सुरख़ाब के पर द्वारका प्रसाद 1 October, 1951 जाड़े के दिन थे और बेकारी की दुपहरी आने पर थी। घर में बैठे-बैठे तबीयत नहीं लग रही थी। इसी वक्त आ पड़े मेरे एक मित्र जिन्हें सुविधा के लिए मि. लाल कह लें। आते ही उन्होंने कहा, “शिकार में चलते हो?” और पढ़ें शेयर करे close https://nayidhara.in/katha-dhara/surakhaab-ke-par/ कॉपी करें
प्यार के भाव आनंदमोहन अवस्थी 1 October, 1951 “...जब बंबई जाऊँगा तो कोलाबा में प्यार के भाव पूछ और अपनी जेब देख प्यार खरीदूँगा।” और पढ़ें शेयर करे close https://nayidhara.in/katha-dhara/pyar-ke-bhav/ कॉपी करें
उलझी-कड़ियाँ कुमारी सुनीति दयाल 1 October, 1951 उसकी चमकती आँखों ने वृद्धा के चेहरे की एक-एक सिकुड़न पोछ डाली, वह उलझ गई विचारों की कड़ियों में और पढ़ें शेयर करे close https://nayidhara.in/katha-dhara/ulajhee-kadiyan/ कॉपी करें
कौन होइहैं गतिया उदय राज सिंह 1 September, 1951 “दूर हट, कुलक्षणी! आखिर तूने छू दिया न मेरी पूजा की आसनी। आचमनी का पानी भी नापाक हुआ और भोग की मिठाइयाँ भी।” और पढ़ें शेयर करे close https://nayidhara.in/katha-dhara/kaun-hoihain-gatiya/ कॉपी करें
शंकर विजय मदन वात्स्यायन 1 September, 1951 जिस ओर वह जाता था, लोगों की पद-धूलि का मेघाडंबर घिर आता था, मानव-कंठों का निनाद गूँज उठता था, तूफान-सा आ जाता था, पर इनके बीच उसका ज्योतिर्मय अंतर उसी तरह अविकृत रहता था और पढ़ें शेयर करे close https://nayidhara.in/katha-dhara/shankar-vijay/ कॉपी करें
घूँघट के पट खोल… उषा देवी मित्रा 1 September, 1951 उस दिन की ट्रेन-यात्रा में आराम से बेंचों पर बैठकर खुली खिड़की से प्राकृतिक दृश्यों का उपभोग करने का अवसर यात्रियों को नहीं मिल पाया था। भीड़, सो भी भयानक भीड़। और पढ़ें शेयर करे close https://nayidhara.in/katha-dhara/घूँघट-के-पट-खोल/ कॉपी करें