भारतीय समाज के जाति-रंग

भारतीय समाज के जाति-रंग

श्रीराम की जय इसलिए कि श्रीराम नहीं होते तो हम नहीं होते। उनके समय पर किए गए हस्तक्षेप ने हमें बाल-बंधकी के पहले जाल से निकाला था। पहला इसलिए बाल बंधकों को मुक्त कराते हैं, वे चाहे नॉवेल प्राइज पाने वाले हों या अन्य ख्याति पा लेने वाले वे बच्चों के भोजन और तालीम का कोई विकल्प नहीं दे पाते और सरकारी स्तरों पर बालसंरक्षण होता नहीं। अत: वे आजाद देश के अघोषित सामाजिक गुलाम बनते हैं। ‘श्रीराम’ की कोशिश का भी वह प्राथमिक कदम था, जिससे मेरा और बहन माया का वजूद बचा। वरना आज हमारा अस्तित्व ही नहीं होता।

तो चलें प्रसंग को अग्रसारित करते हैं, बात करते हैं कि कौन हैं श्रीराम और ऐसा क्या था उनका काम और क्यों आ गया जुबाँ पर उनका नाम?

हुआ यह कि कल सबेरे-सबेरे छोटे भाई रमेश का फोन आया कि ‘पाली वाले श्रीराम फूफा नहीं रहे।’ सुन कर झटका लगा। इस कारण भी कि ‘हम अभी अट्ठाइस नवबंर को तो उनसे मिल कर आए थे। अचानक ऐसा क्या हुआ कि चल बसे?’ मैंने भाई से सवाल किया था। तो उसने बताया ‘बूँदा-बाँदी हो रही थी और उन्हें पेशाब करने के लिए जाना था। चूँकि स्वच्छ भारत स्कीम के तहत भी उनके यहाँ शौचालय नहीं बना था। इस कारण खुले में ही जाना था।’

‘क्यों नहीं बना?’ मैंने सवाल किया था तो वह बोला–‘अरे भाई साहब कौन सी स्कीम पहुँचती है चमार-चूहड़ों के घरों तक, जो सरकार की पहुँचेगी? सत्तर साल हो गए आजादी के खुशहाली के आश्वासन मिले और बदहाली के हालात। अब तो भरोसो ही उठि गओ कै कबऊ हमऊ आजाद होंगे।’ उसने श्रीराम के साथ अपने हालात जोड़ कर बात की। ‘राजीव गाँधी के राज में सौ में पंद्रह पैसा पहुँचे तो थे, अब तो पाँच पैसे हू नांय पहुँच रहे।’

‘गे बात कहो तो लात-घूँसा जरूर पहुँच जाँगे–तू कहानी छोड़ फूफा के बारे में आगे बता।’ मैं उसे मुद्दे पर लेकर आया। तब उसने बताया ‘फूफा रात में उठे पेशाब कन्नकूँ मेघ तें भीगन तें बचन कूँ अँगोछा तें मूड़ (सिर) ढाँकि कें चार-पाँच डग चले नाली की ओर कूँ, रात्ते पै रपटन (फिसलन) है गई हती पाँव रपटि (फिसल) गओ और गिर पड़े। तब घर में सब सोइरए थे। काऊ कूँ कछु पतो नाहीं चलो। गिरे तो मूढ़ (सिर) में चोट लग गई और फिर उठ न सके। दिन निकरे लोग उठे तो वे मरे परे मिले। दिल्ली में दिहाड़ी मजूरी कन्न आवन बान्न नें फोन पै खबरि दई है। दाह संस्कार सायं चार बजे है, मैं जाइ रओ हूँ तुम चलोगे का?’ उसने मुझसे कहा।

‘तू निकल, मैं दिल्ली में नहीं हूँ।’

और मैं लौट गया उनकी यादों में। हमें सत्ताइस नबंवर को ‘पाली-मुकीमपुर’ में एक शादी में शामिल होना था। उसी बस्ती में फूफा का घर है। बुआ को गुजरे कई साल बीत गए हैं। एक अपढ़-गरीब बेटी और अनपढ़ बेटा है, जिसकी मजदूरी से परिवार का बमुश्किल गुजारा होता रहा है।

उस दिन घर से निकलते वक्त भाई ने कहा था ‘सर्दी बहुत पड़ रही है, फूफा के पास गर्म कपड़े नहीं हैं। आप उनके लिए कोई स्वेटर-जर्सी ले चलें तो उससे उनके जाड़े कट जाएँगे और वे एकाध साल और जी पाएँगे।’

मुझे उसकी बात उचित लगी। हम जब गए तो भाई और उसकी पत्नी भी हमारे साथ गाड़ी में सवार हो लिए थे। जब हम अतरौली से पाली की ओर गुजर रहे थे तो भाई ने माँ के साथ का कष्टकर सफर इन शब्दों में याद दिलाया।

‘भाई साब का तुम्हें याद है? जब हम अम्मा के संग जा रस्ता तें नंगे पाँव पैदल-पैदल जाते। नीचे तें धत्ती भभक रही होती और ऊपर तें सूरज आग बरसातो। अम्मा की जेब में फूटी कौड़ी हू नांय होती। हम खइवे-पीवे की कोई चीज नांय खरीद पाते। अम्मा धोती को पल्लू फारि कें हमारे पांइनु में बाँधती तबऊ फफोले परि जाते। आज सड़क है, तुम्हारे पास गाड़ी है। पर अम्मा तो दुनिया में नांय है।’

‘हाँ, तुम कह तो ठीक रहे हो उसने तो कुछ भी नहीं देखा। मुझे रोजगार मिलने से पहले ही चली गई। पर अब तक वैसे भी ना जी पाती। कौन दुनिया में हजार साल जीता है? देर सबेर सब चले ही जाते हैं।’ हम बोलते-बतियाते गाड़ी चलाते ‘पाली’ पहुँच गए थे।

शादी की प्रक्रिया पर बात करना छोड़ते हैं। हाँ, उस शादी में मुझसे मिलने आए स्थानीय कॉलेज के कुछ अध्यापक और बहुजन समाज से जुड़े वकील साहब से जरूर अच्छी बातें हुई थीं। बरेली जाकर वहीं बस गए। इसी गाँव के पहले पोस्ट ग्रेज्युएट दलित जो रेल विभाग के मालबाबू पद से हाल ही में सेवानिवृत्त हुए, नरोत्तम जी मेरा इंतजार कर रहे थे। डॉ. अंबेडकर की प्रतिमा के पास नल पर स्नान के लिए और मैं निकल गया था फूफा ‘श्रीराम’ से मिलने। वे हँसकर गले मिले। मेरे साथ बहन माया थी। मैंने अपने हाथों से उन्हें गर्म ऊन की जर्सी पहना कर कामना की कि आप और जिएँ, स्वस्थ रहें। बहन भाई ने उनके दायें-बायें बैठकर तस्वीर खिचाई जो उनके साथ की एक मात्र और इकलौती तस्वीर होगी। इसलिए कि मुलाकात के बीस दिनों के भीतर 18 दिसंबर, 2019 को उनकी मृत्यु की खबर आ गई थी। मैंने फूफा को लेकर पूरी कृतज्ञता के साथ ‘जय श्रीराम’ शीर्षक से एक संस्मरण लिखने की योजना बनाई। आखिर क्या यह कृतज्ञता अकारण थी? लगभग 93 वर्षीय श्रीराम जी से मुलाकात के पीछे एक अविस्मरणीय घटना संज्ञान में थी। उसकी वजह से हम फूफा जी के प्रति बेहद कृतज्ञ थे। घटना का समय था लगभग 1969। उस दौरान श्रीराम ने देवदूत की तरह अपनी भूमिका निभाई थी। वरन आज न तो माया होती और न श्यौराज सिंह ‘बेचैन’ का कोई अस्तित्व होता।

अब बताना यह है कि श्रीराम यानी उस गरीब अछूत व्यक्ति की भूमिका आखिर थी क्या?

नए साल पर सब लोग तरह-तरह की तस्वीरें फेसबुक पर डाल रहे थे। मैं भी श्रीराम जी की तस्वीर साझा करना चाह रहा था। तस्वीर के नीचे कैपशन में लिखना चाह रहा था कि ‘आपके सामने एक बुजुर्ग की ताजा तस्वीर है। ये हैं तिरानबे साल के श्रीराम चमार और इनके दायें-बायें हैं श्यौराज और माया। श्रीराम सन् 1969 के हीरो हैं।’ आप कहेंगे कि ऐसा क्या किया था उस नाचीज अछूत ने? क्या कहीं चमार भी हीरो होते हैं? क्या वे अँग्रेजी जमाने की ‘चमार रेजिमेंट’ के सिपाही थे? जो द्वितीय विश्वयुद्ध में अपनी वीरता का प्रदर्शन कर आए थे।

जी ऐसा बिल्कुल नहीं है, बल्कि जिंदगी के कई और मोरचे भी होते हैं जिन पर बहादुरी और कायरी के प्रदर्शन होते हैं। चलिए बताया जाए कि 1969 के दौरान जब मैं आठ-नौ साल का था और मेरी बहन माया दस-ग्यारह साल की थी तब पाली में हमारे सौतेले पिता भिखारी लाल ने हम दोनों को ईट भट्टा के ठेकेदार से कुछ रुपये पेशगी लेकर हमें बेच दिया था। हालाँकि गरीब दलित बतौर पथेरे जब भट्टों पर जाते थे तो कुछ परिवार अपने बच्चों को भी साथ ले जाते थे। ऐसे बच्चों की कोई पढ़ाई-लिखाई नहीं होती थी। यहाँ बालश्रम का शोषणकारी दमन चक्र चलता था। भट्टे के पथेरे बच्चों की शादियाँ नहीं होती थीं। जवान होने पर खासकर लड़कियों को किसी लड़के के साथ भाग जाना पड़ता था। परंतु हम बच्चों के साथ तो और भी मुसीबत थी। क्योंकि हमारे साथ हमारा कोई अभिभावक नहीं जा रहा था। हमारे श्रम का मूल्य न्याय संगत भी नहीं होता था। वह तो पहले ही ले लिया गया था। माँ को मुझसे अधिक बहन की चिंता थी, क्योंकि भट्ठों पर लड़कियाँ सुरक्षित नहीं रहती थीं। ऐसे में हमें उस जाल से बाहर निकालने में हमारी मदद इन्हीं श्रीराम ने की थी। उन्होंने यह खबर मेरे पैतृक गाँव नदरोली और मेरी ननिहाल चंदौसी पहुँचाई थी वहाँ से कोई व्यक्ति मिर्जापुर गया, जहाँ बहन की शादी की बात चल रही थी। इंतजार हो रहा था कि वह बारह साल की हो जाए तो शादी करा दी जाए। सो तय दिन पर जब ठेकेदार हमें बेरहमी के साथ ट्रक में भर कर ले जा रहा था, मैं चूँकि छूटने के लिए अधिक उछल-कूद कर रहा था, इसलिए अम्मा को नजर से ओझिल होते ही उसने मेरे दोनों पाँव रस्सी से बाँधकर पीछे कोने में डाल दिया था। बहन मेरे पास आकर डरी सहमी सी बैठ गई थी। दो-ढाई कोस चल कर प्याऊ पर ट्रक जैसे ही रुका, अचानक नियत समय और स्थान पर ये सब हमारे मुक्ति के फरिश्तों की तरह शिकारियों पर टूट पड़े थे। मेरे मामा अमर सिंह, ताऊ और मिर्जापुर से बहन के होने वाले जेठ बाबूराम और उनके साथ दो तीन लोग ट्रक के सामने आकर खड़े हो गए। मुझे बाँध कर ले जाने पर उन्होंने ठेकेदार को काफी खरी-खोटी सुनाई। वह बोला ‘मुझसे तो इन बच्चों पर काफी रुपये लिए हैं भिखारी ने। उसने तो यहाँ तक कहा है कि इन बच्चों को कभी वापस लाने की भी जरूरत नहीं है।’

भिखारीलाल को बुलाया गया तो उसने हमारे बचाव पक्ष से कहा कि मेरे घर पर इन बच्चों ने अपनी माँ के साथ आकर जो खाना खाया उसे ब्याज सहित वापस दो और इन्हें ले जाओ। उस पैसे से में ठेकेदार का कर्ज चुकता कर दूँगा। इस तरह काफी जद्दोजहद के बाद हमें आजाद कराया गया। घर जाते समय पता चला कि यह सब चमत्कार श्रीराम ही का था, क्योंकि इन सब तक उन्हीं ने माँ का संदेश पहुँचाया था। वहाँ से फिर हम लौट कर पाली नहीं गए। अपने पुश्तैनी पैतृक गाँव आए।

आज जब श्रीराम जी नहीं रहे तो वे बचपन के दिन स्मृतिपटल पर उतर आए। हमारे केस में श्रीराम जी की भूमिका बड़ी सूझबूझ वाली थी। परंतु उनकी खुद की जिंदगी मजदूरी करते बीती। उनके बाप-दादा से लेकर बच्चों तक को कोई शिक्षा, कोई आरक्षण कभी नहीं मिला। हमारे साथी राजपूत, बनिया, कायस्थ, ब्राह्मण दलितों में क्रीमीलेयर लागू कराने की बात करते हैं। श्रीराम की मजूरी के बकाया पैसे तो ये लोग दे लें फिर अपने जैसा क्रीमीलेयर कहना है तो कह लें।

ऐसे पात्र और प्रसंग अनेक हैं जिन पर मेरी आत्मकथा में पूरी बात नहीं हो सकी है। मसलन एक हैं, मेरे गंगी बब्बा! क्या जीवन था उनका। वे स्वराज प्राप्त देश में ऐसे लगते थे, जैसे अमेरिका के टाम्स काका वही हों। टाम्स एक अश्वेत दास थे।

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चार मई की रात मैंने जय श्रीराम संस्मरण लिख कर पूरा किया था, मेरी अगली योजना थी, माया के बारे में लिखना। पर रात हो गई, थक कर बारह बजे विस्तर पर जा कर लेट गया। नींद अभी आई नहीं थी कि साढ़े बारह बजे फोन बजा। स्क्रीन पर ‘माया बहन’ लिखा दिखा, मेरा दिल धड़का। इसलिए कि अमूमन गाँव में लोग दस बजे तक सो जाते हैं। बहन फोन कर रही है तो कोई खुशखबरी देने के लिए तो नहीं कर रही होगी। कुछ न कुछ अशुभ ही घटित हुआ होगा। वैसे भी हमें खुशी में कौन याद करने वाला है, हमें तो संकट में ही याद किया जाता है। ‘हाँ दीदी, बोलो क्या बात है? इतनी रात फोन क्यों कर रही हो?’

यह चार-पाँच मई, 2020 की रात थी। कोरोना महामारी ने अब तक के सबसे अधिक विश्वव्यापी कहर ढाया था। बहन के बच्चों में आपस में लड़ाई हुई एक मात्र स्नातक बेरोजगार संजू के सिर में टाँके आए थे और उसके पाँव में भी चोट लगी थी। मेरा घर गाजियाबाद की वसुंधरा कॉलोनी के सेक्टर एक में है। जब बहन ने कहा–‘भैया तुम अभी आ जाओ।’ मैंने बताया कि यहाँ तालाबंदी है। हम बाहर नहीं निकल सकते। ‘पर गाड़ियाँ तो चलती दिखती हैं।’

‘वे स्थानीय सरकारी कर्मचारियों की गाड़ियाँ होंगी। बाहर कोई आ जा नहीं रहा। हमारा तो पार्क पर भी ताला लगा है। बस्स, बेटी बाहर जाती है। मीडिया में काम करने के कारण वह भी कंपनी की गाड़ी में।’

वह दबाव बना रही थी। बहू ने थाने में रिपोर्ट दर्ज करा दी है। संजू का सिर फूट गया है। अब पुलिस मेरे बच्चों की हड्डियाँ तोड़ेगी और केस लगा कर जेल भेजेगी। पुलिस से बात कर या आकर बचा ले। थाने में फोन तो कर दे। मैंने कहा, मेरे पास थाने का नंबर नहीं है किसी के पास हो तो नंबर दो मैं बात करूँगा।

यह रात के एक बजे के बाद का समय था। बेटी अपनी शिफ्ट पूरी कर के आ चुकी थी। उसने अपने जूते कोरोना सुरक्षा कवच, सब उतार कर कपड़े बदल लिए थे। हालाँकि, वह ड्यूटी के बाद हमसे दूरी बनाते हुए रात ही में गर्म पानी से नहाकर, खाना खाकर सीधे अपने कमरे में जाती थी और हम अब तक सो गए होते थे। परंतु आज उसने देखा कि पापा जाग ही नहीं रहे बल्कि परेशान हाल बतिया रहे हैं। ऐसी क्या समस्या है, जो फोन पर आधा घंटे से लगे हुए हैं। ‘क्या बात है पापा?’

‘कुछ नहीं तुम्हारी बुआ का फोन है। बच्चे लड़ पड़े हैं। लड़-झगड़ कर थाने पहुँच गए हैं। बहन डर रही है कि पुलिस उन्हें मारपीट कर बंद न कर दें।’

‘थाना कौन-सा है नगली।’ वह सुनती हुई अपने कमरे में चली गई। मैं बहन से बतिया रहा था। वह आई बोली, नगली सैद थाना। मैंने इंचार्ज से बात कर ली है, वे मेडिकल कराकर छोड़ देंगे। बिल्कुल मारेंगे-पीटेंगे नहीं, बुआ को बता दो। और आप सो जाओ, पुलिस हमारा नेशनल चैनल देखती है।

पर माया को क्या पता, क्या हो रहा है? ‘सबसे अच्छे मूढ़ मति जिन्हें न व्यापै जगत गति’ देश दुनिया के हालातों से उसको क्या लेना देना? इसलिए कि एक तो उसे काला अक्षर भैंस बराबर है। दूसरा उसके घर में न तो रेडियो है, न कोई अखबार उस गाँव में जाता है। कोई जाट-बामन का छोरी-छोरा शहर से समाचार लाता भी होगा, तो वह किसी चमारी से समाचार साझा करने क्यों जाएगा? सो मुझे माया के अज्ञान से खासी परेशानी हो रही थी। इसलिए कि मैं काल की कठोरता से उसे परिचित कराने में विफल हो रहा था। 6 मई को जब उसने फोन कर बताया था कि ‘पाँच गाँव के पंच आए हैं, मैं नहीं जानता कि इस सोशल डिस्टेंसिंग के इस दौर में कैसे वे आ सके हैं। शिकबा यह कि तू नहीं आया। संजू फैसला करने को तैयार नहीं है।’ मैंने संजू को समझाया। पर माया की समझ में कुछ नहीं आया। मैंने बताया कि ‘देश में आज अब तक की सबसे ज्यादा 194 मौतें हुई हैं और 3875 नए लोगों में संक्रमण पाया गया है। ऐसे में लॉकडाउन का पालन करते हुए हमें घर ही में रहना है और तुम कह रही हो कि आ क्यों नहीं रहा? वैसे भी रात के एक बजे मैं निकल कर डेढ़ सौ किलोमीटर कितने समय में पहुँचता। रास्ते में गाड़ी खराब हो जाती, पेट्रोल खत्म हो जाता, तो? माया को इन समस्याओं की जानकारी से न कोई मतलब, क्योंकि न तो उसका परिवार किसी दृष्टि से आदर्श है और न सीमित परिवार। यह अशिक्षा, अज्ञानता गरीबी का मिला परिणाम है। 6 मई पूरे दिन संजू को समझौता करने के लिए प्रयास किए गए। वह नहीं माना। मैं तो अब कोर्ट में ही खीचूँगा इसे। छोटे भाई ने उसे मारा, यह गलत तो उसके साथ हुआ। पर अब पंचायत बैठी। सबने समझाया, जो दंड देना है–आर्थिक-शारीरिक पर कोर्ट कचहरी तो कोई समाधान नहीं है। कहते हैं संजू की बहू नहीं मान रही।

गरीब लोग हैं। संजू बी.ए. करके सड़क पर बैठकर जूते गाँठता है।

अशिक्षा और गरीबी के फलितार्थ कि माया का जीवन सफर भोलेपन और मूर्खता से भरा रहा है। 1991-92 के दौरान जब उसने हमें अपनी बेटी की शादी के मौके पर बुलाया था। तब कहा, मामा है दस हजार थाली में डाल। उसकी जेठानी बल्ले की पत्नी और ताने से मार रही थी।

‘दिल्ली में नौकरी करै है। दस हजार का मायने रखे हैं?’ मैं उन दिनों दिल्ली के एक स्कूल में टीजीटी लगा था और मेरा वेतन मात्र चौबीस सौ रुपया था। शादी हो चुकी थी, खर्चे बढ़ चुके थे और आठ सौ रुपया माहवार मकान किराया देना पड़ता था। सो मेरी हैसियत थाली में दस हजार डालने की नहीं थी। जो कुछ कपड़े-नकदी में दे पाया, माया उससे खुश नहीं हुई। उसके बाद करीब पंद्रह साल तक बाकी किसी बच्चे की शादी में न तो उसने कभी बुलाया और न हम गए।

इधर पाँच-छह साल से बगैर बुलाए ही हमने जाना-आना शुरू कर दिया था। माया भी दो तीन बार आई। मैं शुरू से कहता रहा–बच्चे को पढ़ाओ, लड़कियों को पढ़ा कर पूरी उम्र होने पर अपने पैरों पर खड़ी होने के बाद ही उनकी शादियाँ करो। दारूबाजी बंद करो। यह कोई उपदेश नहीं बल्कि सीधी सामाजिक क्षति होती दिख रही है।

चार साल पीछे मुढ़कर देखते हैं, 8 नबंवर 2016 को प्रधानमंत्री जी ने नोटबंदी का ऐलान किया था। तब गरीबों मजूरों को भारी संकट का सामना करना पड़ा था। करोड़ों भारतीयों की तरह हमारे घर में भी उस वक्त भीड़ के लिए जो नकदी के रूप में रुपये रखे थे वे सब यकायक चलन से बाहर हो गए थे। आज भी पाँच-पाँच सौ के दस बारह नोट रखे हैं जो जहाँ-तहाँ लिफाफों में रखे मिले हैं।

उन दिनों हमने कुछ नोट बदली बैंक से की तो दो बार बरेली जाना हुआ। मुरादाबाद के पास माया अपने बेटे बहू के साथ पास के एक गाँव में रह रही थी। हम रोड से जाते तो वहाँ पहुँचने से पूर्व ही फोन कर देते और चार-पाँच हजार पकड़ा कर चले जाते। दो-तीन माह के अंतराल से ऐसा हम करते रहे और कहते रहे ‘किसी तरह बच्चे पढ़ाओ, गाँव की दबंग जातियों की गुलामी से निजात पाने के प्रयास करो। जूता गाँठने के असम्मानित पेशे छोड़ो, कम-से-कम बच्चों को तो पढ़ा लिखा कर इज्जत की जिंदगी जीने लायक बनाओ।’

इधर दलितों की बड़ी दुर्दशा। हजारों में एक-दो पढ़ पाते हैं। नौकरी भी करने लायक बन जाए तो उसके आगे-पीछे नाते-रिश्तेदारों की हजारों की भीड़ होती है। यह अविद्या, अज्ञानता, बेरोजगारी, कुरीतियों, बालविवाह, लंबे परिवार, भूखे नंगे बीमार बच्चे चारों तरफ दिखाई पड़ते हैं। कोई क्लास वन या आइ.ए.एस भी बन जाए तब भी। हजारों की जिंदगी तो इनसानी हकों से वंचित ही रहती है।

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जिस कहानी में अपनी जिंदगी के दर्दनाक तजुर्बात शामिल हों तो वह बेकली दिलदारी पर ऐसी सवारी गाँठती है कि मानो कोई सोते शेर की पीठ पर बिठा कर चला गया हो। ‘बेटा कर लो सवारी’ शेर-दिल तो तुम हो कहो जो कहना है। पर समय का शेर जाग उठा उसके जिस्म का रोया-रोया हरकत में है। समय का शेर दौड़ रहा है। सवार न उतर सकता है और न सवारी कर सकता है। उसकी आत्मकथा का हर प्रसंग पीड़ादायी होता है। माया की मजबूरी पर लिखना फिर अपने दुखद अतीत डूबने जाने जैसा था। पर इन दिनों घटित हुए कुछ ऐसे प्रसंगों ने पीछा किया कि रुक कर, मुड़ कर देखना ही पड़ा। तो क्या देखा और किन प्रसंगों की वजह से? चलिए शुरू करते हैं अंतरजाति प्रेम के प्रमाणिक परिणाम। इस जाति तोड़क प्रक्रिया में क्या दो जातियाँ समान प्रभावित या लाभान्वित होती हैं?

इस बार करीब 12 साल बाद साहित्यिक मित्र बलबीर माधोपुरी और मैं केरल की साहित्यिक यात्रा में साथ-साथ थे। हम शंकराचार्य विश्वविद्यालय (एटमानूर) में यूजीसी के सहयोग से हुए तीन दिन के दलित साहित्य उत्सव में शामिल हुए थे। सह संयोजक अरुण कुमार ने बताया कि आयोजन की स्वीकृति आपके आने की मंजूरी देने से हुई। इसलिए आत्मकथा ‘मेरा बचपन मेरे कंधों पर’ यहाँ एम.ए. हिंदी के कोर्स में लगी है। इसलिए छात्रों, शिक्षकों और विशेषकर केंद्र निदेशक डॉ. चन्द्रवदना, मित्र बलबीर माधोपुरी ने अपनी आत्मकथा ‘छांग्यारुख’ के अँग्रेजी पाठकों पर प्रभाव खास कर जाटों में आए बदलाव के बारे में बताया था। जाटों ने पंजाब के चमारों के साथ ज्यादतियाँ की थीं। पर अब वे रिलाइज कर रहे हैं। अब तक गाँव में जितनी जातियाँ थीं उतने ही गुरुद्वारे थे। जाट अपने गुरुद्वारों में चमारों को नहीं जाने देते तो उन्होंने गुरु रविदास गुरुद्वारे बना लिए। मजहबी सिख भी उसी गुरुद्वारे में आने लगे। परंतु अब एक ही गुरुद्वारे में संयुक्त अरदास होने लगी है।

बलबीर माधोपुरी के पास वामपंथी विचारों का अच्छा अनुभव था। उन्होंने मौलिक लेखन के अलावा 50 किताबों के अनुवाद किए हैं, खुद मेरी आत्मकथा (मेरा बचपन मेरे कंधों पर) का हिंदी से पंजाबी अनुवाद बलबीर जी ने किया।  मैं उनके साथ उनके गाँव, बहन के गाँव और उनकी सुसराल व साहित्य दोस्तों के घर गया था। मुझे उनके माता-पिता से उनके अनुभव सुनने का मौका मिला था। गाँव से गुजरते हुए बलबीर जी ने उनके घर की ओर उँगली से इशारा कर के बताया था। ‘यह जट्ट सिख कॉमरेड हुआ करते थे उन दिनों। परंतु मैं स्कूल से ओता तें साड्डे बालों बिच कंगी हुई वेख कर जमीन ते मिट्टी उठा के साडे बालों बिच पा दित्ते सी।’ बलबीर के मुताबिक कुछ जट्ट सिख जो विदेशों में रह रहे हैं, पढ़कर काफी बदल रहे हैं। यह लेखन का ही असर है जो मुझे उन्होंने बतौर सम्मान सोने का पेन भेंट किया है। इतना ही नहीं और भी चीजें भेट कर रहे हैं।

बलबीर ने केरल के सेमिनार में कहा कि पंजाब के एक गाँव में चमारों ने एक जाट-सिख के नाम का गुरुद्वारा बनाया। क्योंकि उसने अपनी सैकड़ों एकड़, जमीन चमारों के लड़के-लड़कियों को पढ़ाने और रोजगार सिखाने के लिए दान कर दी और कहा मेरे बेटों के पास पर्याप्त प्रॉपर्टी है। मुझे फिक्र है अपने गाँव के दलितों की सो गदर पार्टी में अमेरिका में काम कर चुके उन क्रांतिकारी जाट सिख दिलीप सिंह के प्रति सम्मान प्रकट करने के लिए दलितों ने दिलीप सिंह के नाम का गुरुद्वारा बना लिया।

यह सच्चा क्रांतिकारी मेरे ध्यान से नहीं उतरा। मैंने बलबीर जी से दिलीप जी की डिटेल माँगी। उन्होंने अँग्रेजी में जानकारी दी–श्री दिलीपसिंह जट्ट सिख थे। गाँव नानगल कलान पंजाब के रहने वाले थे, वह यू.एस. में गदर पार्टी के सदस्य थे। उन्होंने देखा कि गाँव में हमारे दलित बच्चों के लिए कोई स्कूल नहीं है। सरकार भी उनके प्रति उदासीन है। जाति द्वेष के कारण गैरदलित उन्हें साथ पढ़ता-बढ़ता देखना पसंद नहीं कर रहे। इन बच्चों को कुछ करने लायक नहीं बनने दिया जाएगा तो मुल्क तरक्की कैसे करेगा? तो क्रांतिकारी का क्या काम है? कुर्बानी किसे कहते हैं। उन्होंने अपनी कृषिभूमि दलित बच्चों की तालीम के नाम कुर्बान कर दी। तो क्यों न उनकी शहीदाना स्मृति को अमर किया जाए? उन्होंने न केवल जमीन दी बल्कि उद्देशिका में अछूतों और उनकी बालिकाओं की पढ़ाई पर विशेष जोर दिया। स्कूल बनाया, अँग्रेजी पंजाबी, गणित साइंस सभी विषयों के शिक्षकों की व्यवस्था कराई, सरकारी मान्यता और मदद ली। जबकि दिलीप सिंह के अपने बच्चे और परिवार मौजूद थे। देश-भक्त-क्रांतिकारी परिवारवादी होगा और वंचित लिखने का सम्मान कर रहे हैं। गाँव के चार द्वार हैं जिनमें से एक द्वार दिलीप सिंह के स्कूल से पढ़ने वाले चमार-परिवारों ने बनाया है। इस द्वार पर उनका नाम अंकित है, ‘सरदार दिलीप सिंह स्मृति द्वार’।

विगत तीन दशकों से पंजाब की आबोहबा में सांस्कृतिक रूप से काफी बदलाव आया है। गीत-संगीत में जात्याभिमान के भाव ध्वनित हो रहे थे। जाटों में से कई अश्लील पोप सिंगर आए। बड़े-बड़े फार्म-हाउस, उन पर आगे पीछे उनके जाति सूचक लिखे रहते हैं। ‘जट्ट दा पुत्तर’ अधिक गाड़ियों पर लिखे मिलते हैं। स्वजाति गौरव कोई बुरी बात नहीं पर परजाति को तुच्छ, हीन या अछूत समझना उचित नहीं है। डेली ड्रिंकिंग, नशे में ड्राइविंग, जिस प्रकार वे छोटी जातियाँ मान कर दलितों को धकियाते चलते हैं, उसी प्रकार छोटी गाड़ियों को ओवरटेक करते जा रहे थे, कानफोड़ू-म्यूजिक बॉडी बिल्डर गबरू जवान ड्राइवरों की हरकतें देखते बनती थीं। परंतु वे आए दिन चमारों से टकराते हैं। इधर कुछ सालों से कनाडा, अमेरिका गए चमारों ने भी पंजाब लौट कर बड़ी-बड़ी, महँगी-महँगी गाड़ियाँ लीं और जाटों की तर्ज पर ‘पुत्त चमाराँ दा’ कहीं ‘डेंजर चमार’ और कहीं ‘ग्रेट-चमार’ लिखना शुरू किया। अपना संगीत विकसित किया और अश्लीलता के जवाब में शालीन गीत रिकॉर्ड किए। गुरुओं के प्रति अपनी श्रद्धा भी व्यक्त की। गाने इतने शालीन कि बहन बेटियाँ गा सकें। गिन्नी माही ने ‘डेंजर चमार’ गा कर कनाडा, अमरीका इंग्लैंड अफ्रीका तक में धूम मचा दी। पंजाब के जाटों, वाम रुझान के क्रांतिकारियों की भी एक परंपरा भगत सिंह के समय से ही रही है। परंतु जाति के सवाल को नजरअंदाज करने का नतीजा यह हुआ कि गुरुओं की मानव समानता की परंपरा के बावजूद पंजाब के गाँव में जितनी जातियाँ उतने उनके अलग गुरुद्वारे बन गए–दलितों के अधिसंख्य गुरुद्वारे रविदास के नाम पर बने। क्योंकि गुरुग्रंथ साहिब में रविदास की वाणी भी शामिल है। असर उत्तर-प्रदेश तक आया। सहारनपुर जिले में जब जाटों-ठाकुरों ने अंबेडकर की प्रतिमा तोड़ी। अंबेडकर जयंती रोकी तो चमारों के बीच से चंद्रशेखर आजाद ने कांशीराम की तर्ज पर अंबेडकरवादी ग्रेट-चमार संगठन बनाया। तमाम दलित और अल्पसंख्यकों को साथ जोड़ा। संगठन आगे चलकर ‘आजाद समाज पार्टी’ में बदल गया।

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यह कौन है जो अपनी बेपहचान की जिंदगी जीता है। फिलवक्त इसकी उम्र साठ को छूने वाली होगी। परंतु इसने अब तक की पूरी जिंदगी में क्या किया? यह न तो एक अक्षर पढ़ा, न इसने कोई हुनर सीखा पर इसने होश सँभालते ही बेहोश रहने की लत पकड़ी। जब मैं दस-बारह वर्ष का था और यह मुझसे भी कुछ छोटा। मेरा इससे परिचय बहन के देवर के रूप में हुआ। बहन का विवाह तो मटरु चमार के बेटे गंगाबासी से हुआ था, पर यह हरभजन नामक बालक मुझे सियाराम जाट के घर लेकर गया था। जाट का बड़ा घर था–बैल, भैंसें, कृषियंत्र, खेत जोतने, चारा काटने की मशीनें–एक संपन्न किसान संभव होने वाला और बहुत कुछ देखा था वहाँ। बालक बे-रोक टोक उस घर में दाखिल हुआ था। वह कुटिया में घुस कर गुड़-शक्कर निकाल रहा था और रसोई में पक रहे दूध का बर्तन उठाकर अपने लिए और मेरे लिए दूध के गिलास भर रहा था। उस समय पचास-पचपन के रहे होंगे चौधरी सियाराम, बड़ी आत्मीयता से पास बिठा कर अपनी बे-औलादी पत्नी से कह रहे थे–अरे ये बच्चे खाली दूध पिएँगे या इन्हें कुछ खिलाएगी भी? भज्जन तो घर का है, ये मेहमान श्यौराज फिर कब आएगा?

इतने प्यार और लगाव का कारण पता लगते देर नहीं हुई। वह यह कि रामसाय जाट जब जवान थे। उन्होंने भज्जन की माँ फूलवती चमारिन को अपने घर में रख लिया था। भज्जन का जन्म उन्हीं के घर में हुआ था। परंतु फूलवती उनकी वैध पत्नी नहीं थी। इस कारण जाति-प्रतिष्ठा और सामाजिक दबाव के कारण चौधरी सियाराम ने फूलवती और उसके बच्चे को मटरु चमार के घर छोड़ दिया। हालाँकि उन्होंने बच्चे का खर्चा उठाना चाहा। परंतु अपने ब्याहता पति से नजरें नहीं मिला पा रही थी। पर वह अपने नवजात बच्चे के प्रति फिक्रमंद थी। मटरु के लिए बिरादरी में यह मुँह दिखाने लायक बात नहीं थी। वे पत्नी को कुछ नहीं कहते थे। पर फूलवती उनकी गुमसुम-खामोशी की भाषा समझ रही थी। वह चाहती थी कि पति उसे मारे-पीटे, गुस्सा करे ताकि उसके मन का बोझ हल्का हो जाए। उधर चौधरी भी सुबह शाम चक्कर लगाता था। वह अपने बच्चे को देख जाता था। उसका संकट यह भी था कि उसकी ब्याहता चौधराइन बाँझ थीं। उनका कोई बच्चा नहीं था। एक बार उन्होंने मटरु से कहा–मेरा बच्चा मुझे दे दो तो मैं इसे गोद ले लूँ। मटरु ने हामी भी भर ली थी। परंतु चौधरी के परिवार ने ऐसा नहीं करने दिया। उन्होंने कहा–बेशक बच्चा तुम्हारा, पर पैदा तो चमारिन के पेट से हुआ है। गोद लोगे तो सारी संपत्ति का वारिस भी वही बनेगा।

फूलवती प्रायश्चित करने की ओर अग्रसर हुई। उसने पति से कई बार पूछा–आप मुझे माफ करने के लिए क्या सजा देना चाहेंगे? मैं अपने बच्चे के लिए जीना चाहूँगी और अपनी करनी के लिए हर सजा भुगतना चाहूँगी।

मटरु ने कुछ नहीं कहा और फूलवती को उनकी खामोशी असहनीय हो गई। उसने उसे गौर से सुना। ग्लानि, प्रायश्चित और विकल्पहीन भविष्य की सोचकर आखिरकार उसने आत्महत्या का रास्ता चुना।

अब बालक भज्जन के पास जैविक और सामाजिक दो पिता थे और माता एक भी नहीं। ऐसे में वह पला और बड़ा तो हुआ परंतु उसके साथ पहचान का संकट जुड़ा रहा। उसमें कोई गुण विकसित नहीं हुआ। भज्जन के अलावा फूलवती के मटरु से पैदा तीन बच्चे और थे। दो बेटियाँ चंदरो, मंदरो और बेटा गंगावासी। मटरु पत्नी के कृत्य से दुखी तो थे परंतु फुलवती का सदमा नहीं सह सके। गंगावासी की शादी के बाद वे फूलवती-फूलवती करने लगे और जल्दी ही दुनिया से चले गए।

माया का ब्याह बारह साल की उम्र में बीस साल के गंगावासी से हुआ था। शादी के दो साल बाद दिल्ली के इर्विन अस्पताल में गंगावासी की मृत्यु हो गई। माया को खबर मिली। उसने गंगावासी के बेटे को जन्म दिया था।

भज्जन अनपढ़ उजड्ड था। वह रोज झगड़ता, नशा करता और चौधरी के दरवाजे पर पहुँच जाता। चौधरी ने चमारों को बिठा कर माया का पुनर्विवाह भज्जन से करा दिया। अब चौधरी वृद्ध होने लगे तो उन्होंने अपनी जमीन, घर भज्जन के नाम करने का ऐलान कर दिया। जब वे रजिस्ट्री कराने जाने वाले थे तो उन्हें भाई-भतीजे और बहन-भानजों ने घेर लिया। ऐसे में आंशिक हिस्सा चौबीस बीघा जमीन ही भज्जन के नाम करने दी और घर संपत्ति में से कुछ भी नहीं लेने दिया। इससे परेशान भज्जन ने अपने पीने की मात्रा और बढ़ा दी। इसका फायदा उठा कर चौधरी के गुजर जाने के बाद उनके परिवारजन ने भज्जन को कुछ डराकर और कुछ पिला-खिला कर चौधरी द्वारा दी गई सारी जमीन उससे लिखा ली।

चालीस साल के अंतराल में भज्जन माया के कई बच्चों के पिता बने। परंतु वे सुबह से शाम तक नशा और फिर नशा, इसके अलावा कुछ नहीं।

मेरे मानस में जाटों की कई छवियाँ कौंध रही थीं। मैं अपने ज्ञान और अनुभव दोनों के आलोक में उन छवियों को देख रहा था। एक तरह से मेरे आत्म का संसार खुल रहा था। वैसे तो हरेक सच्चा आत्मकथाकार सबसे पहले अपने आपसे जूझता है, अपने आपको नंगा करना हृदय विदारक होता है। खास कर ऐसे समाज में, जहाँ लोग संपन्नता की शेखियाँ बघारते न थकते हों।

जाटों और चमारों के अच्छे-बुरे कई किस्से मेंरे जहन में कौंध रहे थे, जिसके बीच अंतरजाति प्रेमविवाह मौत के कारण बन सकते हैं ।

दलित आदिवासी लड़की यदि कमाती है तो संभव हो तो हो, ‘द हिंदू’ में एक लेख आया कि ओबीसी दलित मिलकर बनता है बहुजन ग्रुप। परंतु कोई यादव या जाट अपनी बेटी की शादी दलित आदिवासी से करना पसंद नहीं करता, जबकि दलित, आदिवासी, कायस्थ, बनिया लड़कियाँ जाटों के घरों की बहू बनी हैं। पर दलित लड़कियों के साथ प्रेम के बदले विश्वासघात किए हैं, उन्हें पत्नी का दर्जा न देकर रखैल बनाया गया है। फूलवती को मैंने नहीं देखा लेकिन एक सहायक डॉक्टर दलित लड़की का किस्सा मेरे संज्ञान में आया है। लालच, ब्लैक-मेलिंग इत्यादि इस प्रकार के कितने ही प्रसंग हैं।

चन्दौसी के पप्पू जाटवों में उभरते युवा नेता हैं। उन्होंने दलितों की तमाम उपजातियों के साथ मिल कर दलित युवाओं का संगठन बनाया था। इस संगठन में वाल्मीकि समाज के कई तेजतर्रार युवा सक्रिय थे। मैं स्वयं इनके बीच गया हूँ। 1980 से 1990 के दशक के मेरे सक्रिय दिनों के युवा अब अधेड़ हो गए हैं। बल्कि उनके बच्चे सामाजिक कार्यों में आने लगे हैं। पप्पू यानी सूर्यजीत के साले ने बिलारी क्षेत्र के एक जाट की बेटी से प्रेम विवाह कर लिया था। परंतु जाट परिवार को स्वीकार नहीं था। लड़की-लड़का सात आठ माह तक छिपते-छिपाते एक दिन हमारे घर आए, तो लड़की कह रही थी कि मेरे घर वाले देखते ही गोली मार देंगे।

हम बात कर रहे थे कि ये बच्चे साझा जीवन कैसे बसर करेंगे? जब तक अंतरजाति विवाह नहीं होंगे? हमने उनसे कहा कि जब तक अलग-अलग जातियों का खून मिश्रित नहीं होगा, तब तक जाति बंधन टूटने तो दूर रहे, ढीले भी नहीं होंगे। मैं इस निष्कर्ष पर था कि इनकी दोस्ती ज्यादा चलेगी नहीं। कारण जाति तो था ही, उनकी जीविका का मसला भी था। लड़की की योग्यता लैक्चरर बनने लायक थी। परंतु पप्पू के साले की बी.ए., एम.ए. बिना किसी प्रशिक्षण के अभाव में वह कहीं नौकरी पा सकेगा, ऐसा संभव नहीं है। लड़की को लग रहा था कि आरक्षण उसके पति को रोजगार दिला देगा। पर यह गैर दलितों की अफवाहजन्य भ्रम ही था, जिसमें प्रायः कहा जाता है कि दलित को तो कोई खास योग्यता की जरूरत ही नहीं होती है। उन्हें तो आरक्षण मिलता है। पर मुझे जो दो आशंकाएँ थीं–

  1. रोजगार नहीं मिलेगा।
  2. यह जाट-जाटव प्रेम विवाह चलेगा नहीं।

आज 10 मई 2020 को पप्पू की मार्फत मेरी शंका की पुष्टि हुई है। जाट जाति की युवती परिवार के संपर्क में आ गई और जाटव युवक को जान से मारने की धमकी मिलने लगी। युवती का पिता किसी केस में जेल चला गया। ऐसे में तलाक संपन्न हो गया, जान बची और लाखो पाए।

जाटों और जाटवों के बीच विवाह संबंध कठिन हैं। बहुजन दायरे में आने वाली ओबीसी-शूद्र जातियों में से यादव-जाटव, लोध-चमार, गुर्जर-वाल्मीकि के बीच अंतरजाति प्रेम विवाह नहीं हो रहे। इन जातियों के लीडर भी आह्वान नहीं कर रहे।

पंजाब की कुम्हार जाति में पैदा हुए संत राम बी.ए. ने जाति-पाति तोड़ो मंडल बनाया था। उन्होंने अपने बच्चों की शादियाँ जाति तोड़ कर कीं। परंतु वे उन हिंदू ग्रंथों को नहीं नकार सके जिनमें वर्ण-जातियों का भेदभाव एक धर्मसंगत व्यवस्था बनाई गई है। डॉ. अंबेडकर के अध्यक्षीय भाषण में उन ग्रंथों को नकारने का आग्रह था। जबकि जाति-पाति तोड़क मंडल ने यही संशोधन की माँग की जिसे डॉ. अंबेडकर ने नकार दिया था। नतीजा यह कि वे अपना लिखित भाषण प्रेषित करने के बाद अध्यक्षता करने के लिए नहीं आए।

लगभग 80-90 साल बीत गए कुछ नहीं बदला। मजेदार बात कि वामपंथी दलों ने जो जाति नहीं मानते हैं, कहा परंतु छापा, तिलक जनेऊ धारण कर जातिसूचक सरनेम आगे कर मंदिरों के पुजारियों की तरह कम्युनिस्ट नेता क्रांति-क्रांति का आलाप करते रहे। बात अपने समय और अपने अनुभव की की जाए, मुझे लगता यह रहा है कि सिख धर्म धर्म होकर भी बाकी धर्मों की अपेक्षा प्रगतिशील है। पंजाब में इसका असर अधिक है।

मैं अठारह मार्च 1919 को सुबह शताब्दी से चंडीगढ़ पहुँच गया था। पंजाब यूनिवर्सिटी में मुझे एक पी-एच.डी. शोधार्थी कुमारी सुजाता की मौखिक परीक्षा लेनी थी। विभाग से अग्रिम जारी सूचना पाकर वि.वि. की डिप्टी लाइब्रेरियन करुणा ने मुझे फोन किया था और मिलने का समय माँगा था। करुणा हमारे दिवंगत मित्र और लेखक डॉ. धर्मवीर की मंझली बेटी है। मैंने उसे सायं तीन से चार बजे का समय दिया।

मौखिकी के बाद खाना और सायं तक मेरे ठहरने का प्रबंध यूनिवर्सिटी गेस्ट हाउस में किया गया था। मैं खाना खा रहा था। उसी समय एक प्रोफेसर साहब आए। उनका विषय मुझे याद नहीं पर दो बातें उनके बारे में याद है जो उन्हीं से मालूम हुई थी।

एक तो वे प्रगतिशील लेखन धारा से ताल्लुक रखते हैं–यानी वामपंथी हैं।

दूसरे वे पंजाब की डौमिनेंट कास्ट ‘जाट’ से संबद्ध हैं परंतु वे जाति तोड़ने की इच्छा रखते हैं। इस दिशा में प्राप्त हुई सफलता के बारे में उन्होंने बताया कि–मेरा एक प्रोफेसर दोस्त है। उसकी बेटी भी टीचिंग में है। उसे एक चमार प्रोफेसर से प्रेम हो गया। तो उसने मेरे दोस्त से कहा कि वह अपने प्रेमी से शादी करना चाहती है। तो मेरे दोस्त ने कहा–मेरे जिंदा रहते तो नहीं कर सकती। करनी है तो तू या तो मुझे मार दे वरना मैं तेरे चमार प्रेमी को मार दूँगा।

लड़की नहीं मानी उसने रिस्क लिया और पिता की मर्जी के खिलाफ शादी कर ली। दोस्त को लगा उसकी नाक कट गई। वह मुँह दिखाने लायक नहीं रहा। जबकि वह बड़ा क्रांतिकारी विचारों का मार्क्सवादी बंदा है। हमने उसे समझाया तो उसने बेटी को विधवा करने का विचार तो छोड़ दिया, लेकिन उसे कभी घर में नहीं घुसने दिया ‘तेरा मुँह नहीं देखूँगा और न अपना दिखाऊँगा।’ ऐसी जिद कर बैठा।

वर्षों गुजर गए। बेटी को बच्चा भी हो गया। अब जाकर माना है कि चलो दामाद से मिलूँगा। बेटी के बच्चे को गोद में खिलाऊँगा। कोई कुछ कहता है तो कहूँगा मेरा दामाद नामी प्रोफेसर है। जाति क्या होती है? हमारे गुरु नानक ने कहा था–नीचों में जो सबसे नीचा हो, वह मैं हूँ। गुरुगोविंद के पंच प्यारे कौन थे? गुरु का शीश कौन लाया था? उनका वंशज मेरा दामाद नीचा कैसे हो सकता है किसी जाट से ?

आज उसके ऐसे बोल थे। मैं उसके साथ दामाद-बेटी के घर गया था। बहुत खुश होकर लौटा है मेरा दोस्त।

अब करुणा के आने का समय हो गया था। वह आई। उसने अपने घर की, डॉ. धर्मवीर की और छोटी बहन द्वारा किए गए व्यवहार की कहानी सुनाई। करुणा के साथ उसकी सहेली शीलू भी थी। शीलू एडवोकेट है। वह बता रही थी कि जिन दिनों डॉ. धर्मवीर अपनी आत्मकथा पर काम कर रहे थे, वे घंटों बतियाया करते थे।

मुझे पाँच पंद्रह की शताब्दी से लौटना था। मैंने बताया तो शीलू ने फोन किया और उसका दोस्त गाड़ी लेकर आया। शीलू बहुत हँसाती थी चुटकले सुना सुना कर, सो वह स्टेशन तक हँसाती आई।

स्टेशन पर तस्वीरें लीं और मैं शताब्दी में चढ़ गया।

मुसीबत का नाम माया

माया, यह नाम कितनी महान हस्तियों से संबद्ध महाकारुणिक बुद्ध भगवान की माँ का नाम महा-माया। अश्वेत लेखक और अमरीका के पूर्व राष्ट्रपति बाराक ओबामा की बहन माया, हिंदी दलित साहित्य के आधार स्तंभ ओमप्रकाश वाल्मीकि की बहन माया। और फिर आपके इस श्यौराज सिंह ‘बेचैन’ की बहन भी माया। पर यह माया तो जीवन की सामान्य से भी वंचित मुसीबत का पर्याय कैसे हो गई। जाट जिंदगी से माया का क्या वास्ता और वह लिखने की क्या जरूरत? जबकि मैं केरल से लौटते वक्त बलबीर जी के साथ जाटों से संबंधित अनुभव साझा कर रहा था। कंझावला में सातवें दशक में बनी जाट यूनियन जिसे बाद में किसान यूनियन भी कहा गया। यह दलितों के आरक्षण के विरोध के लिए बनी थी। ज्यादा संख्या में इन ओबीसी जातियों द्वारा खासकर चमारों पर हमलों के अनेक किस्से मिलते हैं। दबंगों में जाट, यादव, राजपूत सबसे आगे दिखाई पड़ते हैं। सबसे अधिक अंतरजाति प्रेम विवाह दलितों के ब्राह्मण युवा-युवतियों के बीच हुए हैं। तो यह क्या पेच है, क्या पहेली है?

पर मैं दुस्साहस कर रहा हूँ वह सब कहने का जो किसी भी भाई को बहन की पारिवारिक जिंदगी के ऐसे काले सच को लिखने से पहले सौ बार सोचना पड़ता है। मैं स्वयं भी भीतर से हिल सा गया हूँ। विगत तीस-पैंतीस साल से कलम घसीट रहा हूँ। यह प्रसंग लिखूँ, ना लिखूँ सोचता रहा हूँ। पहले भाग में भी लिखता मिटाता रहा। अंततः हिम्मत नहीं जुटा सका। मेरी खुद की जिंदगी तक सीमित रहा होता यह प्रसंग तो संभवतया लिख भी दिया होता। पर अब लिखना लाजिमी लग रहा है। और भी दुखद कि सच सीधा अपने जीवन का न हो किसी अपने के बारे में हो। सच ऐसा जिससे सामाजिक प्रतिष्ठा जुड़ी हो और भूमिका भी इसलिए कि शायद कहने की शक्ति कहीं से प्राप्त होती हो।

जाति को अच्छा बुरा कहना किसी को नहीं भाता। इसे व्यक्तिगत मान लिया जाता है। लेकिन एक जाति के अधिसंख्य लोगों का स्वभाव व व्यवहार दूसरी जाति के प्रति एक जैसा हो तो वह जातिगत क्यों नहीं माना जाए? बहन माया, माया की मजूरी और सियाराम जाट का बेटा चमारिन माया की मजूरी और सियाराम जाट का बेटा चमार।

बात माया की कर रहा था। माया की जिंदगी इस जाट-पूत भज्जन के साथ बीत गई। आज करीब पैंसठ की उम्र में उसने बताया कि वह गाँव के स्कूल में सुबह-शाम झाड़ू लगाती है, जिससे उसे पाँच सौ रुपये मात्र मिलते हैं। बेटों ने घरों पर कब्जे कर लिए हैं और माया अपने ही गाँव में भज्जन के साथ बल्ले के मकान में किराये पर रहती है। किराया भी पाँच सौ मासिक है। उसका खाना रहना? घर के लिए छोटे भाई ने और मैंने मदद की है, पर आपस में लड़ रहे बेटे तो पुलिस को खिला रहे हैं?

क्या किया जा सकता है। बजाय इसके कि उन्हें नियति के सहारे छोड़ दिया जाए?


Image: Temples and Bathing Ghat at Benares
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Artist: Edwin Lord Weeks
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