हम इनसे मिले थे

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फिल्टर

डॉ. सिद्धनाथ कुमार ने ‘नाटक’ के शास्त्र-व्यवहार को समझने-समझाने में अपनी पूरी जिंदगी लगा दी, और इस संदर्भ की अनेक पुस्तकों से साहित्य जगत को समृद्ध किया। वे इतने सहज और सरल थे कि उनसे बातचीत करने के प्रस्ताव पर उनकी ओर से ‘नहीं’ का कोई प्रश्न ही नहीं था। उनके जीवनकाल के अंतिम दिनों एक शाम मैं उनके आवास पर पहुँच ही गया। देखा, अपने कंप्यूटर पर बैठे कुछ लिख रहे हैं। उस समय नाटक की भाषा पर कुछ लिख रहे थे। मैंने तत्काल प्रश्न किया, ‘सामने कोई लिखित सामग्री नहीं है, आप विचारों को सीधे टाइप कर लेते हैं?’ उनका उत्तर था, ‘आदत हो गई है। 1954 में जब मैं रेडियो में था, तभी से टाइपराइटर पर सीधे लिख रहा हूँ–नाटक, आलोचना, सब कुछ, केवल कविता को छोड़कर। स्क्रिप्ट-राइटिंग में इतना समय नहीं था कि रफ लिखूँ, फिर फेयर करूँ। सो, एक ही बार में फेयर लिखने की आदत हो गई। टाइपराइटर के अक्षर घिस गए, तो अब कंप्यूटर पर लिखने लगा हूँ।