तेलुगु-साहित्य

तेलुगु-साहित्य

“तेलुगु में ‘तेने’ शब्द प्रयुक्त होता है शहद के अर्थ में। यह भाषा अपनी मिठास के लिए सारेदक्षिणापथ में प्रसिद्ध है। पाश्चात्य भाषाविदों ने इसे ‘दि इटालियन ऑफ दि ईस्ट’ कह कर इसकी निसर्गजनित माधुरी तथा संगीत की उपयोगिता की दाद दी है।”

आंध्र प्रदेश में व्यवहृत भाषा ‘तेलुगु’ अथवा ‘तेनुगु’ कहलाती है। इसके उद्गम के बारे में भाषाशास्त्र के पंडितों में मतभेद है। डॉ. काल्ड्वेल महोदय के अनुसार यह द्रविड-कुल की भाषाओं में एक मानी जाती है। किंतु डॉ. चिलुकूरिनारायण राव जी की धारणा है कि ‘आंध्र’ जाति की ही तरह उनकी इस भाषा का उद्भव, आर्यों की भाषा संस्कृत से हुआ है। इस अनुमान की पुष्टि तेलुगु के आदि-कवि श्रीनन्नय भट्टारक के व्याकरण ‘आंध्र-शब्द-चिंतामणि’ की यह पंक्ति करती है–

“आद्य प्रकृति: प्रकृतिश्चाद्ये,
एषा तयोर्विकृति:।”

अर्थात् संस्कृत और प्राकृत आदि-भाषाएँ हैं, और यह (तेलुगु) उनके विकार परिणाम से बनी है। ‘तेलुगु’ और ‘तेनुगु’ ये शब्द क्रमश: ‘त्रिलिंग’ या ‘त्रिकलिंग’ और ‘त्रिनग’ शब्दों के परिणाम माने जाते हैं। प्रसिद्ध शैवक्षेत्र दक्षाराम का ‘भीमेश्वर लिंग’, श्रीशैल का ‘मल्लिकार्जुन लिंग’ तथा कालहस्ती का ‘ईश्वरलिंग’ त्रिलिंग हैं। इनके बीच की भूमि में व्यवहृत भाषा होने से इसका नाम ‘तेलुगु’ पड़ा है। इसी प्रकार तीन नागों1 (पहाड़ों) के मध्य प्रदेश में व्यवहृत होना भी इसके ‘तेनुगु’ कहलाने का कारण बना है। तेलुगु में ‘तेने’ शब्द प्रयुक्त होता है–शहद के अर्थ में। यह भाषा (अजंत) स्वरांत होने के कारण अपनी मिठास के लिए, सारे दक्षिणापथ ही में ही नहीं, वरंच पाश्चात्य भाषाविदों में भी प्रसिद्धि पा चुकी है। इसे ‘दि इटालियन आव दि ईस्ट’ कहकर उन भाषा मनीषियों ने इसकी निसर्ग-जनित माधुरी तथा संगीत की उपयोगिता की दाद दी है। आंध्र-माता के सपूत, महान् वाग्गेयकार एवं नादयोगी श्री संत कवि त्यागराज के गीतों का गायन, दक्षिण के विभिन्न भाषा-भाषी सभी संगीतज्ञ बड़े आदर के साथ करते हैं; यही एक विषय तेलुगु में विद्यमान अन्यत्र-दुर्लभ माधुर्य एवं प्रासादिकता का सबल प्रमाण है।

तेलुगु भाषा में स्फुट एवं पुष्ट साहित्य के दर्शन हमें ई. सन् 1050 के आसपास होते हैं। इस साहित्य के पितामह ‘वागनुशासक’ महाकवि नन्नय भट्टारक-कृत संस्कृत-महाभारत का अनुवाद ग्रंथ ही यहाँ का सर्वप्रथम काव्य-ग्रंथ माना जाता है। उसके पूर्व भी अनेकानेक साहित्य-संबंधी रचनाएँ लोक-गीतों, ‘यक्षगानों’ (गेय नाटक), पदों तथा वीरगाथाओं के रूप में प्रचलित रहीं अवश्य। किंतु नन्नय भट्टारक के ग्रंथ का-सा व्यवस्थित काव्यत्व वे प्राप्त नहीं कर सकीं। अलावा इसके उस समय की अधिकांश कृतियाँ आज देखने में नहीं आती हैं। अतएव महाभारत के पूर्व के समय को हम तेलुगु-साहित्य का ‘अज्ञात युग’ कह सकेंगे। आदि-कवि से लेकर आजतक के समय का, साहित्यिक दृष्टि से, विभाजन इस प्रकार किया जा सकता है–

1. पुराण अथवा अनुवाद-युग–(ई. सन् 1050 से 1500 तक)
2. प्रबंध-युग अथवा मध्ययुग–(ई. सन् 1500 से 1750 तक)
3. ह्रास-युग–(ई. सन् 1750 से 1875 तक)
4. वर्तमान युग–(ई. सन् 1875 से आज तक)

पुराण-युग में विशेषकर संस्कृत के बृहत् ग्रंथों के अनुवाद ही किये गए हैं। मौलिक रूप से कोई भी उल्लेखनीय रचना नहीं हुई है। इन अनूदित ग्रंथों में महाभारत, रामायण, महाभागवत, हरिवंश, शृंगार-नैषधम्, काशीखंडम् तथा भीमखंडम् वगैरह प्रधान हैं। महाभारत का प्रणयन तीन महाकवियों के द्वारा हुआ है जिन्हें ‘कवित्रय’ कहते हैं। सर्व-श्री नन्नय भट्टारक, महाकवि तिक्कनामात्य और प्रबंधपरमेश्वर यर्राप्रगडा ने उस महान् ग्रंथ को समस्त काव्यगुणों से समलंकृत कर साहित्य-कामिनी का शिरोरत्न बना दिया है। श्री नन्नया वर्तमान राजमहेंद्री के तत्कालीन शासक आंध्र चालुक्य राजा श्रीराजराजनरेंद्र के समय में रहे। श्री तिक्कनामात्य ई. सन् तेरहवीं शतक के मध्योत्तर भाग में नेल्लूर के शासक राजा मनुमसिद्धि के प्रधान मंत्री तथा कवि रहे। श्री यर्रना का समय ई. सन् 1300 से लेकर 1350 तक निकलता है। लगभग इसी समय श्री रायनि भास्कर नामक कविवर ने रामायण का अनुवाद तेलुगु में प्रस्तुत किया था। उनके कतिपय वर्ष पीछे प्रात:स्मरणीय महाकवि एवं भक्तवर पोतनामात्य ने अपना प्रसिद्ध ग्रंथ ‘आंध्रमहाभागवत’ का प्रणयन किया था। परमार्थ तथा साहित्य, दोनों दृष्टियों से देखने पर यह तेलुगु-साहित्य का महान गौरव-ग्रंथ ठहरता है। इसकी पहुँच, उत्तर में श्री गुसाँई जी की रामायण की तरह आंध्र प्रदेश में सर्वत्र है। इन पोतना का स्यालक महाकवि श्रीनाथ ने संस्कृत के हर्ष-कविकृत नैषधीयचरित्र तथा काशीखंड वगैरह 14 ग्रंथों के सुंदर अनुवाद प्रस्तुत किए थे। इनके अलावा सर्वश्री शिवकवि सोमनाथ, नन्नेचोड, नाचन सोमना, गोन बुद्धारेड्डी वगैरह इस समय के गण्यमान कवि हैं।

मध्ययुग में जाकर कलाकारों की साहित्य-सृजन-पद्धति बदल गई। तब तक चली आती हुई संस्कृतानुवादों की परंपरा रुक-सी गई। ‘प्रबंध-रचना’ नामक एक नूतन काव्यशैली का आरंभ हो गया। ‘प्रबंध’ शब्द का प्रयोग तेलुगु में महाकाव्य के अर्थ में होता है। इस समय की प्राय: सभी रचनाओं के वर्ण्यविषय शृंगार-प्रधान हैं। अष्टादश प्रकार के वर्णन, अलंकारों की बहुलता, श्लिष्ट, द्विअर्थी, त्र्यर्थी काव्यों का निर्माण, अपूर्व तथा विचित्र कथावस्तु-ग्रथन, समस्या-पूर्ति, दुरूह-शब्द-योजना वगैरह की ओर कवियों की प्रवृत्तियाँ उन्मुख रहीं। विलासिता को कविता-क्षेत्र में स्थान मिलने लगा। दो-तीन कवियों को छोड़ सबने साहित्य को प्रजा-जीवन से दूर हटा कर आदर्श-भ्रष्ट बना डाला। फिर भी तेलुगु-भाषा एवं साहित्य को गौरवान्वित करने में समर्थ कई कृतियाँ इसी समय बनी हैं। विश्वविदित विजयनगर राज्य के शासक श्री कृष्णदेवराय ने साहित्य तथा शिल्पकला की जो उन्नति कराई थी, उसे दृष्टिकोण में रखते हुए हम इस समय को आंध्र-संस्कृति का स्वर्णयुग मान सकेंगे। सैकड़ों कवियों को आश्रय देने के अलावा ये महाराज स्वयं उत्तम श्रेणी के कवि और प्रौढ़ वाग्विधायक रहे। इसका सबल प्रमाण इनकी रचना ‘आमुक्त-माल्यदा’ प्रस्तुत करती है। महाकवि पेद्दना, सूरना, भट्ट, मूर्ति, तेनालि रामकृष्ण, नंदि तिम्मना आदि मध्ययुग के प्रतिभावान् कवि रहे। इनकी रत्नोपम कृतियाँ ‘मनुचरित्रमु’, ‘कलापूर्णोदयमु’, ‘राघवपाण्ड वीयमु’, ‘वसुचरित्रमु’, ‘पाण्डुरंग माहात्म्यमु तथा ‘पारिजातापहरणमु’ ‘तेलगु-साहित्य’ की अमर संपत्ति हैं। प्रबंध-युग के सांध्य-काल (ई. सन् 1600-1750) में साहित्यिक महारथियों का वह अखाड़ा विजयनगर से हटकर सुदूर दक्षिण के तंजाऊर के नायक राजाओं के आश्रय में जम गया। उस समय की रचनाओं पर नख-शिख, नायिकाभेद वगैरह समाज को पतित बनाने में समर्थ नग्न शृंगार की छाप अपेक्षाकृत अधिक पड़ गई है। स्त्री कवि मुद्दुपलनि की रचना ‘राधिकास्वांतनमु’, श्री वेंकटपति की कृति ‘तारा-शशांक विजयमु’ वगैरह इस श्रेणी की हैं। श्री चेमकूर वेंकटकवि कृत ‘विजयविलासमु’ अपनी विशिष्ट विशिष्टता लिए रहता है। इस काव्य के प्रत्येक पद्य में कोई न कोई शब्दार्थगत चमत्कार अवश्य रहता है।

ई. सन् 1775 से धीरे-धीरे देशी राजाओं का अधिकार क्षीण होने लगा; अंग्रेजी हुकूमत के फैलाव के साथ-साथ उनके पादरियों का धार्मिक विष-प्रचार भी बढ़ता गया। देशी संस्कृति, साहित्य एवं ललित कलाओं को प्रश्रय देनेवाला कोई नहीं रह गया। परिणाम-स्वरूप साहित्य भी अवसन्न दशा को प्राप्त होने लगा। करीब 100 वर्षों के इस साहित्यिक नैशस्तब्धता के पश्चात् ई. सन् 1875 के आसपास नवयुग-कोकिल श्री स्व. कंदुकूरि वीरेशलिंगम् पंतुलु ने समाज-सुधार एवं निज-भाषा-प्रेम की सुंदर प्रभाती गाकर तंद्रालस जाति को जगाया। वर्तमान साहित्य के प्राय: सभी अंगों का श्रीगणेश इन्हीं महानुभाव के हाथों हो गया है। श्री वीरेशलिंगम् जी ब्रह्मसमाजी थे। अत: उनका ध्यान साहित्यिक पुनरुत्थान के साथ-साथ सामाजिक नव-निर्माण की ओर भी गया। बहुत ही छोटी उम्र में लड़कियों की शादियाँ करना तथा विधवा-विवाह निषेध वगैरह अंध-परंपराओं के वे कट्टर विरोधी थे। सुधार-संबंधी अपने उग्र विचारों का प्रचार करने में उन्होंने साहित्य को सुंदर साधन बना लिया था। उनके विचारों से प्रभावित होकर कई नवयुवक लेखक उनके अनुयायी बन गए और उनके दिखाए मार्ग पर चलकर साहित्य की सेवा करने लगे। उनमें श्री पानुगंटि तथा चिलकमूर्ति लक्ष्मीनरसिंहम् के नाम उल्लेखनीय हैं।

श्री वीरेशलिंगम् जी के बाद श्री तिरुपति-वेंकेटेश्वर कविद्वय का समय आता है। ये श्री तिरुपति शास्त्री तथा वेंकट शास्त्री नामक दो अपूर्व प्रतिभा-संपन्न कवि-बंधु रहे। काव्य-रचना में दोनों बेजोड़ थे; दोनों ने कविता को ही नित्य-जीवन में भाव-विनिमय का साधन बना लिया था! इन दोनों ने ‘शतावधान’ की अद्भुत नवीन परंपरा का प्रारंभ कर, साहित्य की अनुपम सेवा की है। दोनों आशु-कवि थे और एक-एक घंटे में पचासों पद्य धड़ाधड़ सुनाते जाते थे। देश के छोटे-मोटे जमींदारों के यहाँ जाते; उनके आश्रित पंडितों तथा कवियों को साहित्यिक समर के लिए ललकारते और अपनी अमोघ वाणी से परास्त कर दम लेते! इनकी प्रतिभा से मोहित हो कर कई प्रतिभाशाली नवयुवक उनके शिष्य बने और ‘शतावधान’, ‘अष्टविधान’ आदि कठिन से कठिन साहित्यिक चमत्कारों का प्रदर्शन करने लगे। इनमें से श्री वेंकट शास्त्री जी ‘किंकवींद्र-घटा-पंचानन’ की विशिष्ट उपाधि से अलंकृत रहे और चौरासी वर्ष की लंबी उमर बिताकर गत शिवरात्रि के पुण्यदिवस को कैलासवास प्राप्त कर गए। वर्तमान मद्रास-सरकार ने इन्हें हाल ही में अपना ‘आस्थान कवि’ (Poet Laureate) बना लिया था। इन्हीं कविद्वय के शिष्य तथा प्रशिष्य आज तेलुगु-साहित्य को विभिन्न रीतियों से सजा रहे हैं। एक शब्द में यदि कहा जाए तो वर्तमान तेलुगु-साहित्य का इतिहास ही श्री वेंकट शास्त्री की जीवन-कथा कहा जा सकता है। अस्तु!

बीसवीं शती के प्रथम चरण में स्व. श्री गुरजाड अप्पाराव तथा रायप्रोलु सुघाराव नामक दो युग-प्रवर्तक कवियों ने साहित्य-क्षेत्र में युगांतर-सा खड़ा कर दिया। श्री अप्पाराव जी ने समाज-सुधार की आवश्यकता के साथ-साथ देशभक्ति की ओर प्रथम बार लोगों का ध्यान आकृष्ट किया था। ये श्रीवीरेश लिंगम् जी के अनुयायी रहे। सामाजिक तथा साहित्यिक पुरानी रूढ़ियों को तोड़ना इनका काम रहा। श्री आचार्य रायप्रोलु सुघाराव जी के जीवन में आरंभ से काव्यत्व ही प्रधान रूप से पाया जाता है। समाज-सुधार अथवा राजनीति से कोई संबंध वे नहीं रखते। उन्होंने मुक्तक-काव्यक्षेत्र में ‘प्रेम’ व ‘प्रणय’ की प्रतिष्ठा करके एक नवीन मार्ग का प्रवर्तन किया है। उनकी रचनाओं पर कवींद्र रवींद्र के विचारों की छाप साफ लक्षित होती है। साथ-साथ अंग्रेजी कवि ‘कीट्स’, ‘शेली’, ‘वर्ड्सवर्थ’ आदि की रचनाओं से भी वे प्रभावित हुए हैं। ‘तृणकं-कणमु’, ‘जड़कुंचुलु’ वगैरह उनकी प्रसिद्ध रचनाएँ हैं। ‘भाव-कवित्वमु’ नामक नवीन काव्यधारा के वे प्रतिपादक हैं।

महात्मा गाँधी तथा कांग्रेस ने राष्ट्रीय जागरण का जो शंख बजाया था, उसके श्रवण से आंध्र जनता में भी हलचल-सी मच गई। श्री गरिमेल्ल सत्यनारायण वगैरह कई देशभक्त कवि अपने अग्नि-गान के द्वारा पराधीनता को भस्मसात् करने में मग्न रहे। इस खेमे के लेखकों में वयोवृद्ध तपस्वी लेखक श्री उन्नवलक्ष्मीनारायण जी का नाम सम्मान के साथ लिया जाएगा, जिन्होंने अपने प्रसिद्ध उपन्यास ‘मालपल्ली’ के द्वारा स्वतंत्रता-समर तथा अस्पृश्यतानिवारण आदि कई राष्ट्रीय समस्याओं को बल पहुँचाया है। श्री ज्यषुवा नामक एक हरिजन कवि ने ‘गब्बिलमु’ नामक अपनी मधुर कृति में वर्तमान हरिजनों की दुर्दशा दूर करने की आवश्यकता का बड़े ही प्रभावोत्पादक ढंग से प्रतिपादन किया है।

वर्तमान साहित्य के विकास में कई संस्थाओं ने भी योगदान किया है जिनमें प्रधान रूप से उल्लेखनीय दो हैं–‘साहिती-समिति’ तथा ‘नव्य साहित्य-परिषद्’। पहली संस्था की स्थापना दो-तीन शाब्दियों के पूर्व आदरणीय कवि पंडित श्री तल्लावझल शिवशंकर स्वामी के सभापतित्व में हुई। ये महानुभाव तेलुगु, संस्कृत, अँग्रेजी, हिंदी, बँगला आदि भाषाओं के अच्छे मर्मज्ञ हैं। इन से प्रेरणा पाकर कई नवयुवक साहित्य-क्षेत्र में कदम बढ़ा रहे हैं। दूसरी संस्था की स्थापना में भी श्री स्वामी जी का हाथ रहा। परिषद् का कार्य सुचारू रूप से चलाने का श्रेय उसके मंत्री श्री ते. वेंकट रत्नम् जी को है।

ह्रासोन्मुख सनातन वैदिक संस्कृति, धार्मिक तथा नैतिक विचारधारा के पुनरुत्थान को काव्य का वर्ण्य विषय मान कर रचना करने वालों में श्री विश्वनाथ सत्यनारायण जी का नाम सर्वप्रथम लिया जाएगा। इनकी रचनाओं में ‘वेयिपडगलु’, ‘चेलि यलिकट्टा’, ‘एकवीरा’, ‘किन्नर-सानिपाटलु’ वगैरह प्रसिद्ध हैं। अनेक सफल काव्यों तथा एकांकी नाटकों के प्रणेता एवं ‘नारायण भट्टु’, ‘रुद्रमा देवी’ आदि उपन्यासों के लेखक श्री नोरिनरसिंह शास्त्री जी भी उक्त उद्देश्य की पूर्ति के लिए अथक प्रयास कर रहे हैं। काव्य में प्रेम तथा स्वच्छंदता-वाद (Romanticism) को प्रधानता देकर दु:ख की उपासना करने वाले कवियों में श्री देववुलपल्लि कृष्णशास्त्री जी प्रधान हैं। कला को ही जीवन का चरम व परम ध्येय मान कर, जीवन में सर्वत्र उसी की उपासना करने वालों में श्री अडविबापिराजु जी का नाम सादर लिया जा सकता है। इनके गीत, उपन्यास, कहानियाँ सभी कलात्मक होकर अपने स्रष्टा के उदार हृदय की विशद व्याख्या कर देते हैं। ग्रामीण वातावरण तथा वहाँ के आदिवासियों के सरल, सुंदर और पवित्र दंपति-प्रणय का सजीव चित्र ठेठ देहाती भाषा में उतार कर काव्य-जगत् में एक नूतन अध्याय खोलने का श्रेय श्री नंडूरि सुब्बाराव जी को मिला है। इनकी ‘येंकि पाटलु’ का तेलुगु-साहित्य में अपना विशेष स्थान है।

उपरोक्त साहित्यिकों के अतिरिक्त सर्वश्री ज. माधव राम शर्मा, स्व. येटुकूरि वेंकटनरसय्या, दुव्वूरी रामिरेड्डी, श्री तुम्मल सीताराममूर्ति चौधरी, गडियारम वेंकट शेष शास्त्री, दुर्भाक राजशेखर शतावधानी, श्री काटूरि वेंकटेश्वर राव, चिंता दीक्षितुलु, मुनमाणिक्यम्, नरसिंहराव, कविकोंडल वेंकटराव, नायनि सुब्बाराव, वेदुल सत्यनारायण शास्त्री, श्रीरंगम् श्री निवास राव, मोक्कपाटिनरसिंह शास्त्री, भमिडिपाटि कामेश्वर राव, वेटूरि प्रभाकर शास्त्री, कोराड रामकृष्णय्या, कुरुगंटि सीतारामय्या, वाविलाल सोमयाजुलु, पी. वें. हनुमंतराव आदि कितने ही समुज्वल ज्योति-पुंज अपनी सतरंगी मयूख-मालिका से वर्तमान साहित्य-गगन को जगमगा रहे हैं। अभिव्यंजनावाद, प्रगतिवाद, प्रतीकवाद, अतिवास्तविकतावाद (Sur-realism) आदि कितनी ही नई दिशाओं में होकर साहित्य की वेगवती स्रोतस्विनी विकास तथा उन्नति की ओर बढ़ रही है। यह पुरोगमन काव्य, नाटक, उपन्यास, कहानी, समालोचना, निबंध, आदि साहित्य के सभी क्षेत्रों में लक्षित हो रहा है। इन सभी विषयों पर दृकपात् करते हुए हम कह सकते हैं कि तेलुगु-साहित्य के सामने उज्ज्वलतर भविष्य है।


संदर्भ

1. ये तीन पर्वत हैं कटक के पासवाला महेंद्रगिरि, श्रीशैल या श्रीपर्वत और कालहस्ती का पहाड़।

–ले.


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