गद्य धारा

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फिल्टर

संध्या समय पटना पहुँच गया। ऊब उठा हूँ–गया से पटना, पटने से गया। गंगा-तट पर गया। बैठा रहा। गोधूलि और गंगा की शांत-शोभा। निर्जन घाट पर बैठा हूँ–देख रहा हूँ, पाल ताने कुछ नाव दूर पर जा रही हैं। उस पार का दृश्य कितना मनोहर है। मैं मानो स्वप्नलोक में बैठा हूँ–जहाँ रंग है, रूप है, गंध है; किंतु स्पर्श नहीं है, शब्द नहीं है। मैं स्पर्श और शब्द को पसंद नहीं करता। शांत गंगा तट से लौट पड़ा–माँ की गोद से उतर कर धूल-भरी धरती पर चलने-फिरने लगा। ‘पटना मार्केट’ की जगमगाहट! राम-राम!! मानव प्रयत्न करके शोर-गुल और अशांति का निर्माण करता है। भगवान ने निश्चय ही किसी नरक का निर्माण नहीं किया; किंतु यह काम मानव बड़ी तत्परता से करता रहता है–मानव महाशय, आप धन्य हैं। आप इस दुनिया को मिटाकर ही दम लेंगे। होटल का शांत एकांत कमरा। 1 बजे रात तक पढ़ता रहा–बलदेव उपाध्याय का ‘भारतीय साहित्यशास्त्र’–एक स्वस्थ ग्रंथ है; किंतु में उपाध्याय जी के बहुत से सिद्धांतों को स्वीकार नहीं कर सकता–यह मेरा ही दुर्भाग्य है।