बीज, विंदु, पताका आदि ‘अर्थ-प्रकृतियों’ का सम्यक् निर्वाह अपेक्षित होता है। ‘साहित्यदर्पण’ में इसके और तेरह अंगों का उल्लेख किया गया है, जिनके संबंध में विश्वनाथ की टिप्पणी दर्शनीय है–

‘एतानि च अंगानि नाटकादिषु संभवन्त्यपि वीथ्यामवश्यं विधेयानि । वीथीव नानारसानां चात्र मालारूपतया स्थितत्वाद् वीथीयम् ।’ वह कहते हैं कि यों तो इन अंगों का प्रयोग नाटकों में हुआ ही करता है; किंतु ‘वीथी’ में तो ये सर्वथा अत्याज्य हैं; यहाँ इनका निश्चित निर्वाह होना ही चाहिए, जैसा कि ‘मालविका’ नामक वीथी में हुआ है।

और रूपक के ‘अंक’ नामक प्रमुख भेद के विषय में यह चर्चा की जा चुकी है कि वह करुण रस प्रधान होता है; उसके पात्र–नायक भी प्राकृत जन ही होते हैं; उसमें स्त्रियों के विलाप-कलाप के साथ-साथ गेय पदों की भी खपत हो सकती है। इसकी कथा-वस्तु प्रख्यात भी होती है और कवि कल्पित भी। एक अंक के तंग दायरे में वस्तु तथा विधान के इस लचीलेपन को पचा लेना इसकी विशेषता है।

आधुनिक युग को, कर्म संकुल घोषित करते हुए आलोचकों के एक वर्ग ने छोटी कहानी को उपन्यास का समयोपयोगी संक्षिप्त रूप सिद्ध करने की चेष्टा की थी। वह एकांकी को भी बड़े नाटक का लघु रूप ही समझता था। अवश्य अब ये साहित्य के स्वतंत्र अस्तित्व घोषित तथा प्रमाणित हो चुके हैं। किंतु संस्कृत-साहित्य के समुद्र का अवगाहन करने पर पूर्वोक्त एकांकियों पर कर्म-संकुलतावाला तर्क तो किसी भी प्रकार नहीं लागू होता। कारण, जहाँ संस्कृत के श्रव्य काव्यों का आरंभ वेद, वाल्मीकि और व्यास से हुआ, वहाँ भरत मुनि के अनुसार दृश्य काव्य का उद्गम ‘अमृत मंथन’ नामक ‘समवकार’ तथा ‘त्रिपुरदाह’ नामक डिम है और ये दोनों-के-दोनों एकांकी रूपकों से कुछ ही बड़े आकार-प्रकारवाले होते हैं। समवकार में अधिक-से-अधिक तीन और ‘डिम’ में चार अंक होते हैं–जबकि शताब्दियों बाद संस्कृत में दस-दस अंकों तक के महानाटक लिखे गए हैं। इतना ही नहीं, जिस भास को स्वयं कालिदास ने न केवल पूर्ववर्ती माना है, अपितु अपनी नाट्यकला की चटकीली चाँदनी से सहृदयों के हृदय को उजागर करने वाला भी प्रमाणित कर दिया है–‘मालविकाग्निमित्र’ की प्रस्तावना में इस आशंकापूर्ण उक्ति से कि–‘प्रथितयशसां भासंसौविदल्लकविपुलादीनां प्रबंधानतिक्रम्य वर्तमानकवे: कालिदास क्रियायां कथं परिषतो बहुमान:?’ उसने भी नाट्यकला के उस प्रारंभिक युग में पाँच-पाँच ‘एकांकी’ लिखे थे, क्या यही एकांकी की स्वतंत्र और महत्त्वपूर्ण सत्ता पर पर्याप्त प्रकाश नहीं डालता ? यह नहीं उद्घोषित करता कि एकांकी बड़े नाटक का संक्षिप्त रूप नहीं है, प्रत्युत् उसका कौशल, निर्वाह की दृष्टि से, नाटक से भी कठिन है और उसका क्रमिक विकास भी अपने ही ढंग से होता रहा है।

इस अवसर पर पाश्चात्य एकांकियों के संबंध में कुछ ऐसी ही कही हुई ‘जौन हैंपडेन’ (John Hampden) की दो पंक्तियों का स्मरण हो आता है–It is not that the one-act play is a new thing. The anonymous authors of the mystry plays and of ‘Everyman’, ‘The Interlude of Youth’ and ‘The world and the child’, demonstrated long ago the heights which it can reach. इसी प्रकार उसके संकलित Lady Gregory से Nora Ratcliff तक के इस युग के बीसों एकांकियों में परिस्थितियों और मन:स्थितियों के बीच हम जैसी अन्विति पाते हैं, भास से कंचनाचार्प्य तक के एकांकियों में वैधानिकता और रसात्मकता की वैसी ही अनुस्यूति प्रौढ़ि और विदग्धंता का भी अनुभव करते हैं, जो 15 सौ वर्षों से सहृदयों के हृदयों को जीतती चली आ रही है। दूसरे शब्दों में, उन एकांकियों ने युगोचित उपयोगिता खोकर टिकाऊ आनंद को वरण कर लिया है।

यहाँ आनंद के जिस स्थिति विशेष से मेरा तात्पर्य है, उसका स्पष्टीकरण आवश्यक है। मध्ययुग के कवियों ने सौंदर्य का ढक्कन उठाकर जिस सत्य का साक्षात्कार कराया है, उसे जीवन की मूल प्रेरणा भी कहा जा सकता है। वह जीवन के प्रति आस्थावान् थे, अत: उसकी सौंदर्य चेतना ‘नीर-भरी बदरी’ नहीं है; वह शुद्ध आनंद के चक्कर में रहस्यमयी भी नहीं हो गई है। अत: मम्मट ने काव्य का प्रयोजन बतलाते हुए जिस ‘सक्ष्य: परनिवृत्ति’ अथवा ‘कांता-सम्मित उपदेश’ का उल्लेख किया है, अधिक-से-अधिक वे वहीं तक पहुँचना चाहते थे। उनका दृष्टिकोण आदर्शोन्मुख यथार्थ या यथार्थोन्मुख आदर्शवादी रहा है। वे हास्य और व्यंग्य की सृष्टि जीवन की जटिलताओं के समाधान के रूप में कम और विनोद तथा उपदेश के लिए अधिक कर सके हैं। उनका यह जीवन-दर्शन कालिदास में अतिशय उदात्त रूप में अभिव्यक्त हुआ है और वत्सराज, कांचनाचार्य ऐसों में साधारण अथवा निम्न स्तर पर उतर कर।

अपने व्यक्तिगत दृष्टिकोण को प्रकट करूँ, तो कहूँगा, पूर्वोक्त कोई भी एक एकांकी (चाहे वह भास का हो या वत्सराज का) मुझे उस स्थिति तक नहीं प्रभावित कर पाता, जिस तक ‘नॉरमैन किनेल’ का विस्टर ह्यूगो के ‘ले मिरेले’ या ‘ला मिजरेब्ल’ के प्रारंभिक कथांश पर आधारित ‘Bishop’s Candlesticks’–नामक एकांकी कर सका है। भारतीय कला जिस सात्विक आनंद का आग्रह करती है, उसकी सजल अनुभूति यहाँ होती है।

जो हो, ऊपर जिन पाँच प्रकार के एकांकियों की विस्तारपूर्वक चर्चा की गई है, वे दस मुख्य रूपकों में से हैं। किंतु इन दस रूपकों के अतिरिक्त अट्ठारह उपरूपक भी हैं–नाटिका, त्रोटक, गोष्ठी, सट्टक, नाट्य रासक, प्रस्थान, उल्लाप्य, काव्य, प्रेंखण, रासक, संलापक, श्रीगदित, शिल्पक, विलासिका, दुर्मल्लिका, प्रकरणी, हल्लीश और भाणिका। और, सौभाग्यवश इन अट्ठारहों में दस एकांकी हैं–गोष्ठी, नाट्यरासक, उल्लाप्य, काव्य, प्रेंखण, रासक, श्रीगदित, विलासिका, हल्लीश और भाणिका।

विश्वनाथ के अनुसार गोष्ठी में प्रहसन शृंगारयुक्त एक अंक होता है, आठ-दस प्राकृत पुरुष-पात्र और पाँच-छ: स्त्री-पात्र होते हैं, जैसे, रैवतमदविका नामक गोष्ठी।

‘नाट्यरासक’ आधुनिक संगीतरूपक जैसा होता है। इसका अंक ताल और लय से बंधा हुआ रहता है। शृंगारपूर्ण हास्य की इसमें प्रधानता होती है। इसका नायक उदात्त और नायिका वासकसज्जा होती है, जैसे–‘नर्मवती’ अथवा ‘विलासवती’।

‘उल्लाप्य’ का नायक दिव्य उदात्त होता है। उसका कथानक देवोचित चरित्र से युक्त रहता है। शृंगार, हास्य तथा करुण-रसों का प्राधान्य रहता है, जैसे–पार्थ-पाथेय या देवीमहादेव।

‘काव्य’ में हास्य-रस की प्रमुखता रहती है। और तो और, इसमें स्त्री ही नायक का कार्य करती है, जैसे–यादवोदय।

‘प्रेंखण’ में नीच नायक होता है। उसके कथनोपकथन में औद्धत्य तथा रोषपूर्ण भाषण की प्रचुरता होती है, जैसे–बालिवध।

‘रासक’ में प्रख्यात नायिका और मूर्ख नायक होते हैं। उसमें भाँति-भाँति की भाषाओं का प्रयोग होता है, जैसे–मेनकाहित।

‘श्रीगदित’ में नायक प्रख्यात तथा उदात्त होता है और तदनुरूप नायिका भी सुप्रसिद्ध हुआ करती है। इसकी कथावस्तु भी विख्यात ही रहती है, जैसे–क्रीड़ारसातल।

‘विलासिका’ शृंगारवहुला होती है। उसमें लास्य के दस अंकों का निर्वाह किया जाता है अर्थात् इसे आधुनिक शब्दों में नृत्यरूपक भी कहा जा सकता है। इसका नायक हीन प्रकृति का होता है। कुछेक आचार्यों का मत है कि इसमें नायिका नहीं होती अत: इसका उचित नाम ‘विलासिका’ नहीं ‘विनायिका’ होना चाहिए।

‘हल्लीश’ का अंकव्यापी वातावरण लय-तालमय होता है। यह भी मुख्यत: संगीत रूपक है, जैसे–केलिरैवतक।

और, ‘भणिका’ की नायिका उदात्त तथा नायक हीन प्रकृति का होता है, जैसे–‘कामदत्ता’।

इस प्रकार पाँच रूपक और दस उपरूपक एकांकी होते हैं और ये पंद्रहों प्रकार नवल आविष्कार नहीं, प्रत्युत् पंद्रह सौ वर्षों की परंपरा रखते हैं। यह उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट हो जाता है।

इन प्राचीन संस्कृत एकांकियों के साथ आधुनिक एकांकियों का तुलनात्मक अध्ययन अत्यंत रोचक होगा, इसमें संदेह नहीं; किंतु यहाँ उसके लिए अवकाश कहाँ?

एकांकी में नाटक के संपूर्ण लक्षण को आत्मसात् करने की क्लिष्ट कल्पना कभी नहीं हुई। एकांकी के व्यक्तित्व का उभार उसकी अपनी ही सीमाओं के भीतर होता है। वह जीवन की एक विशेष स्थिति या परिस्थिति की झाँकी लेता है, जीवन की संपूर्णता को आँकने की चेष्टा नहीं करता। इसीलिए एकांकी का मुख्य लक्ष्य एक विशिष्ट स्थिति या परिस्थिति में ही जीवन को प्रस्तुत करना होता है। अवश्य इस लक्ष्य को विश्वजनीन या विराट् रूप देने की सुविधा भी रहती है। वस्तुत: एकांकी की कला के सफल निर्वाह के लिए उपर्युक्त लक्ष्य की सीधी, सादी और सुगठित अभिव्यक्ति अनिवार्य है। इसमें रूढ़ नाटकीय जटिलताओं के लिए स्थान नहीं है।


Original Image: A woman holding a Veena Mughal India 18 century
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रूप-विधान तथा रस-व्यंजना में चंडीदास और विद्यापति विभिन्न प्रकृति के कवि हैं। राधा-कृष्ण को विभाव-रूप में प्रतिष्ठित करने और ‘रति’ भाव की अभिव्यंजना मात्र से दोनों सजातीय नहीं सिद्ध हो सकते। दोनों का अंतर कालिदास और जयदेव जैसा भी नहीं, कुछ और ही ढंग का है। यहाँ उसी को समझ लेना है। बहुज्ञता के व्यापारी एक ही साँस में कालिदास और रवींद्रनाथ के नाम लेने के अभ्यासी होते हैं; किंतु वस्तुस्थिति ऐसी नहीं। दोनों दो प्रकार के कवि हैं, चित्रमय या नादात्मक अभिव्यक्ति आदि का साम्य फिर भी आकृतिगत (Technical) साम्य ही है,–प्रकृतित: दोनों दो हैं। कालिदास रूप-प्रधान कवि हैं और रवींद्रनाथ भाव-प्रधान। कालिदास रूप-सृष्टि द्वारा अरूप रस-भाव की व्यंजना करते हैं और रवींद्रनाथ रस-भाव के लिए रूप का सहारा लेते हैं। अंतत: कालिदास में चित्र और रवींद्रनाथ में संगीत की प्रधानता है। इन दोनों (चित्र और संगीत) में अधिक व्यंजकता किसमें रहती है, यह एक विवादास्पद अथच अप्रासंगिक विषय है, यहाँ इसे छोड़ ही देना होगा। दोनों के सामंजस्य में महाकवित्व निहित है, यह मान्यता मेरी नहीं। अनुभूति की विवशता है कि सैद्धांतिकता की उपेक्षा न करने पर भी, व्यवहार-दशा में सामंजस्य की लीपापोती में से किसी एक रंग की छनती हुई गहराई को–एक की प्रधानता को मैं अस्वीकृत न करूँ। तो मुझे यहाँ यही कहना है कि चंडीदास भाव-प्रधान कवि हैं और विद्यापति रूप-प्रधान। चंडीदास में संगीत की प्रधानता है और विद्यापति में चित्र की। गीतकविता की परंपरा में दोनों के ही गीत आते हैं; किंतु दोनों की रसानुभूति दो प्रकार की होती है। दोनों को सजातीय सिद्ध करना मैथिली के महाकवि विद्यापति को हिंदी के आदिकवि के रूप में समादृत करने जैसा ही आग्रहपूर्ण है। यदि विद्यापति की मैथिली आधुनिक मैथिली से भिन्न और आदिम हिंदी के सन्निकट है, तो यह बात चंडीदास की बंगला के बारे में भी उतनी ही सत्य है। पंद्रहवीं शताब्दी के मध्यभाग से यूरोप में ‘रिनेसाँ’ (Rebaissance) का–नव-जागरण का आरंभ माना जाता है जबकि यूनानी दार्शनिकों के स्वतंत्र चिंतन से प्रभावित होकर चर्च के अंध धर्म से विज्ञान के वस्तु-सत्य के संधान को अधिक स्पृहणीय समझा जाने लगता है और जिसकी परिणति विज्ञान प्रधान वर्तमान बौद्धिकता कही जा सकती है। ठीक उन्हीं दिनों हमारे देश में संत तथा भक्त कवियों की परंपरा मध्ययुग की संस्कृति को खाद देकर उर्वर बना रही थी कि जिसके स्वर्ण-सस्य के रूप में सूर-तुलसी प्रकट होने वाले थे, पाश्चात्य वस्तु-विज्ञान के आधुनिक विकास सामने रखने पर इसे मानना ही पड़ेगा। मैं यहाँ चर्च-धर्म और पौराणिक-धर्म की तुलनात्मक मीमांसा न करूँगा; किंतु यह कहे बिना भी मेरा वक्तव्य स्पष्ट न होगा कि हमारे देश में बौद्ध धर्म एक वैज्ञानिक दर्शन ही था जिसने मध्ययुग की संस्कृति की नींव हिला दी थी और जिसकी विभिन्न शाखाओं ने किसी न किसी रूप में हमारी मान्यताओं को निश्चित प्रभावित किया था। संक्षेप में, पाली, प्राकृत, अपभ्रंश के साहित्य पर तो उसकी परछाईं देखी ही जा सकती है, संस्कृत के एक वृहत् भाग को भी उससे असंक्रांत नहीं माना जा सकता। कबीर और तुलसी बौद्धिक कवि ही कहे जाएँगे–एक दिशा में जयदेव और विद्यापति भी। पहले दोनों में सामाजिक बौद्धिकता और दूसरे दोनों में वैयक्तिक बौद्धिकता का विकास हुआ है। उसके विपरीत चंडीदास, सूरदास एवं मीरा का काव्य सहज हार्दिकता की उपज है। जयदेव और विद्यापति का काव्य हार्दिकता या अनुभूति-प्रवणता से कम और बौद्धिकता अथवा कल्पना-प्रवणता से अधिक उत्प्रेरित है, यह तर्क द्वार भी प्रमाणित किया जा सकता है और स्वाध्याय द्वारा अनुभव में भी उतारा जा सकता है। उसे अहार्दिक किंवा अनुभूति-शून्य तो कोई नहीं कह सकता क्योंकि यदि ऐसा होता तो गीतिकाव्य में उसके लिए ठौर ढूँढ़ना ही अशक्य हो जाता; किंतु वह तो गीतिकाव्य का आद्य शृंगार समझा जाता रहा है। अनुश्रुति है कि चंडीदास और विद्यापति का सम्मिलन हुआ था। मुझे तो यह तुलसीदास और मीराबाई के पत्र-व्यवहार के समान ही प्रतीत होता है। किंतु इस जनश्रुति की सदा से चर्चा होती आई है। “विद्यापति ठाकुर बंगदेशीय कवि चंडीदास के समसामयिक थे। एक बार वसंत काल में गंगातीर पर दोनों में साक्षात्कार भी हुआ था। उस भेंट की चार कविताएँ ‘वैष्णव पद कल्पतरु’ के 270वें पृष्ठ में देखी जाती हैं। ग्रियर्सन साहब लिखते हैं कि दो तो विद्यापति की है और दो विद्यापति के अनुगामी किसी बंगाली कवि की बनाई हुई हैं।” चंडीदास नाम के कई एक कवि हुए हैं। बहुत संभव है कि ‘कृष्णकीर्तन’ के निर्माता शृंगारी चंडीदास–जिसकी रचना विद्यापति से अधिक मेल खाती है–के साथ उपर्युक्त घटना घटित हुई हो; किंतु सहज प्रेम-तत्त्व के भावुक (Emotional) महाकवि चंडीदास और विद्या-वैभव-समृद्ध बुद्धिप्रधान (Intellectual) महाकवि विद्यापति का जैसा आंतर वैसा दृश्य है, उनके वहिर्मिलन की यह बात केवल कुतूहल उत्पन्न करके ही रह जाती है। विद्यापति ने उनके दर्शन का आग्रह प्रदर्शित किया हो तो इसका कारण ढूँढ़ना अनावश्यक है। किंतु श्री दीनेंद्रकुमार राय महाशय जिन शब्दों में इस प्रसंग की चर्चा करते हैं वह अवश्य विचारोत्तेजक है। श्री सतीशचंद्र राय एम. ए. महाशय तो बहुत बड़े भ्रम में पड़ गए हैं। उन्होंने ‘कृष्णकीर्तन’ वाले चंडीदास को ही वास्तविक चंडीदास समझ लिया है। तब उन्हें चौंक कर यह निष्कर्ष निकालना पड़ा है कि–“जहाँ विद्यापति ने भावोच्छ्वास और तल्लीनता की पराकाष्ठा दिखलाई है, वहाँ चंडीदास ने चोज-भरी उक्ति-प्रत्युक्तियों (Dialogues) से अपने काव्य में ऐसा एक अनूठापन भर दिया है कि उसकी तुलना ईसा की 16वीं सदी के पहले के बँगला-साहित्य में बहुत कम मिलती है। बंगाली जाति स्वभावत: भावोच्छ्वास-प्रवण होती है, और चंडीदास ने जयदेव के अतुलनीय गीति-काव्य के आधार पर काव्य लिखा है। फिर भी उनके काव्य में किसी कारण से भाव-प्रधान गीति-कविता की अपेक्षा कार्य-प्रधान नाट्यकला का ही अधिक नैपुण्य दीख पड़ता है। यह बंगला साहित्य के इतिहास में एक कठिन समस्या प्रतीत होती है।” इस विषय पर आगे–कृष्णकीर्तन–के प्रकरण में विस्तृत विवेचन किया गया है। अस्तु, श्री दीनेंद्रकुमार राय महाशय का मंतव्य प्रथम प्रस्तुत है :– कवि ने गाया है– “विकसित, पुष्प थाके पल्लवे विलीन, गंध तार लुकावे कोथाय?” कि खिला हुआ फूल तो भला कोंपलों में छुपा है पर उसकी गंध कहाँ छिपेगी? महाकवि चंडीदास की कविता के संबंध में यह बात शत-प्रतिशत सत्य है। उन दिनों आज कल के समान न यान-वाहनों की प्रचुरता थी और न देश-देशांतरों में जाना ही सहज साध्य था। रेल, मोटर, हवाई जहाज, टेलीफोन, रेडियो आदि विश्व के साथ मिलाने-जुलाने वाले किसी भी साधन का अभाव था। इतने पर भी उन्हीं दिनों चंडीदास की मधुर पदावली, देखते ही देखते, बंगदेश के एक छोर से दूसरे छोर तक छा गई थी। कीर्तनियाँ लोगों के ललित कंठ से गाई जा कर गाँव-गाँव, नगर-नगर में फैल कर बंगीय नर-नारियों के हृदय को आनंद-रस से आप्लुत करने लग गई थी। यह बात बिलकुल ही ठीक है कि चंडीदास को बचपन में अच्छी शिक्षा नहीं मिल सकी थी। रामी के साथ परकीया-साधना में प्रवृत्त हो कर उन्होंने सुमधुर कविता रचने की शक्ति अर्जित कर ली थी। किंतु फिर भी यदि संस्कृत भाषा में उनकी पैठ न होती तो बंग-साहित्य की उस शैशवावस्था में (विशेष कर तब, जबकि राष्ट्रीय जीवन में मुगलों की सभ्यता का प्रभाव अक्षुण्ण भाव से विराजमान था) स्वदेश-वासियों को यह ऐसा महार्घ रत्न दान कर सकना उनके लिए असंभव था। उनकी पदावली का पाठ करने से यह सुस्पष्ट रूप में ही प्रतीत हो जाता है कि न केवल संस्कृत भाषा में, प्रत्युत ‘भागवत’ में भी उनकी यथेष्ट पारदर्शिता थी। यदि उनकी कविता घुणाक्षर न्याय से लिख गई होती और ग्राम्य दोष से भरी-पूरी रहती अथवा उसमें दुर्बोध्य प्रादेशिक शब्दों की भरमार होती तो वैसी दशा में, उनके जीवन-काल में ही उनके कवित्त्व की ख्याति समूचे बंगाल में कभी भी नहीं फैल सकती थी, और इतना ही क्यों, वह बंगाल के भी बाहर, सुदूर मिथिला में प्रवेश कर मिथिला के राजकवि विद्यापति को तो किसी की भाँति मुग्ध न कर सकती थी। इस समय को काव्य-जगत् का महागौरवमय युग कह कर निर्दिष्ट किया जा सकता है। बंगाल में चंडीदास और बिहार में विद्यापति इन्हीं दिनों अपनी-अपनी भाषा के लालित्य और पदों के अतुलनीय माधुर्य से विद्वज्जनों के समाज को मुग्ध कर रहे थे। ये दोनों समसामयिक थे, इस विषय में तो संदेह के लिए अवकाश हो ही नहीं सकता। ‘पदकल्पतरु’ और ‘गीतकल्पतरु’ के कतिपय पदों के पढ़ने से यह सहज ही प्रतीत होता है कि दोनों कवि एक-दूसरे की कविताओं पर मुग्ध हो रहे थे। ऐसी दशा में यदि ये परस्पर परिचय के लिए व्याकुल होते थे तो यह स्वाभाविक ही था। चंडीदास विद्यापति की प्रतिभा के चाहे जितने भी बड़े पक्षपाती हों, किंतु वह इस दुराशा को तो क्षण भर के लिए भी अपने मन में स्थान नहीं दे सकते थे कि वह मिथिला पहुँच कर महाराज शिवसिंह के दरबार के राजकवि, सुपंडित, भाग्यवान विद्यापति के दर्शन कर चरितार्थ होंगे। क्योंकि दोनों की सामाजिक स्थिति में आकाश-पाताल का-सा अंतर था। एक यदि सर्व-जन-सम्मानित, सुविद्वान, धनवान, महाराज का प्रेमपात्र सुहृद् था, तो दूसरा गँगई-गाँव का रहनेवाला दरिद्र, पूजा-पाठ से जीविकोपार्जन करने वाला पुरोहित अथवा पौरोहित्य से भी प्रताड़ित, समाज में अपमानित, उपेक्षित, एक अछूत धोबिन का प्रेमी कह कर लांछित और सर्वसाधारण के व्यंग्यबाणों से जर्जरित था। किंतु इतने पर भी वे दोनों एक ही पथ के पथिक थे। राधा-कृष्ण का अपार्थिव प्रेम ही दोनों के काव्य का उपादान था। विद्यापति ने चंडीदास की कविताओं के भीतर से ही उनके हृदय के ऐश्वर्य का परिचय प्राप्त किया था। उनका समग्र दु:ख-दैन्य अथवा कलंक इस ऐश्वर्य की छाया छूने में भी समर्थ न था। इसी बीच विद्यापति के चंडीदास से मिलने का सुयोग जुट गया। गोस्वामी तुलसीदास जी के– ‘जाकर जा पर सत्य सनेहू, सो तोहि मिलय न कछु संदेहू।’ वचन के अनुसार विधाता ने ही उनकी इच्छा पूरी की। महाराज शिवसिंह को किसी राज-काज के सिलसिले में बंगाल जाना पड़ा। असल में उन्हें वर्द्धमान जिले के मंगलकोट नामक स्थान में पहुँचना था। विद्यापति भी चंडीदास से साक्षात्कार की कामना सँजोए किसी राजाधिराज के साथ सुदूर तीर्थाटन के लिए निकले हुए एक अकिंचन के समान (राजेंद्र संगमे दीन यथा याय दूर तीर्थपर्यटने) महाराज शिवसिंह के साथ सुदूर वर्द्धमान के मंगलकोट नामक ग्राम में उपस्थित हुए। किंतु वस्तुत: उनका उद्देश्य था चंडीदास का दर्शन; चंडीदास के साथ कविता की आलोचना। उन्होंने अवकाश के क्षण मंगलकोट में न बिताकर चंडीदास से मिलने की व्याकुलता व्यक्त की। और इतना ही नहीं, रूपनारायण नामक एक व्यक्ति के साथ चंडीदास के दर्शनार्थ चल भी दिए। ‘संगहि रूपनारायण केवल विद्यापति चलि गेल!’ इधर चंडीदास को मंगलकोट में विद्यापति के आने की बात कैसे मालूम हुई, यह कह सकना कठिन है। बहुत संभव है, कानोंकान यह संवाद उन तक पहुँच गया हो! कुछ भी हो, विद्यापति के दर्शनों की आशा से चंडीदास भी मंगलकोट की ओर चल पड़े। तभी वसंत की सुनहली दोपहरी में, गंगा के किनारे बरगद की ठंडी छाँह में, बंगाल और मिथिला के महाकवियों का चिरकांक्षित मिलन संभव हुआ। यों तो उनके उस मिलन के आनंद का अनुभव ही किया जा सकता है फिर भी प्राचीन काल की एक सुमधुर कविता के द्वारा उनके मिलन की घटना ने साहित्य-जगत् में भी स्थायित्व लाभ लिया है :– ‘समय बसंत, याम दिन माझ हि वटतले, सुरधुनी - तीरे, चंडीदास कविरंजन मिलल, पुलके कलेवर गीर! दुहुँ जन धैरय - धरइ ना पार! संगहि पनारायण केवल दुहुँक अवश प्रतिकार!’4 इसके बाद, जैसे दो विद्वान इकट्ठे होने पर शास्त्रीय आलोचना करने लग जाते हैं वैसे ही दोनों कवियों ने छुट कर रसालोचना की। यहाँ यह कहना तो अनावश्यक होगा ही कि इनकी आलोचना तैलाधार भांड या भांडाधार तैल के तुल्य शुष्क तर्कमात्र न थी। चंडीदास ने ‘रसतत्त्व’ के संबंध में प्रश्न कर कहा :– ‘कह विद्यापति इह रस कारण, लछिमा पद करि ध्यान’ विद्यापति ने भी ललितमधुर कविता में चंडीदास को ‘रसतत्त्व’ की व्याख्या कर सुना दिया, और अंत में– ‘भणे विद्यापति चंडीदास तथि रूपनारायण-संगे, दुहुँ आलिंगन करल तखन भासल प्रेम-तरंगे!’ इस मिलन-प्रसंग में बंगाल और बिहार के दो आदिकवियों की सहृदयता का एक उज्ज्वल दृष्टांत कविता में देखा जा सकता है। उन दोनों में से किसी ने भी इस मिलन के उपलक्ष्य में ‘रूपनारायण’ नामक एक नगण्य व्यक्ति के अस्तित्त्व की उपेक्षा नहीं की है। कहते हैं, विद्यापित नान्नुर जाकर चंडीदास के साथ कुछ दिन रहे थे। विद्यापति के साथ चंडीदास के इस मिलन को अविश्वास्य घटना कह कर कुछेक समीक्षक साफ उड़ा देना चाहते हैं। कुछ लोग ऐसे होते हैं जो कोई चोखी-अनोखी नई बात कहकर अथवा बहुत दिनों से चले आते हुए किसी सत्य को मिथ्या सिद्ध कर पाठकों को विस्मित-चकित कर देने का लोभ नहीं संवरण कर पाते। वे भाँति-भाँति के तर्कों की झोली झाड़ कर किसी न किसी नए तथ्य का आविष्कार करने बैठ जाते हैं। उन्हीं में से कुछ लोग चंडीदास और विद्यापति के मिलन की कहानी को जिस युक्ति से मिथ्या सिद्ध करने के लिए बद्ध-परिकर दिखाई देते हैं वह नितांत नि:सार है। उनका कहना है कि गान्नुर गंगातट से आठ कोस पच्छिम है और नान्नुर के पच्छिम की ओर से ही विद्यापति के आने की बात कही जाती है। चंडीदास यदि नान्नुर से पूर्व दिशा की ओर न गए होते तो गंगा के तीर पर बरगद की छाँह में विद्यापति से उनका मिलना संभव न होता! इससे यह प्रमाणित होता है कि दोनों कवियों के मिलन की बात काल्पनिक है–केवल कवि-प्रसिद्धि! परंतु इसके उत्तर में यह सत्य-तर्क दिया जा सकता है कि नदिया जिले के पश्चिम भाग में भागीरथी हैं–और भागीरथी का पश्चिम तट वर्द्धमान जिले में है, सबसे मज़ेदार बात यह है कि जिस नवद्वीप से नदिया जिले का नाम है, वह नवद्वीप ही भागीरथी के पश्चिम तट पर अवस्थित है। वस्तुत: इसका एकमात्र कारण है, भागीरथी की धारा की गति का बदल जाना। पाँच सौ वर्ष पहले जिस ओर से नदी बहती थी उस ओर से उसकी धारा का मुड़ जाना कोई असंभव बात तो है नहीं। इसके अतिरिक्त विद्यापति सुदूर मिथिला से बंगाल बैलगाड़ी या पालकी से, स्थलमार्ग से ही आए हों, इस प्रकार के अनुमान करने का कोई कारण नहीं दीख पड़ता। प्रत्युत विद्यापति ने जलमार्ग से यात्रा की होगी, इसी की अधिक संभावना है। कारण, उन दिनों वही पथ अधिक सरल-सुगम था। फलत: दोनों कवियों का गंगातट पर मिलना कोई अशक्य व्यापार नहीं हो सकता। हमारा विश्वास है कि सुप्रतिष्ठित सत्य को अनुमान के जादू द्वारा उड़ा देने की चेष्टा से वाग्विभूति का प्रदर्शन करने पर प्राय: यही होता है कि साधारण जनों का दीर्घकाल से चला आता हुआ रहा-सहा विश्वास भी नष्ट हो जाता है और नहीं तो उससे कुछ नया प्राप्त हो सकने की संभावना तो रहती नहीं।” राय महाशय की इस समीक्षा में कुछ विचित्रता है। चंडीदास के प्रति भक्ति का अतिरेक ही कदाचित् इस विचित्रता का बीज हो! राजकवि विद्यापति से साधक कवि चंडीदास इसलिए मिथिला में नहीं मिल सकते थे कि दोनों की सामाजिक स्थिति में आकाश-पाताल का-सा अंतर था, यह युक्ति तो कुछ जँचती नहीं। कारण, यदि विद्यापति दरबारी कवि मात्र थे, तो चंडीदास को उनसे मिलने का आग्रह क्यों था? और यदि वह ‘दरबार’ से ऊँचे उठे हुए थे–तब तो चंडीदास के लिए यह सामाजिक वैषम्य अधिक आपत्तिजनक नहीं हो सकता था। सच तो यह कि चंडीदास की महत्ता से स्वयं विद्यापति प्रभावित थे और, यदि दोनों का सम्मिलन सचमुच ही संघटित हुआ, तो वह निश्चित रूप से उसी का परिणाम भी था। चंडीदास को विद्यापति के भौतिक ऐश्वर्य ने अभिभूत नहीं किया था।5 दूसरी बात, राय महाशय परंपरा के पूर्ण पक्षपाती हैं इसलिए इस मिलन-कल्पना को तर्कों से प्रमाणित करने में नहीं चूकते, तर्क अपने तईं चाहे जैसे हों। गंगा का किनारा कट सकता है, धार पलट सकती है,–भौगोलिक व्यवस्था में इतना बड़ा अंतर भी उपस्थित हो सकता है कि भवभूति की भाषा का सहारा लेकर कहना पड़े– पुरा यत्र स्रोत: पुलिनमधुना तत्र सरितां विपर्यासं यातो घन-विरल भाव: क्षितिरुहाम् बहोर्दृष्टं कालादपरमिव मन्ये वनमिदं निवेश: शैलानां तदिदमति बुद्धिं द्रढ़यति। किंतु चंडीदास-विद्यापति की काव्य-प्रकृति के आंतरिक वैसा दृश्य की ओर जैसा संकेत पहले किया जा चुका है और जो उनके सामाजिक वैषम्य के कारण भी न केवल अभिव्यक्ति-पक्ष में किंतु अनुभूति-पक्ष में भी सुस्पष्ट प्रतीत होता है,–उसमें अंततोगत्वा तात्त्विक विभेद नहीं, एकता ही है,–‘चंडीदास-विद्यापति-सम्मिलन’ का यही अर्थ मैं समझता हूँ। ऐतिहासिक समकालिकता की सिद्धि मात्र नहीं।