दलित आत्मकथाओं से डरे लोग

दलित आत्मकथाओं से डरे लोग

हिंदी साहित्य में जब से दलितों के दुख-दर्द सामने आए हैं, साहित्य को नई ऊर्जा मिली है। साथ ही मिले हैं वीरभारत तलवार और सुधीश पचैरी जैसे सहृदय आलोचक जिन्होंने अपने ढंग से दलितों की पीड़ा और विमर्श को सराहा है। इस प्रक्रिया में नामवर सिंह का मुखौटा भी गिरा है और इन्हीं के शिष्य पुरुषोत्तम अग्रवाल के किंवदंती और प्रक्षिप्त लेखन का तमाशा साहित्य जगत ने देखा है। दलितों ने अपनी आत्मकथाओं के माध्यम से अपने दुख-दर्द बताए हैं। ये दुख इतने गहरे हैं कि दलितों का अहसास ही मर गया था, उन्हें भान तक नहीं रहा कि कभी उन्हें मानव इतिहास के क्रूरतम कष्टों के बीच धकेल दिया गया था। जब दलितों ने बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर के दिए आरक्षण के बाद होश संभाला तो उन्हें अपने दुखों का थोड़ा अहसास हुआ। तब दुखों के इंतेहा को सामने लेकर आई श्यौराज सिंह बेचैन की आत्मकथा ‘मेरा बचपन मेरे कंधों पर’। इससे साहित्यिक जगत में सन्नाटा छा गया। साथ ही सुदामा की नकली कथा के विलुप्त होने की प्रक्रिया भी शुरू हो गई। स्वाभाविक है, इससे द्विजों की हालत खराब ही होनी थी। वे लामबंद हो गए और अपनी नकली और दिखावटी लड़ाइयों को एक तरफ रख दलितों के विरुद्ध षड्यंत्रों में लग गए। द्विजों ने हिंदी दलित साहित्य का विरोध करना शुरू कर दिया।

द्विजों के विरोध की बात का तो दलितों को पहले दिन से ही पता था, क्योंकि दुख-दर्द तो इन्हीं के ही दिए हैं। सामाजिक-व्यवस्था के यही नियामक हैं, लेकिन पिछड़े वर्गों की तरफ से भी विरोध आएगा, इस बारे में सोचा नहीं था।

अभी पिछले दिनों पिछड़े वर्ग से तथाकथित मीडियाकर्मी और सोशल साइट पर एक्टिव दिलीप सी. मंडल ने दलित आत्मकथाओं पर अपना सामंती रंग दिखा ही दिया। ज्योतिबा फुले और भीमराव अंबेडकर के पीछे छुपते हुए इन्होंने दलित आत्मकथाओं का विरोध किया। इन्होंने लिखा ‘दलित आत्मथाओं के नाम पर हिंदी साहित्य में जो सामग्री आ रही है, क्या उन्हें फुले-आंबेडकरी साहित्य के दायरे में माना जाना चाहिए? फुले-अंबेडकर के जीवन में कष्ट क्या कम रहे होंगे। लेकिन उनके लेखन में उनकी अपनी रुदाली कहाँ है? साथ ही दलित आत्मकथाएँ आमतौर पर ईमानदार भी नहीं हैं।’

अब इन्हीं से पूछने का मन करता है कि अगर फुले-अंबेडकर ने आत्मकथा नहीं लिखीं तो क्या इनके बालक भी ना लिखें? वैसे बाबा साहेब ने आत्मकथा लिखनी चाही थी, लेकिन समयाभाव और अन्य आवश्यक कामों के चलते वे इसे पूरी नहीं लिख पाए। दलित डॉ. बेचैन जी की आत्मकथा को बाबा साहेब की आत्मकथा मान कर ही पढ़ रहे हैं।

वैसे, क्या इन्हें या किसी को भी बताने की जरूरत है कि कमोवेश हर दलित की व्यथा एक सी ही है। अभी पिछले दिनों प्रखर आजीवक चिंतक डॉ. धर्मवीर की बेचैन जी की आत्मकथा पर लिखी समालोचना में उन्होंने बताया ही है कि बेचैन जी की आत्मकथा आजीवक धर्म के संस्थापक महान मक्खलि गोसाल के जीवन से एकाकार होकर चलती है। मंडल से अनुरोध है कि वे डॉ. धर्मवीर की इस ‘बालक श्यौराज : महाशिला खंडों का संग्राम’ अवश्य पढ़ें। यहाँ यह बताने में किसी को ऐतराज नहीं होना चाहिए कि पिछले 2500 सालों से दलित का जीवन ठहरे हुए पानी-सा बना दिया गया है। तभी तो गोसाल, रैदास, कबीर, फुले, अंबेडकर और श्यौराज तक का जीवन एक सा दिखाई देता है। मंडल से अपनी सोच का दायरा बढ़ाने का अनुरोध है।

वैसे डॉ. अंबेडकर अपनी आत्मकथा सामने नहीं ला पाए, लेकिन उन्होंने क्षत्रिय बुद्ध की कथा तो लिखी ही है। इधर हम दलित अपनी बताने में लगे हैं। अगली बात दलित आत्मकथाओं की ईमानदारी को लेकर है, जो इन्हें ईमानदार नहीं दिख रहीं। वैसे, ये ही बताएँ, अगर दलित आत्मकथाएँ ईमानदार नहीं हैं तो साहित्य की कौन सी विधा ईमानदार है? आत्मकथाओं में कुछ तो सच होता ही है, जबकि कथा, कहानियों और उपन्यासों में तो निखालिस झूठ ही झूठ होता है। आत्मकथाएँ मनोरंजन के लिए नहीं लिखी जातीं। ये अपने समय का प्रतिनिधित्व करतीं ऐतिहासिक दस्तावेजों की श्रेणी में होती हैं। असल में, दलित आत्मकथाएँ आने से प्रसादों-मुंशियों की लेखनी मात्रा मनोरंजन की लेखनी सिद्ध हुई है।

ऐसा लगता है, मंडल को दलित आत्मकथाओं में तो नहीं, लेकिन रमणिका गुप्ता की आत्मकथा में ईमानदारी दिख रही होगी? तब इसी तर्ज पर ये अपनी आत्मकथा लिख दें और अपना सच बता दें। हम तो उसे ही ईमानदार आत्मकथा मान लेंगे। यूँ लगता है, इनके साथ ‘चमार की बेटी रूपा’ वाली घटना घट गई है। अगर ऐसी बात है तो ये उसका ही खुलासा कर दें, कम से कम हीनता से तो मुक्ति मिलेगी। अगली बात इसमें यह भी पूछी जा सकती है कि इन्हें दलित आत्मकथा पढ़ने के लिए कह कौन रहा है। दरअसल, दलित आत्मकथाएँ द्विज समाज व्यवस्था और इसके पर्सनल कानूनों का कच्चा चिट्ठा प्रस्तुत करती हैं। मोटे तौर पर इसे ‘मनु स्मृति’ की व्यवस्था का कच्चा चिट्ठा भी कह सकते हैं। दलित आत्मकथाओं ने इसी स्मृति का सारा सच उघाड़ दिया है। डॉ. बेचैन की ‘मेरा बचपन मेरे कंधों पर’ में जहाँ इसके वर्ण भेद और इसकी अमानवीयता को सामने रख दिया गया है वहीं डॉ. धर्मवीर की ‘मेरी पत्नी और भेड़िया’ में इनके घरों की आंतरिक व्यवस्था का सच खुल कर आ गया है। यहाँ यह भी बताया जा सकता है कि कबीर साहेब ने भी इस सच को बताया था, मंडल जैसों ने ना तब समझने की जुर्रत समझी और आज तो ये कह ही रहे हैं कि इन्हें दलित आत्मकथाओं से प्रेरणा नहीं मिल रही। दलित आत्मकथाएँ संपूर्ण व्यवस्था परिवर्तन की मांग करती हैं। द्विज इनसे थर्रा रहे हैं। इनमें ब्राह्मण का चेहरा ब्राह्मण के रूप में सामने आ गया है। मंडल न जाने क्यों इनसे आक्रांत हो गए हैं? कहीं ऐसा तो नहीं कि इन्होंने अपना चेहरा किसी आत्मकथा में हू-ब-हू देख लिया है। इनका दलित आत्मकथाओं से डर समझ में आ रहा है। वैसे इन सच्ची आत्मकथाओं से डरने वाले ये अकेले नहीं हैं। इनसे पहले भी चोला बदल कर द्विजों की चाकरी कर रहे एक तथाकथित दलित लेखक भी साहित्य में मात्र डेढ़ दलित आत्मकथाएँ कह कर अपना डर छुपा चुके हैं। इन्हें अच्छे से पता है कि इनके दलित विरोध के षड्यंत्र कभी भी किसी दलित की आत्मकथा में आ सकते हैं।

अगली बात दलित आत्मकथाओं से सीखने को लेकर है, जो मंडल को प्रेरणास्पद नहीं लग रही है। इसमें पहली बात तो यह है कि ‘बाबा साहेब के संविधान की वजह से अपने जीवन में आए सकारात्मक बदलाव’ क्या है। अगर मंडल का इशारा आरक्षण की तरफ है तो किसी भी दलित बालक को द्विज व्यवस्था से जूझना ही पड़ता है। उन हालातों से जूझ कर नौकरी पाना ज्यादा प्रेरणास्पद है या नौकरी के बाद का जीवन? अब इन्हें थोड़ी बात महान आजीवक चिंतक डॉ. धर्मवीर की घर कथा ‘मेरी पत्नी और भेड़िया’ की भी बता दी जाए, जो इनकी असली जिज्ञासा है। द्विज व्यवस्था भारत की सबसे बड़ी सेवा आईएएस का घर तबाह कर सकता है तो आम आदमी पर क्या गुजरती होगी? डॉ. साहब ने अपने साथ गुजरी इस व्यथा और आफत का दिन और महीनेवार तथ्यात्मक ब्यौरा दिया है। वे बस किसी तरह से अपने प्राण बचा पाए हैं। अपनी घर कथा के माध्यम से डॉ. साहब दलितों को चेता रहे हैं कि वे जारकर्म से दूर रहें। घर सुरक्षित हैं तो सारी दुनिया आपकी मुट्ठी में है।

उधर, नामवर सिंह तो दलित आत्मकथाओं से इतने डर गए हैं कि वे इन्हें साहित्यिक कृति तक मानने को तैयार नहीं। हाँ, इन्होंने तुलसी राम की आत्मकथा के दूसरे भाग ‘मणिकर्णिका’ को साहित्यिक कृति मानते हुए कहा है ‘इसे आत्मकथा नहीं, बलिक साहित्यिक कृति कहना ज्यादा सही होगा। पुस्तक में प्रेम-प्रसंगों का जिस तरह से जिक्र हुआ है, उससे इसकी पुष्टि होती है।’ यानी कोई अपने प्रेम-प्रसंग बताए तो वह साहित्यिक कृति हुई और अगर कोई जारकर्म का खुलासा कर दे तो उसे साहित्य में मत आने दो, तभी तो इन्होंने डॉ. धर्मवीर की घर कथा ‘मेरी पत्नी और भेड़िया’ को भूसे का ढेर तक कह दिया था। तो यह है नामवर जी की साहित्यिक समझ और रणनीति? कोई इनसे पूछे, प्रेम-प्रसंगों से समाज की तस्वीर उभरती है या समाज में पसरे जारकर्म के खुलासे से? असल में, जिस द्विज जार परंपरा से यह भूसा आया है डॉ. धर्मवीर ने उसे उन्हीं के लिए सीमित कर दिया है। नामवर जी का डर और दर्द समझा जा सकता है। वे चाह कर भी ‘मेरी पत्नी और भेड़िया’ से प्रेरणा नहीं ले पा रहे, क्योंकि इससे इनका चरित्र के स्तर पर गुरुडम खत्म होता है।

अब पूछना यह है कि मंडल कैसी प्रेरणा पाना चाह रहे हैं। जारकर्म की वजह से ही सूरजपाल चौहान जी का घर भी तबाह हुआ है। उनकी आत्मकथाओं ‘तिरस्कृत’ और ‘संतप्त’ से ही ये कुछ सीख सकते हैं। उनके पास कार है, घर है, लेकिन इसके साथ ही एकांत जीवन है।

पता नहीं इन्होंने कैसे मान लिया कि दलित इसलिए लिख रहे हैं कि ‘जातिवादियों (द्विजों) का हृदय परिवर्तन हो जाएगा’? इन्होंने किस दलित आत्मकथा में पढ़ लिया कि दलित जातिवादियों के हृदय परिवर्तन के लिए लिख रहे हैं? वैसे अगर इन्होंने किसी आत्मकथा में ऐसा सूंघा भी है तो समझ जाइए ऐसा किसी दलित ने किन्हीं नामवर सिंह, राजेंद्र यादव और रमणिका गुप्ता के बहकावे में लिखा है। ऐसी लेखनी को दलित अच्छी तरह पहचानते हैं। दरअसल हुआ क्या है, दलित आत्मकथाओं में द्विज सामंती जार व्यवस्था के सच सामने आने के साथ-साथ पिछड़े वर्गों की जातियों के चेहरे भी सामने आने लगे हैं। लगता है, इसी बात से ये डर गए हैं। आज पिछड़े वर्ग की जातियों के लोग ही नव ब्राह्मण के रूप में सामने आए हैं। कल कोई दलित अगर अपनी आत्मकथा लिखेगा तो वह इन अत्याचारों की रिर्पोंटिंग तो देगा ही। दलित लेखक श्यौराज सिंह बेचैन की आत्मकथा में इनके चेहरों को सब देख ही चुके हैं। कमोवेश देश में जमीनों पर कब्जा जमाए बैठी कई पिछड़ी जातियाँ दलितों के साथ द्विज सामंती व्यवहार बरतती हैं। लगता है, मंडल इस सच के सामने आने से भयभीत हो गए हैं।

दलित आत्मकथाओं की एक विशेषता यह भी है कि इनके लेखक अपनी जातीय पहचान के साथ उपस्थित हैं। चमार या भंगी जाति को लेकर कहीं से भी किसी तरह की हीनता नहीं है। इसी जातीय बोध से अकेले मंडल ही नहीं डर रहे बल्कि मैनेजर पांडे और प्रेमपाल शर्मा जैसों की घिग्घी भी बंध गई है। द्विजों का डर तो समझ में आता था लेकिन पिछड़ों का डर भी इसमें जुड़ता जा रहा है।

दिलीप सी. मंडल पिछड़े वर्ग से आते हैं। ये न जाने किसके बहकावे और सीखाए में आकर दलित आत्मकथाओं का विरोध कर बैठे हैं? कल तक ये दलित आत्मकथाओं के प्रशंसक हुआ करते थे। अब कोई न कोई बात तो है जो ये दलित आत्मकथाओं की आलाचेना कर रहे हैं।


Image Courtesy: Dr. Anunaya Chaubey
© Anunaya Chaubey

द्वारा भी