द्विज जार परंपरा या नव मनुवादी सिद्धांत

द्विज जार परंपरा या नव मनुवादी सिद्धांत

अगस्त-सितंबर 2014 के ‘नई धारा’ अंक में कैलाश दहिया का लेख ‘द्विज-जार’ परंपरा का कच्चा चिट्ठा ‘अक्करमाशी’ लेख पढ़ने में आया। इस लेख में यह पूरी कोशिश की गई है कि किसी भी स्थिति में ‘अक्करमाशी’ दलित रचना नहीं है। प्रकारांतर से शरण कुमार लिंबाले भी दलित नहीं हैं–इसे भी सिद्ध किया जाए। अपने तर्कों से कोई कुछ भी साबित करने के लिए निकले, यह उसकी स्वतंत्रता है, ऐसा कहकर उसके पूरे विवेचन को नजरअंदाज किया जा सकता है, परंतु इस प्रकार के लेखों से जो संदेश पाठकों तक जाता है, उसे अलबत्ता प्रतिवाद से रोकना जरूरी हो जाता है। अगर ऐसा नहीं करेंगे तो गलत सिक्के के प्रचलन में आने का भय होता है–इसलिए यह लेखन! पूरे लेख में ‘मनुवादी’ स्वर की प्रबलता है। जैसे मनुवाद का यह आग्रह होता है कि प्रत्येक वर्ग तथा प्रत्येक जाति में जो लोग जी रहे हैं वे औरों के जीवन में न झाँके। किसी भी स्थिति में कोई भी वर्ण या जाति के परे जाकर न सोचे। प्रत्येक अपने-अपने परिवेश में जिएँ।

जन्मना प्रत्येक जाति को एक विशिष्ट परिवेश प्राप्त होता है। उस परिवेश से ही उसे पहचान प्राप्त होती है। उस परिवेश या परिवार से उसे जो भी सुख-दुःख, यातना, व्यथा प्राप्त होती है, उसे वह चुपचाप झेलें। यही उसकी नियति है, यही उसका कर्मफल है। कौन किस जाति के पुरुष से जन्मा है, महत्त्व उसका नहीं महत्त्व इसका है कि वह किस परिवेश, किस परिवार, किस बस्ती में जीता है, बड़ा होता है, संस्कारित होता है। किसी ब्राह्मण के वीर्य से उत्पन्न नवजात बालक को दलित बस्ती में किसी दलित परिवार में लाकर छोड़ दें, उसे वहीं जीने के लिए मजबूर करें–और जन्म से लेकर युवास्था तक वह वहीं रहें–उसकी माँ दलित हों तो और उसकी परवरिश उस दलित स्त्री के घर में हो जाए तो उसे दलित नहीं तो और क्या कहेंगे? ऐसी स्थिति में जाहिर है कि उसे माँ की ही जाति मिलेगी। अब प्रश्न है कि वह स्त्री किसी सवर्ण से क्यों गर्भवती हो गई? दहिया के अनुसार वह स्त्री दुःश्चरित्र है, वह स्वेच्छा से किसी सवर्ण को अपनाती है, उससे उत्पन्न संतति जार संतति है, ऐसी संतति को और ऐसी स्त्रियों को जीने का कोई हक नहीं। इनके कारण ही समाज में जार परंपरा की शुरुआत होती है। किसी जटिल समस्या का यह सरलीकरण है। इस देश की समाज-व्यवस्था की जटिलता को जो नहीं जानते, जो यहाँ की स्त्रियों की मजबूरी को समझ नहीं पाते और जो मनुष्य मात्र (चाहे वह स्त्री हो या पुरुष) की प्राकृतिक इच्छाओं की समझ नहीं रखते, वे ही ऐसे उलजुलूल तर्क देने लगते हैं। शरण की माँ किन स्थितियों में किसी सवर्ण के संपर्क में आई होगी इसकी कल्पना तक दहिया जी नहीं कर सकते। वे वर्तमान में बैठकर भूतकाल की स्थितियों का विवेचन कर रहे हैं। अब चूँकि डॉ. बाबा साहब के विचार गाँव-देहात के दलितों तक पहुँचे हैं, इसलिए अब विरोध, प्रतिकार वगैरह संभव है। परंतु आज से 50-60 वर्ष पूर्व किसी गाँव की दलित महिला द्वारा सवर्ण पुरुष का विरोध संभव ही नहीं था। उसके सामने दो ही मार्ग होते थे या तो खुद को खत्म कर ले अथवा सवर्ण की इच्छा को पूर्ण करें। दहिया शायद सुझाएँगे कि उसे मर जाना चाहिए। प्रत्येक मनुष्य में जीजीविषा होती है। मनुष्य क्या प्राणियों में भी होती है। मसाई का यह समझौता नहीं था, यह मजबूरी थी। इस घटना के कारण उसका गृहस्थी जीवन बर्बाद हो जाता है। अब खुद को जिलाए रखने के लिए उसके सामने दो ही मार्ग थे, या तो वेश्या बनना अथवा किसी की रखैल बनकर जीना। उसने दूसरा मार्ग पसंद किया। किसी एक से निष्ठा रहकर वह जी रही थी। इसी कारण तो वह किसी और के साथ संबंध रखने को तैयार नहीं होती।

दहिया जी लिखते हैं–‘हणमंता ने मसायी के दांपत्य जीवन को तोड़ दिया। दरअसल यह सफेद झूठ के सिवाय कुछ नहीं। कोई तीसरा व्यक्ति कैसे किसी के दांपत्य जीवन को तोड़ सकता है? जब कोई किसी को अपने जीवन में हस्तक्षेप का मौका देता है, तभी ऐसा होता है। अगर मसायी हणमंता के खिलाफ खड़ी हो जाती, तो उसकी क्या औकात थी जो वह मसायी को हाथ भी लगा पाता।’ (पृष्ठ 35) पहली बात कि मसायी दलित जाति की स्त्री है। आज से 50-60 वर्ष पूर्व भारत के एक छोटे-से देहात में वह जी रही है। क्या उस वक्त किसी दलित स्त्री या दलित पुरुष को किसी प्रतिष्ठित सवर्ण का विरोध या प्रतिकार करना संभव था? उस काल के व्यवस्था की यह नासमझी है। आज भी सुदूर गाँवों में दलित स्त्री या पुरुष अकेले सवर्णों के खिलाफ क्या खड़े हो सकते हैं? इस पूरे विवेचन में दहिया जी ने दलित स्त्री को कठघरे में खड़ा किया है न कि तत्कालीन समाज व्यवस्था को। व्यवस्था की क्रूरता को वे समझ नहीं पा रहे हैं। मध्यवर्गीय सफेदपोश शिक्षित दलितों का यह हास्यास्पद तर्क है कि उसने विरोध क्यों नहीं किया। दूसरी बात उसने विरोध नहीं किया इसे वे किस आधार पर कह रहे हैं? तब क्या घटित हुआ होगा इसे वे क्या जाने? वे लिखते हैं कि दलितों की गुलामी का कारण उनकी स्त्रियाँ हैं। (पृष्ठ 35) प्रकारांतर से वे ‘मनु’ की वर्ण और जाति व्यवस्था का समर्थन कर रहे हैं। प्रकारांतर से वे यह कह रहे हैं कि दलितों की गुलामी और पतन के लिए उनकी स्त्रियाँ कारणीभूत हैं–तत्कालीन विषय समाज व्यवस्था का इसमें कोई संबंध नहीं है। अपने पूरे विवेचन में दहिया शरण कुमार की माँ को ही दोषी ठहराते हैं। वे लिखते कि मसायी विवाहित होकर गैर मर्द से बच्चे पैदा कर रही है, जिन्हें दलितों में बर्दास्त नहीं किया जाता। केवल दलितों में ही नहीं, किसी भी समाज व्यवस्था में इसे बर्दास्त नहीं किया जाता। मसायी ऐसा क्यों कर रही थी? उसकी कौन-सी मजबूरियाँ थी?

एक बचकाना तर्क दहिया जी यह देते हैं कि ‘बेचारे शरण कुमार अपने जार बाप का सरनेम पाने के लिए जुझते हैं।’ (पृष्ठ 31) यह नई खोज उन्होंने किस आधार पर की, वे ही जाने। जब शरण जी की माँ स्कूल में अपने बेटे को दाखिला देने के लिए जाती है तब मास्टर साहब बाप का नाम पूछते हैं और मास्टर साहब वह जो नाम बताती हैं, उसे लिख देते हैं। इस वक्त शरण जी की आयु 6-7 वर्ष की है। 6-7 वर्ष के लड़के की समझ तो कितनी होती है? वे यह लिखते हैं कि शरण कुमार अपने नाम के साथ अपनी माँ का नाम लगा लेते तो उससे भी काम चल जाता। यहाँ दो प्रश्न उठते हैं–एक, क्या 6-7 वर्ष के लड़के की इतनी समझ होती है कि वह मास्टर साहब से कहें कि मेरे नाम के साथ मेरे माँ का नाम लगाइए। दूसरी बात, आज से 40-50 वर्ष पूर्व क्या कोई शिक्षक छात्र के नाम के साथ उसकी माँ का नाम लिखता? उस समय क्या वैसी व्यवस्था थी? यहाँ दहियाजी की नासमझी का एक और प्रमाण मिलेगा कि वे बार-बार लिख रहे हैं कि ‘लिंबाले ने अपने द्विज बाप के सरनेम के लिए आसमान सिर पर उठाए रखा, इधर ये जबरदस्ती अपनी जारकर्म की औलादों को दलित बनाने पर तुले हैं।’ (पृष्ठ 31) एक स्त्री अपने बेटे को पढ़ाना-लिखाना चाह रही है। दाखिले में बाप का नाम देना जरूरी है और जो हकीकत है उसी का बयान वह कर रही है। और दहिया जी उसकी ईमानदारी को कठघरे में खड़े कर रहे हैं। वे लिखते हैं ‘दलितों में ऐसा कोई बच्चा होता ही नहीं जिसके माँ-पिता ना हो।’ (पृष्ठ 31) ये भी अत्यंत लचर तर्क है वह इसलिए कि प्रत्येक बच्चे के माँ-पिता तो होते ही हैं। यहाँ उनका संकेत शायद जारकर्म से है। एक ओर वे दलित स्त्रियों में जारकर्म होता है (पृष्ठ 35) ऐसा लिख रहे हैं, दूसरी ओर वे यह भी स्थापना दे रहे हैं कि दलितों में ऐसे बच्चे होते ही नहीं। मानो दहिया जी देशभर की दलित बस्तियों में जीनेवाले सभी बच्चों के डीएनए टेस्ट ले चुके हों। फिर लिखते हैं कि द्विजों की देखा-देखी दलित भी बिगड़ गए। एक संवेदनशील बेटा अपनी माँ की मजबूरी को, उसकी असहायता को पूरी गहराई से समझ कर उसकी व्यथा को दुनिया के सामने रख रहा है। परंतु दहिया को यह सब स्वीकार नहीं है। उनका कहना है कि शरण को अपनी माँ के खिलाफ लड़ना चाहिए था। माँ और बेटे के पवित्र संबंध सभी कर्मों के परे होते हैं–इसे दाहिया को कैसे समझाएँ? वे शरण की माँ को माँ की दृष्टि से नहीं देख पा रहे हैं। वे उसे जारकर्म में लिपटी एक घृणित स्त्री के रूप में देख रहे हैं। केवल स्त्री के रूप में नहीं, भोग की एक वस्तु के रूप में। वे लिखते हैं कि मसायी और हणमंता लिंबाले का विवाह किया जाए। ये प्रेमी-प्रेमिका बालक शरण कुमार का भरण-पोषण करें और विट्ठल कांबले को हणमंता की बीवी मिलनी चाहिए। सारा झगड़ा खत्म! (पृष्ठ 33) क्या तर्क है! आज 21वीं शती में भी जहाँ दलित-सवर्ण विवाह संभव नहीं वहाँ आज से 50-60 वर्ष पूर्व क्या यह संभव था? सवर्ण की पत्नी दलित को और गैर दलित की पत्नी सवर्ण को सौंपी जाए, मानो स्त्री मनुष्य न होकर कोई वस्तु हो। जटिल समस्याओं को इस प्रकार से सुलझा देने वाली व्यवस्था क्या यहाँ मौजूद है?

किस आधार पर दहिया जी यह कह रहे हैं कि ‘लिंबाले खुद को लिंगायत मानकर चले हैं?’ लिंबाले तो डंके की चोट पर खुद को दलित कहते हैं। वे दलितों की जिन यातनाओं, व्यथाओं को भोग चुके हैं उसके रत्ती भर भी दहिया जी ने भोगा नहीं होगा। शरण जी दलितों को नीचा दिखाने में पलभर भी देर नहीं करते ऐसा भी वे लिखते हैं और प्रमाण रूप में ‘अक्करमाशी’ में लिखी एक कहानी का उल्लेख करते हैं। कहानियों में तो जाति का उल्लेख होता ही है। विशेषतया दंत कथाओं में। दहिया जी की कोशिश है कि शरण को सवर्ण साबित करें तथा उनमें और दलितों में वैर उत्पन्न करें। भले ही यह उनका और उनके विचारक गुरु का षड्यंत्र हो पर यह होगा नहीं क्योंकि मराठी पाठक शरण को और दहिया तथा उनके गुरु को ठीक से पहचानते हैं।

दहिया जी के अनुसार लेखक ने जार परंपरा में उलझकर एक बड़ी लड़ाई को तुच्छ बना दिया है? कौन-सी बड़ी लड़ाई? उनका उत्तर है कि शरण अपनी माँ के जारकर्म के खिलाफ लड़ते तो आज वे महानायकों की श्रेणी में होते। (पृष्ठ 32) प्रश्न है कि यह जारकर्म के खिलाफ लड़ाई से क्या तात्पर्य है? प्रत्येक बालक/बालिका के लिए उसकी माँ केवल उसकी माँ होती है। माँ के अलावा और कुछ नहीं। फिर शरण की इस वक्त की आयु क्या है? माँ जारकर्म में उलझी है। इसका एहसास तो उसे आयु के 17-18 वर्ष बाद होता है। माँ के जारकर्म से लड़ने का तात्पर्य क्या है? क्या वह उसका खून कर दें या उससे रिश्ता तोड़ दें? मुश्किल यह है कि दहिया या उनके गुरु स्त्री को न माँ के रूप में समझ पा रहे हैं और न एक मनुष्य के रूप में। उनकी दृष्टि में जारकर्म में उलझी स्त्री तो वासना का एक पुतला है। उससे रिश्ता ही तोड़ देना चाहिए। क्या कोई स्त्री 24 घंटों और जिन्दगी भर केवल भोग लेने या देने का ही काम करती है? उसके भीतर क्या वात्सल्य, ममता, प्यार वगैरह नहीं होता? अपनी संतति के प्रति चाहे वे जैसे भी हुए हो क्या उसके सपने नहीं होते? उससे जन्मी संतति को क्या उससे दुश्मनी ही मौल लेनी चाहिए? दहिया जी जैसे विकृत मस्तिष्क के लोग स्त्री को मनुष्य के रूप में देख नहीं पा रहे हैं। व्यवस्था की शिकार, पूर्ण रूप से मजबूर, जिन्दगी की लड़ाई में हारी हुई स्त्री का पक्ष लेना दहिया की दृष्टि में गलत है। औरों की दृष्टि से मसायी जारिणी रही होगी, शरण के लिए वह उसकी माँ है, किसी भी माँ की तरह पवित्र, ममतामयी, इस मातृत्व की समझ का जहाँ अभाव होता है, वहाँ ऐसे-ऐसे उलजलूल तर्क दिए जाते हैं।

डॉ. बाबासाहब अंबेडकर का स्वप्न था कि इस देश का मनुष्य जाति और धर्म के परे जाकर केवल मनुष्य के रूप में जीए। शरण केवल मनुष्य के रूप में जी रहे हैं। इसी कारण वे खुद की पहचान की लड़ाई लड़ते हैं। वे यह नहीं लिखते कि मैं लिंगायत हूँ या मुसलमान या सवर्ण या दलित। वे पूछते हैं कि आखिर मैं हूँ कौन? ये सारे संस्कार जाने-अनजाने मुझ पर हुए परंतु आखिर मैं हूँ कौन? क्या ऐसा प्रश्न पूछना अपराध है। एक स्थान पर दहिया लिखते हैं कि ‘यह भी नहीं कहा जा सकता कि शरण कुमार की लड़ाई बलात्कार और वेश्यावृत्ति के विरोध में है।’ मैं उनसे प्रश्न पूछता हूँ कि पूरी ‘अक्करमाशी’ मैं क्या उन्होंने वेश्यावृत्ति या बलात्कार का समर्थन किया है। ऐसा एक वाक्य तो वे बताएँ? फिर किस बलबूते पर वे ऐसा निष्कर्ष निकाल रहे हैं? ‘अक्करमाशी’ पढ़ने के बाद दुनिया का कोई भी पाठक इतना गैर जिम्मेदार वाक्य न करेगा या लिखेगा। पूरी आत्मकथा में बलात्कार या वेश्यावृत्ति के खिलाफ विलक्षण चीढ़ और प्रचंड संताप ही व्यक्त हुआ है। दहिया जी की समझ की यह सीमा है।

इस प्रकार के स्त्री-पुरुष संबंधों से जन्मे बालक/बालिका का अपराध क्या है? जारिणी की संतान को स्त्री का पति नहीं पाले, जिससे उसका संबंध आया है वह भी नहीं पाले तो फिर क्या उन्हें जन्मत: मार देना चाहिए? यही तो दहिया सुझा रहे हैं। एक बार मजबूरी से अथवा प्रकृति के दबाव से अगर किसी स्त्री का किसी पुरुष से संबंध आ जाए तो उस स्त्री को जीने का हक ही नहीं है–ऐसी स्थापना दहिया जी दे रहे हैं।

विश्वभर के स्थापित यथार्थ को दहिया नकार रहे हैं। सुंदर स्त्री अगर गरीबी हो, असहाय हो, मजबूर हो तो उसका फायदा पुरुष वर्ग उठाता ही है। यह दुनिया भर का सच है। दहिया जी का कहना है कि उस स्त्री को विरोध करना चाहिए। उसके खिलाफ खड़ा हो जाना चाहिए। क्या किसी असहाय स्त्री के लिए यह संभव है और भारतीय व्यवस्था में क्या यह संभव है? क्या जारकर्म में स्त्री की पूर्ण सहमति होती है? अगर ऐसा होता तो दुनिया के किसी भी भूभाग पर स्त्री पर न बलात्कार होते न वह जारकर्म में आती। इस देश की जाति व्यवस्था को, दलितों की विशेषत: ग्रामीण विभागों में जी रही सुंदर दलित स्त्री की असहायता को समझ लेने की इच्छा ही दहिया जैसे व्यक्तियों में नहीं है, वे बार-बार तलाक की बात कर रहे हैं। तलाक देने से स्त्री पर होने वाले अत्याचारों में क्या कमी होगी।

मैं अभी भी समझ नहीं पा रहा हूँ कि ‘अक्करमाशी’ कैसे एक द्विज की या सवर्ण की आत्मकथा ठहरती है। बचपन से लेकर मैट्रिक होने तक शरण जिस परिवेश में पला, दलित के रूप में किस तरह वह दुत्कारा गया, पूरा गाँव उसे दलित कह रहा था, उसका परिवेश, उसकी माँ, उसके रिश्तेदार सभी दलित हैं। वह जो भोग रहा था, जिन यातनाओं से गुजर रहा था, वह सब तो दलित होने के कारण ही। इतना होते हुए भी यह आत्मकथा द्विज आत्मकथा कैसे हो सकती है? केवल उसका जन्म किसी सवर्ण के शुक्राणुओं से हुआ था, इसलिए। तब तो अनेक सवर्णों को भी दलित घोषित करना पड़ेगा। फिर किस व्यक्ति के शरीर में किस जाति के शुक्राणु हैं इसको साबित भी किया जाए तो व्यथा-वेदना में क्या फर्क पड़ता है? क्या उससे परिवेश बदलता है। बिना किसी कारण दहिया जी लक्ष्मण गायकवाड की आत्मकथा ‘उचल्या’ को भी दलित साहित्य के अंतर्गत स्वीकार नहीं करते। ‘अक्करमाशी’ के इस विवेचना में ‘उचल्या’ का क्या औचित्य है? दलित साहित्य की अंतत: परिभाषा क्या है? दहिया जी के अनुसार जो जनम से दलित है–जिसमें दलित पुरुष के ही शुक्राणु हैं–उसके द्वारा लिखा गया साहित्य ही दलित है। भले ही वह दलितों की बस्ती में पला, बढ़ा न हो। भले ही उसने सवर्गों से व्यथाएँ भोगी न हो। उसके साहित्य में रंडी, रखैल आदि का चित्रण न हो। उनके इस मानदंड पर तो नामदेव ढसाल की कविताएँ भी खरी नहीं उतरती। हिंदी दलित साहित्य की कई रचनाओं को भी इस निकष के कारण नकारना पड़ेगा। चाहे, उचच्का जाति के कारण जिसने जो भी यातना भोगी हो–वह भी उन्हें मान्य नहीं। उनका एक ही निकष है कि तुम्हारा जन्म किससे हुआ है?

इस पूरे विवेचन द्वारा दहिया जी मनुवाद की प्रतिष्ठा पूरे जोर-शोर से कर रहे हैं। वे डॉ. अंबेडकर को भी नकार रहे हैं। उन्होंने यह लिखा है कि बजरंग बिहारी तिवारी या रणसुभे दलित साहित्य में घुसपैठ कर रहे हैं। दलित साहित्य पर सिवा दलितों के किसी को भी बात करने का अधिकार वे देना नहीं चाहते। यह तर्क वैसा ही है जैसा मनु ने वेद या संस्कृत को पढ़ने का अधिकार दलितों से छिन लिया था। मुझे या बजरंग बिहारी तिवारी को घुसपैठिए कहकर उन्होंने अंबेडकर जी की विचारधारा पर भी प्रश्नचिह्न लगा दिया है। अंबेडकर जाति अंत की बात कह रहे थे। जाति के परे जाकर समता, बंधुता, स्वतंत्रता के मूल्यों को वे सर्वोपरि स्थान दे रहे थे। समता, बंधुता, स्वतंत्रता के मूल्यों को आत्मसात कर वैसा आचरण करने का अर्थ ही है ‘डी-कास्ट’ हो जाना। जाति के परे जाकर मनुष्यता के स्तर पर जीना। ऐसे जीनेवालों की प्रतिबद्धता दलित, पीड़ित, शोषित, श्रमिक वर्ग से होती है। ऐसे व्यक्तियों की संख्या धीमी गति से क्यों न हो इस देश में बढ़ रही है। ऐसे लोग जब अपनी प्रतिबद्धता से दलित साहित्य और दलित पीड़ित वर्ग से जुड़ने लगते हैं तो दहिया जी इसे सह नहीं पाते। उन्हें वे घुसपैठिए कहकर अपमानित करने लगते हैं। इसकी शुरुआत उनके अनुसार डॉ. अंबेडकर ने ही की है। प्रकारांतर से दहिया जी अंतरजातीय विवाह का भी विरोध करते हैं, डी-कास्ट होने की प्रक्रिया को नकारते हैं, मनुष्य स्तर पर जीने की वृत्ति को भी वे नकारते हैं। दूसरे शब्दों में वे मनु की व्यवस्था का जबरदस्त समर्थन करते हैं कि प्रत्येक को अपनी जाति की चोखट में ही जीना चाहिए। दूसरी जातियों की व्यथा-कथा में उन्हें घुसपैठ नहीं करनी चाहिए। यह पुराने मनुवाद का नया संस्करण नहीं तो और क्या है?

लिंबाले जी धर्म और ईश्वर के विरोध में बोलते हैं। क्योंकि वर्ण व्यवस्था का संबंध इस देश के धर्म के साथ है, ईश्वर के साथ है। दहिया जी को उनका इस दोनों के विरोध में बोलना ठीक नहीं लगता। यही तो मनुवादी स्वर है। दहिया जी और उनके चिंतक गुरु कहते हैं कि दलित और ब्राह्मण में सीधी लड़ाई है। इस देश के प्रश्नों को वे लड़ाई द्वारा सुलझाना चाहते हैं। मनु भी तो यही कह रहे थे कि दलित ब्राह्मण के शत्रु हैं। अब दहिया जी कह रहे हैं कि ब्राह्मण दलित के शत्रु है। दोनों में अंतर कहाँ है? डॉ. अंबेडकर बार-बार लिख रहे थे कि मेरी लड़ाई ब्राह्मणों के साथ नहीं अपितु ब्राह्मण्य (श्रेष्ठत्व की ग्रंथी से, दूसरी जाति को अपमानित करने की मानसिकता) से है। यह ब्राह्मण्य फिर किसी में भी क्यों न हो। दहिया जी तो ब्राह्मण को शत्रु ही मानते हैं। वे कहते हैं कि दलित परंपरा का बौद्ध धर्म से कोई लेना-देना नहीं है। अंबेडकर दलितों को बौद्ध परंपरा से जोड़ते हैं। दहिया जी बुद्ध के वर्ण को, उनकी जाति को भूलना नहीं चाहते, वे बजरंग बिहारी तिवारी या मेरी जाति को भूलना नहीं चाहते। वे जाति के परे जाकर मनुष्यता के तौर पर सोच ही नहीं पाते। वे लिखते हैं कि जो बौद्ध हो गए हैं उनका दलित साहित्य से कुछ लेना-देना नहीं है। बौद्ध दलित विषयों पर बोलना बंद करें। मतलब वे व्यक्ति की अभिव्यक्ति स्वतंत्रता को भी स्वीकरना नहीं चाहते। यही तो मनु का भी कहना था। यह मनुवादी तानाशाही है। डॉ. बाबासाहब अंबेडकर तथा बौद्ध धर्म को जो नकार रहे हैं, उन्हें यहीं से सलाम! दलित साहित्य के प्रेरणास्रोत डॉ. अंबेडकर हैं। आज दहिया जैसे लोग जो लिख-पढ़ पा रहे हैं वह भी अंबेडकर की कृपा के कारण। असलीयत यह है कि ‘अक्करमाशी’ दलित साहित्य की एक अभिजात्य Classical रचना है। न केवल भारतीय साहित्य इतिहास में अपितु विश्व साहित्य इतिहास में वह अपना स्थान बना रही है। विश्व स्तर पर उसे स्वीकृति मिल रही है। इसे सह पाना दहिया जैसे लोगों के लिए दिक्कत का हो रहा है। ऐसे में एक ही रास्ता है कि उलजुलूल तर्क देकर ‘अक्करमाशी’ को नकारना। ‘उचल्या’ पर प्रश्नचिह्न लगाना? जो डी-कास्ट होकर पूरी निष्ठा के साथ दलित लड़ाई में शामिल हो रहे हैं, उन्हें घुसपैठिया कहकर उपेक्षा करना। यह वास्तव में एक मनुवादी षड्यंत्र है। क्योंकि ‘अक्करमाशी’ के प्रकाशन के बाद इस क्रूर व्यवस्था के प्रति लोगों ने संताप व्यक्त करना शुरू किया। विशुद्ध मानवता का स्वर अब बढ़ते जाएगा इस भय से दहिया जैसे आधुनिक मनुवादी घबरा गए हैं और इसी घबराहट से वे ऐसी प्रतिक्रियाएँ देने लगे हैं। डॉ. अंबेडकर को, उनके बौद्ध धर्म को नकारनेवालों को मनुवादी नहीं तो और क्या कहेंगे?

अंत: में एक महत्त्वपूर्ण निवेदन! दलित साहित्य, दलित आंदोलन, दलित चेतना, दलित संवेदना का उत्स डॉ. बाबासाहब अंबेडकर के विचार और उनके दर्शन में है। दलित साहित्य का लक्ष्य भी डॉ. बाबासाहब के त्रिसूत्री को समता, बंधुता और स्वतंत्रता प्राप्त करना है। वे इस देश में स्थित जाति वंश को समाप्त करने का लक्ष्य रखते थे। इसके लिए उन्होंने अंतरजातीय विवाह का मार्ग बतलाया और बुद्ध धर्म का दर्शन दिया। जो लोग डॉ. बाबासाहब के अंतरजातीय विवाह को, बौद्ध दर्शन को, जाति अंत को, डी-कास्ट होने की प्रक्रिया को नकाराते हैं, वे बाकी कुछ भी हो सकते हैं, अंबेडकर के विचारों पर चलनेवाले हो नहीं सकते। वे ही लोग शरण कुमार को जार संतति कहकर अपमानित करते हैं, डी-कास्ट हुए लोगों को घुसपैठिए कहते हैं। मनु महाराज भी उस काल में यही कर रहे थे।


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