हम इनसे मिले थे

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फिल्टर

पद्मश्री उषाकिरण खान का लंबे समय तक बिहार के साहित्यिक क्षितिज पर स्त्री रचनाकार के तौर पर एकाधिपत्य रहा है। उनकी पहली कहानी का प्रकाशन सन् 1978 में हुआ। तब से अब तक उनकी 13 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं जिनमें आठ कहानी संग्रह और पाँच उपन्यास हैं। मिथिला की धरती इनकी कहानियों का प्राण-तत्त्व है। मिथिला के संस्कार से इनका व्यक्तित्व अभिसिंचित रहा है। उषा जी की कहानियाँ अपनी सहजता और संवेदनशीलता के लिए जानी जाती हैं। आज के स्त्री विमर्श के ढाँचे में उनकी कहानियाँ भले ही फिट न बैठती हों पर अपने इसी भिन्न तेवर के कारण उनकी कहानियाँ स्त्री लेखन में अपनी अलग पहचान बनाती हैं। उषाकिरण खान की रचनाएँ स्त्री लेखन में अपनी अलग पहचान बनाती हैं इस रूप में कि यहाँ स्त्री, स्त्री के रूप में नहीं, व्यक्ति के रूप में उपस्थित है। उनकी रचनाओं को स्त्री विमर्श के सीमित खाँचे में नहीं रखा जा सकता, पर वे स्त्री हैं और इसलिए उनकी रचनाओं की मुख्य पात्र के रूप में स्त्री आती रही है। यहाँ जो स्त्री है वह आँसू बहाती या नारे लगाती स्त्री नहीं है, पर आप उसे नकार नहीं सकते। वह वहाँ है अपने होने के एहसास से भरी-पूरी, अपनी अस्मिता के प्रति सजग पर हवा-पानी की तरह अवश्यंभावी और स्वाभाविक।

डॉ. सिद्धनाथ कुमार ने ‘नाटक’ के शास्त्र-व्यवहार को समझने-समझाने में अपनी पूरी जिंदगी लगा दी, और इस संदर्भ की अनेक पुस्तकों से साहित्य जगत को समृद्ध किया। वे इतने सहज और सरल थे कि उनसे बातचीत करने के प्रस्ताव पर उनकी ओर से ‘नहीं’ का कोई प्रश्न ही नहीं था। उनके जीवनकाल के अंतिम दिनों एक शाम मैं उनके आवास पर पहुँच ही गया। देखा, अपने कंप्यूटर पर बैठे कुछ लिख रहे हैं। उस समय नाटक की भाषा पर कुछ लिख रहे थे। मैंने तत्काल प्रश्न किया, ‘सामने कोई लिखित सामग्री नहीं है, आप विचारों को सीधे टाइप कर लेते हैं?’ उनका उत्तर था, ‘आदत हो गई है। 1954 में जब मैं रेडियो में था, तभी से टाइपराइटर पर सीधे लिख रहा हूँ–नाटक, आलोचना, सब कुछ, केवल कविता को छोड़कर। स्क्रिप्ट-राइटिंग में इतना समय नहीं था कि रफ लिखूँ, फिर फेयर करूँ। सो, एक ही बार में फेयर लिखने की आदत हो गई। टाइपराइटर के अक्षर घिस गए, तो अब कंप्यूटर पर लिखने लगा हूँ।