शोषितों की आवाज सिद्धलिंगय्या

शोषितों की आवाज सिद्धलिंगय्या

कर्नाटक के दलित साहित्य के प्रमुख हस्ताक्षर कवि, नाटककार, निबंधकार डॉ. सिद्धलिंगय्या  का  2021 में कोराना से देहांत हुआ। कन्नड़ लेखक टीजी प्रभाशंकर प्रेमी जी ने इस लेख द्वारा उनके जीवन-चरित्र  और उनसे अपनी मुलाक़ात का जीवंत वर्णन किया है। 

कर्नाटक के दलित साहित्य के प्रमुख हस्ताक्षर कवि, नाटककार, निबंधकार ही नहीं, डॉ. सिद्धलिंगय्या कर्नाटक विधान परिषद के सदस्य, कन्नड़ प्राधिकार और कन्नड़ पुस्तक प्राधिकार के अध्यक्ष होते हुए भी स्वभाव से कोमल, मृदुभाषी, चिंतनशील व्यक्तित्व के धनी थे। आप केवल अंबेडर के अनुयायी ही नहीं, बुद्ध धर्म में दीक्षित भी थे। कोराना से हाल ही में उनका देहांत हुआ और अंतिम संस्कार बौद्ध संप्रदाय के अनुसार किया गया। मेरा सिद्धलिंगय्या जी से परिचय उनके विद्यार्थी काल से हैं। जब मैंने बैंगलोर विश्वविद्यालय में 1978 में अध्यापक के रूप में पदार्पण किया, तभी वे एम.ए. कन्नड़ में स्वर्णपदक जीतकर शोधकार्य में लगे थे। सिद्धलिंगय्याजी राष्ट्रकवि डॉ. जी.एस. शिवरुद्रप्पांजी के मार्गदर्शन में ‘ग्रामदेवता’ पर शोध कर रहे थे। उनकी कविताएँ प्रारंभ से ही दलित समुदाय को जागृत करने का और उनकी संवेदना को स्वर देने का कार्य करती थीं।

मेरा सिद्धलिंगय्या जी की कविताओं का समय लगभग बराबर रहा। साहित्य अकादमी की ओर अन्य पत्रिकाओं के लिए अनुवाद करता रहा। उनसे अंतिम भेंट बसव समिति में हाल ही में हुई जब वे ‘बसवेश्वर’ पर व्याख्यान देने आये थे। बसवेश्वर को दलित संदर्भ में बहुत मानते थे। उस दिन उन्होंने जो वक्तव्य दिया बसवेश्वर पर, वह अविस्मरणीय है। उनका कथन था, ‘बसवेश्वरा ने 12वीं सदी में तिरस्कृत समुदाय को पुरस्कृत किया। मैं उस समाज का प्रतिनिधि हूँ। उन्होंने हमें गले लगाया और हमें जागृत किया था। हममें स्वाभिमान भरा था। बसव तत्व विश्व के लिए प्रासंगिक है। वह विश्व में चर्चा का विषय बन गया है। बसवेश्वर आज यदि है तो, आम आदमी के घर में श्रमजीवियों के हृदय में और अंतिम आदमी के साँस में साँस के रूप में हैं। ‘सिद्धलिंगय्या की दृष्टि में सबसे पहले विप्लव का स्वर 12वीं शती के वचनकारों में फूटा, उसकी अगली कड़ी ही आज यह विप्लव साहित्य है।’

सिद्धलिंगय्या जी का जन्म 3, फरवरी 1954 को रामनगर जिला मागड़ी, तालूक मंचनवेले गाँव में हुआ था। उनके पिता थे देवय्या और माता वेंकम्मा। सिद्धलिंगय्या जी अध्यापन के साथ-साथ कविता भी रचते रहे और दलित आंदोलन में सक्रिय रहकर समुदाय को दिशा-निर्देशन भी देते थे। उनकी कविता का प्रारंभिक स्वर आक्रोश भरा था। यह दलितों को जगाने का स्वर था। उनकी पहली रचना ‘होलेमादिगर हाडु’ (अस्पृश्यों के गीत) 1975 में प्रकाशित हुई। तब वे 21 वर्ष के युवक और एम.ए. के छात्र थे। उसमें व्यक्त असहायक दलितों का वर्णन सुनिए–‘भूख से लड़ने वाले, पत्थर ढोनेवाले/पिटे जानेवाले, पिटते पिटते गिर पड़नेवाले/मेरे लोग।’ शोषकों के प्रति कवि के आक्रोश का स्वर–‘मरो, मारो लात/चमड़ निकालो इन लोगों का/कहते भगवान एक ही/मगर बनवाये हैं मंदिर/गली गली में, उसके बाद निकली ‘साविरारु नदिगहु’ (हजारों नदियाँ) 1979 में। देखिए दलित लोग कैसे चलायमान पर्वत-से आए–‘क्रांति के झंझावात में हाथ उठाते-हिलाते मेरे लोग/छड़ी से पीटनेवाले लोगों की गर्दन जा धर दबोची/पुलिस की लाठियाँ छूरियाँ एजेंटों की/वेद-शास्त्र-पुराण, बंदूकों के तहखाने/सूखे पत्ते-से कूड़-करकट-से लहराते हुए बहे/संग्राम के सागर की तरफ/सहस्त्रों सहस्त्रों नदियाँ’

‘हजारों नदियाँ’ के बाद ‘कप्पु काडिन हाडु’ (काले जंगम के गीत), ‘मेरवचणिगे’ (जुलूस) आदि निकले। सिद्धलिंगय्या जी ने नाटक भी लिखे हैं। ‘पंचम’, ‘नेलसम’ (मिट्टी में मिलाना), ‘एकलव्य’ उनके लेखन भी काफी चर्चित हैं। विधान परिषद में जब सदस्य थे उस अनुभव को ‘सदनदल्लि सिलिंगय्या’ शीर्षक से (दो भागों में) प्रकाशित है। सिद्धलिंगय्या सिर्फ कवि और लेखक ही नहीं, अच्छे वक्ता भी हैं। वे मिलनसार और मृदुभाषी थे।

डॉ. सिद्धलिंगय्या जी के व्यक्तित्व के बारे में कन्नड़ के ख्यात साहित्यकार बरगूर रामचंद्रप्पा लिखते हैं–‘प्रखर चिंतन, विडंबना प्रज्ञा के विशिष्ट व्यक्तित्व के कवि सिद्धलिंगय्या के गीत, आंदोलन के साथ विकसित हुए। दलित संगठन के लिए शक्ति के रूप में थे।’ प्रसिद्ध कन्नड़ गीतकार डॉ. दोड्डरंगेगोडजी सिद्धलिंगय्या के कवि व्यक्तित्व को इस प्रकार अभिव्यक्ति देते हैं–‘सिद्धलिंगय्या का काव्य वैचारिक औषध द्वारा सामाजिक रोग के लिए दवा देनेवाला है। वे कन्नड़ के अंबेडकर थे। उनमें कवि का मुक्त मन, हृदय वैशाल्य, स्वाभिमान, विवेकशीलता और सृजनात्मकता से युक्त निर्भय व्यक्तित्व था।’ प्रो. रहमत तरीकेरे लिखते हैं, ‘मैंने सबसे पहले सिद्धलिंगय्या को विश्व कन्नड़ सम्मेलन में अपनी ‘मेरे लोग’ कविता वाचन करते देखा था। उस कविता ने मुझ में विद्युत संचार किया। मैं भावुक हुआ। मेरी आँखें तर गयीं। उसके बाद उनकी ‘हजारों नदियाँ’ संकलन पढ़ने को मिला। उनकी कविता सरल शब्दों में, ध्वनिपूर्ण रूपकों में है। तीव्रतर राजकीय प्रज्ञा को पार लगाते कविता रचने का प्रतिभा कौशल उनको हस्तगत था।’

सिद्धिलिगय्या पुस्तक प्रेमी थे। उनका घर ही ग्रंथालय था। उनके भाषण सरल और हास्य शैली में होते थे। उनकी गद्य रचनाओं में प्रसिद्ध है ‘ऊरु-केरी’ (गाँव-बस्ती)। इसका अँग्रेजी रूपांतर एस.आर. रामकृष्ण ने किया है और साहित्य अकादमी दिल्ली से प्रकाशित है। ‘ऊरुकेरी’ सिद्धलिंगय्या जी रचित दलित आत्मकथा है। अँग्रेजी में शीर्षक ‘ऊरुकेरी’ ही रखा है और बताया है कि इसका साधारण अर्थ गाँव-बस्ती है, पड़ोस भी होता है। इसमें लेखक ने दलितों के दुःख-दर्द से ज्यादा उनके सुख के क्षण, सफलता के क्षण को महत्त्व दिया है। दलित-शक्ति को भी दिखाने का प्रयास किया है। आलोचक डॉ. डी.आर. नागराज कहते हैं कि इसमें गरीब के हँसने की शक्ति पर बल दिया है।

डॉ. सिद्धलिंगय्या जी के निधन पर उनका स्मरण करते प्रो. पुरुषोत्तम बिलिमले, पूर्व प्रोफेसर जे.एन.यू. दिल्ली लिखते हैं–‘सिद्धलिंगय्या की कविता की पंक्तियाँ जो अँग्रेजी में भी अनूदित होकर जे.एन.यू. कैंटीन में विराजित है और जिसे सहस्त्रों छात्र पढ़ते रहते हैं–सिद्धलिंगय्या की याद दिलाती है।’ पंक्तियाँ हैं–मूल कन्नड़ में :–‘निन्ने दिन नन्न जन बेट्टदंते बंदरु/कप्पुमुख बेळ्ळिगडु उरियुत्तिरुव कण्णुगळु/हगलु रात्रिगळनु सीळि निद्दरु’। हिंदी में :–‘कल के दिन मेरे लोग आए चलायमान पर्वत-से/काला चेहरा, चाँदी की दाडी, जलती हुई आँखें/दिन-रात को चीर, नींद को मारी लात।’


Image: Mauritius Lime
Artist: Anunaya Chaubey
© Anunaya Chaubey