‘अक्करमाशी’ प्रसंग अर्थात हणमंता राव लिंबाले

‘अक्करमाशी’ प्रसंग अर्थात हणमंता राव लिंबाले

दलित विमर्श

‘नई धारा’ के अगस्त-सितंबर, 2014 अंक मे शरण कुमार लिंबाले की आत्मकथा ‘अक्करमाशी’ पर ‘द्विज जार परंपरा का कच्चा चिट्ठा–अक्करमाशी’ शीर्षक से मेरा आलोचनात्मक लेख छपा था, जिसे पढ़कर सूर्यनारायण रणसुभे कहते हैं–‘पूरे विवेचन को नजरअंदाज किया जा सकता है, परंतु इस प्रकार के लेखों से जो संदेश पाठकों तक जाता है, उसे अलबत्ता प्रतिवाद से रोकना जरूरी हो जाता है।’ इसी प्रतिवाद के लिए इन्होंने ‘द्विज जार परंपरा या नव मनुवादी सिद्धांत’ नाम से अपना लेख लिखा था, जो ‘नई धारा’ के अप्रैल-मई, 2015 अंक में देखा जा सकता है। पहली ही नजर से देखने पर पता चल जाता है, इनका यह लेख किसी प्रतिवाद में नहीं, बल्कि जारकर्म को सही ठहराने के लिए द्विज परंपरा में लिखा गया है और जिसका तर्क और तथ्यों से कुछ भी लेना-देना नहीं। यहाँ इनके लेख पर क्रमवार बात बताई जा सकती है। सर्वप्रथम, यहाँ जो भी बताया जा रहा है, वह सब तथ्यात्मक है। और तथ्य यह है कि लिंबाले का दलित जीवन से किसी भी तरह का कोई वास्ता नहीं। यहाँ यह भी बताया जा सकता है, ‘अक्करमाशी’ या इस तरह की कोई अन्य लिखत और लिंबाले का लिखा एक भी शब्द ‘दलित साहित्य’ के नाम पर नहीं पढ़ा जाना। द्विज अपनी जारज औलादों की कथा-कहानियाँ अपने साहित्य में रख लें और खूब रस ले-लेकर पढ़ें-पढ़ाएँ। कौन रोक रहा है इन्हें? हाँ, दलित साहित्य में अब नकली ‘सिक्के’ नहीं चलने वाले।

लेखक कुतर्क पर उतरे हुए हैं, ये लिख रहे हैं–‘किसी ब्राह्मण के वीर्य से उत्पन्न नवजात बालक को दलित बस्ती में किसी दलित परिवार में लाकर छोड़ दें, उसे वहीं जीने के लिए मजबूर करें–और जन्म से लेकर युवावस्था तक वह वहीं रहें–उसकी माँ दलित हों तो और उसकी परवरिश उस दलित स्त्री के घर में हो जाए तो उसे दलित नहीं तो और क्या कहेंगे?’ (वही, पृ.-41) असल में, ऐसा लिखकर ये लिंबाले को बचाना चाह रहे हैं। इनसे पूछा जाए, किसी ब्राह्मण के बेटे को दलित परिवेश में पलने-बढ़ने पर क्या वह दलित हो जाता है? जहाँ तक परिवेश की बात है तो ब्राह्मणी में पल-बढ़कर भी भंगी भंगी ही रहता है। कोई इनसे पूछे, क्या लिंबाले को कोई दलित बस्ती में फेंककर गया था? लिंबाले जारकर्म की देन हैं। इनका जार बाप हणमंता राव लिंबाले है। इसीलिए ये द्विज जार सामंत की जारज औलाद हैं। कौन इन्हें दलित कहेगा? असल में रणसुभे जैसा तर्क जार परंपरा के चिंतकों की तरफ से ही आ सकता है। इनके वीर्य की निशानी यहाँ-वहाँ पड़ी हुई पाई जाती हैं। लिंबाले ऐसे वीर्य की ही तो निशानी हैं। यहाँ यह भी बताया जा सकता है कि दलितों में कोई मातृसत्ता नहीं चल रही कि स्त्री कहीं से भी भ्रूण लेकर आ जाए और उसे पति पाले। ऐसी मातृसत्ता द्विजों को ही मुबारक हो।

फिर, ये जिस ‘जटिल समस्या’ यानी सूर्यपुत्रों की बात कर रहे हैं, उस पहले को सुलझा लिया गया है। यह सुलझाना ही इनकी परेशानी का सबब बन गया जान पड़ता है। ये खुलकर बता दें ताकि बात आगे बढ़ाई जा सके। फिर, जारिणी स्त्री से कौन जीने का हक छीन रहा है? हम तो कह ही रहे हैं कि वह अपने जार के साथ हँसी-खुशी से रहें। असल में, ‘प्राकृतिक इच्छाओं’ के नाम पर रणसुभे जारकर्म की अबाध छूट माँग रहे हैं। बताया जाए, मसाई ने न तो किसी तरह का कोई समझौता किया और न ही उसकी कोई मजबूरी थी। वह अपनी मर्जी से जारकर्म में गिरी रही।

शरण कुमार लिंबाले की जारिणी माँ के बारे में ये लिखते हैं, ‘मसायी दलित जाति की स्त्री है। आज से 50-60 वर्ष पूर्व भारत के एक छोटे-से देहात में वह जी रही है। क्या उस वक्त किसी दलित स्त्री या दलित पुरुष को किसी प्रतिष्ठित सवर्ण का विरोध या प्रतिकार करना संभव था?’ (वही, पृ.-42) अर्थात रणसुभे की बात का मतलब निकलता है कि द्विज किसी भी दलित स्त्री को कभी भी कहीं भी भोग सकता था। यहाँ इन्होंने जबरन दलित पुरुष का नाम लिया है। उधर, अनिता भारती लिखती है–‘सवाल उठता है कि दलित साहित्यकार स्त्री के यौन शोषण या बलात्कार से, सवर्णों के उन पर आधिपत्य से इतने आतंकित क्यों हैं? क्यों बार-बार लेखन का विषय दलित स्त्री का यौन शोषण बनता है?’ (प्रेमचंद : सामंत का मुंशी, डॉ. धर्मवीर, 2007, पृ.-65) अब रणसुभे और अनिता भारती आपस में फैसला कर लें कि कौन सही है और कौन गलत? वैसे, रणसुभे की बात का अर्थ निकलता है कि 50-60 वर्ष पूर्व दलित जारकर्म को अभिशप्त थे। लेकिन ये भूल रहे हैं कि ‘प्रतिष्ठित सवर्ण’ सामंत से मिल गई बुधिया और उसके जारज बच्चे के भरण-पोषण से बचने के लिए 2500 सालों से दलितों ने तलाक का रास्ता निकाला हुआ है।

इधर, आजीवक चिंतक डॉ. धर्मवीर कहते हैं–‘जब दलित की पत्नी (मसायी) जमींदार (हणमंता लिंबाले) के साथ रह रही हो और जमींदार से अपने बच्चे (शरण कुमार लिंबाले और अन्य) पैदा कर रही हो तो दलित पति (विट्ठल कांबले) से मिलने वाले उसके कौन से अधिकार सृजित होते हैं? तब जो भी उसके (मसायी) अधिकार बनते हैं, वे जमींदार की तरफ से बनते हैं। तो, वहाँ लड़े, यहाँ क्या कर रही है? कानून बनवाए कि रखैल को हवेली में अमुक-अमुक अधिकार मिलेंगे।’ (वही,    पृ.-67) यहाँ आगे बताया जा सकता है कि अक्करमाशी को अपने जार सामंत बाप से ही अधिकारों के लिए लड़ना चाहिए। दलित चिंतन तो बुधिया मसायी को तलाक दे चुका है। अक्करमाशियों को अपनी जारिणी माँ के अधिकारों के लिए निश्चित ही अपने जार बाप से युद्ध करना चाहिए। रणसुभे ‘नई धारा’ के अपने लेख में कह रहे हैं–‘इस पूरे विवेचन (अक्करमाशी की समीक्षा) में दहिया जी ने दलित स्त्री को कठघरे में खड़ा किया है, न कि तत्कालीन समाज व्यवस्था को। व्यवस्था की क्रूरता को वे समझ नहीं पा रहे हैं।’ इनकी इस लिखत पर क्या कहा जाए, ये जानते-बूझते अनजान बनने का नाटक जो कर रहे हैं। क्या इन्हें सचमुच नहीं पता कि ‘अक्करमाशी’ की आलोचना में ‘द्विज जार व्यवस्था’ को ही कठघरे में खड़ा किया है। और हाँ, बड़ा सच यही है, ‘जिस दिन दलित स्त्रियों का गैर-जातों द्वारा यौन शोषण रुक जाएगा, उस दिन यह घोषणा कर दी जाएगी कि अब दलित जातियाँ दासता ये पूर्णतया मुक्त हो गई हैं।’ ‘प्रेमचंद : सामंत का मुंशी’, डॉ. धर्मवीर, 2007, (पृ.-71) तो रणसुभे जी दलित चिंतक द्वारा लिंबाले की माँ के जारकर्म को ले कर उठाए सवालों का जवाब दें। इधर-उधर की करने से बात नहीं बनने वाली। इन्होंने शरण कुमार के अपने जार बाप के सरनेम को लेकर चलने के सवाल पर चौड़े होकर पूछा है कि मैंने ‘किसी कुमार के साथ इनके जार बाप का जो लिंबाले सरनेम लगाया था, उसे ये अब तक क्यों ढो रहे हैं? फिर इन्हें बताया जा सकता है, दलित चिंतन साहित्य में डी.एन.ए. टेस्ट ही तो कर रहा है, जिसमें व्यास, कर्ण और लिंबाले जैसी जारज औलादों के ढूह लगे पड़े हैं। ‘दलित विमर्श’ इनको इनके सही ठिकानों पर ही तो भेज रहा है।

जी हाँ, यह बिल्कुल सही है कि शरण कुमार को अपनी माँ के जारकर्म के खिलाफ युद्ध लड़ना चाहिए था। ताकि आगे से कोई और लिंबाले ना पैदा होता। तभी इनकी लड़ाई के कुछ मायने होते। अभी तो कोई और लिंबाले फिर किसी मसायी से जारकर्म में लिप्त रहकर किसी दलित से अपना बच्चा पचवाएगा। अगर ये अपनी जारिणी माँ के खिलाफ लड़ते तो किसी मसायी की किसी लिंबाले के साथ जारकर्म में गिरने की हिम्मत नहीं पड़ती। रणसुभे चाह रहे हैं कि ‘जारकर्म’ में लिपटी एक ‘घृणित स्त्री’ को पूजनीय स्त्री के रूप में देखा जाए! फिर, ये जिसे ‘लचर तर्क’ बता रहे, क्या इन्हें सचमुच पता नहीं कि हर बच्चे के माँ-बाप होते हैं? अक्करमाशी की लड़ाई क्या है? अक्करमाशी अपने बाप को ही तो ढूँढ़ता फिर रहा है। वह बाप क्या बनेगा, जिसे पति बनने से ही बुखार चढ़ जाता है। इन्होंने न जाने कैसे दलित और ब्राह्मण की साहित्यिक लड़ाई को तलवार की लड़ाई समझ लिया है? यह सर्वविदित तथ्य है कि इस देश में लड़ाई दलित और ब्राह्मण के बीच है। पर यह लड़ाई केवल वैचारिक है, इसमें गलत क्या है? एक तरफ द्विज या ब्राह्मण मनु का चिंतन है तो दूसरी तरफ आजीवक कबीर साहेब का। इनमें सीधी लड़ाई जारकर्म के पक्ष और विरोध की है। द्विज परंपरा जारकर्म के पक्ष की है और आजीवक परंपरा में जारकर्म का विरोध ही विरोध है। डॉ. धर्मवीर के रूप में आजीवक परंपरा ने यह लड़ाई जीत ली है। ये हमें मनु बता रहे हैं? पूछा जाए, कोई चमार भला ब्राह्मण कैसे हो सकता है?

आगे इन्होंने बाबा साहेब डॉ. भीमराव अम्बेडकर का नाम लेकर लिखा है–‘डॉ. अम्बेडकर बार-बार लिख रहे थे कि मेरी लड़ाई ब्राह्मणों के साथ नहीं अपितु ब्राह्मण (श्रेष्ठत्व की ग्रंथि से, दूसरी जाति को अपमानित करने की मानसिकता) से है। यह ब्राह्मण फिर किसी में भी क्यों न हो।’ हमें पता नहीं डॉ. अम्बेडकर किस ब्राह्मण से लड़ रहे थे? यहाँ पंजाब राव मेश्राम का कथन उद्धृत किया जा सकता है, जो इन्होंने फेसबुक पर ब्राह्मण और ब्राह्मणवाद के मेरे सवाल पर बहस में हिस्सा लेते हुए लिखा है–‘कुछ और हो सकता है पर ब्राह्मण के बिना ब्राह्मणवाद नहीं हो सकता। ब्राह्मणवाद से ब्राह्मण घटा दो तो कुछ नहीं बचता केवल वाद बचता है। और बिना किसी विचारधारा के वाद अर्थहीन होता है बेमतलब हो जाता है।’ मेश्राम जी के इस वाक्य से कोई और नहीं बल्कि बाबा साहेब डॉ. भीमराव अम्बेडकर का कथन घेरे में आ जाता है। पता नहीं बाबा साहेब किस ब्राह्मण से लड़ रहे थे? डॉ. अम्बेडकर कौम को पराजित करवाने की लड़ाई लड़े रहे थे क्या?

असल में हो क्या रहा है, कल तक खुद को गर्व से मनु की संतान कहकर दलितों पर कहर ढाने वाले आज दलितों को मनुवादी घोषित करते फिर रहे हैं। जबकि किसी भी दलित के लिए मनु के साथ अपना नाम जोड़े जाना बेहद आपत्तिजनक बात है। असल में, ब्राह्मण खुद को बचाने के लिए दलितों में ‘ब्राह्मणवाद’ ढूँढ़ना शुरू कर देता है। डॉ. धर्मवीर इस बारे में पहले ही चेता चुके हैं, वे लिखते हैं–‘हिंदू चिंतन की मूर्त और अमूर्त वाली भेदबुद्धि अपना असर हर जगह छोड़ती है। एक सीधी-सी बात मानने को तैयार नहीं होते कि ब्राह्मणवाद केवल ब्राह्मण के पास होता है। मुसलमान या ईसाई के पास नहीं।’ डॉ. साहब आगे बताते हैं–‘किसी चर्चा या अध्ययन में जब ‘ब्राह्मण’ और ‘ब्राह्मणवाद’ के शब्दों को प्रयोग किया जाता है तो इसमें कुछ भी नया और गलत नहीं है। ब्राह्मण और ब्राह्मणवाद दोनों सच्चाइयाँ हैं। ये शब्द ऐसे ही हैं जैसे मुसलमान और इस्लाम, ईसाई और ईसाइयत, जैनी और जैन धर्म। आश्चर्य है कि ब्राह्मण लोग सीधे संबोधित होना नहीं चाहते जबकि वे अपने नामों के पीछे ब्राह्मण सूचक उपनाम लगाते हैं। भला, दुनिया में ऐसे किसी अन्य धर्म के लोग होंगे जो अपने धर्म और वाद से लुके-लुके फिरते हों? मुसलमान में मुसलमानियत होती है और ईसाई में ईसाइयत होती है–मुसलमान और ईसाई ऐसी बातें सुनकर बहुत खुश होते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि वे कथनी और करनी में अंतर नहीं करते। एक ब्राह्मण है जो ऐसा सुनकर झगड़ने लगता है कि ब्राह्मण में ब्राह्मणवाद होता है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि वह कथनी और करनी में अंतर रखना चाहता है। भला, मुसलमानियत गैर-मुसलमानों में और ईसाइयत गैर-ईसाइयों में कैसे पाई जा सकती है? बस, दुनिया में एक ब्राह्मण ही निराला आदमी है जो ब्राह्मणवाद की खोज गैर-ब्राह्मणों में करता है।’ तो मनुवाद का  दलित के लिए प्रयोग इन जैसों का नया जुमला नहीं है। आजकल हर ब्राह्मण दलितों में ब्राह्मणवाद ढूँढ़ता फिर रहा है। इसके लिए इसने जमीन-आसमान एक कर रखा है। अब जब वर्ण-व्यवस्था के धर्म की धज्जियाँ बिखेर दी गई हैं, तब इन्हें ‘वर्ण या जाति के परे जाकर’ सोचने की याद आ रही है। इन्हें कौन रोक रहा है वर्ण या जाति से परे जाकर सोचने के लिए? उम्मीद है इन्हें खुद के भीतर-बाहर का फर्क समझ में आ गया होगा।

बार-बार रणसुभे जैसे लोग दलित हितैषी का मुखौटा ओढ़कर बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर का नाम ऐसे लेते हैं मानो ये और बजरंग बिहारी तिवारी जाने कितने बड़े अम्बेडकरवादी हों! जबकि, डॉ. धर्मवीर से बड़ा कोई अम्बेडकरवादी हो ही नहीं सकता। ‘डॉ. अम्बेडकर की प्रभाववादी व्याख्या’ पुस्तक डॉ. धर्मवीर ने लिखी है न कि किसी तिवारी ने। ऐसे हैं ‘डॉ. अम्बेडकर के प्रशासनिक विचार’ नामक किताब किसने लिखी है यह सभी को भली-भाँति मालूम है। फिर ‘थेरीगाथा की स्त्रियाँ और डॉ. अम्बेडकर’ क्या कोई ब्राह्मण लिख सकता है? बता दिया जाए, ‘बालक अम्बेडकर’ नामक उपन्यास भी डॉ. धर्मवीर की ही देन है। ‘दलित विमर्श’ आज जहाँ पहुँच गया है, वह डॉ. अम्बेडकर के रास्ते ही आगे बढ़ा है। हाँ, अम्बेडकरवाद में हमें बुद्धवाद नाम का नकली माल पसंद नहीं। डॉ. धर्मवीर अम्बेडकर को इसकी असली राह आजीवक पर ले आए हैं, जिसमें वर्ण-व्यवस्था, पुनर्जन्म और संन्यास की धज्जियाँ बिखेर दी गई हैं। और, जारकर्म पर तलाक का प्रावधान इसका केंद्र-बिंदु है। इसी बात से हर ब्राह्मण ने जाने क्यों भयभीत हो जाता है?

इस बात में कोई दो राय नहीं है कि आज दलित जो पढ़-लिख पा रहे हैं, उसमें बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर की बड़ी भूमिका है। इस बात को ब्राह्मण ऐसे बताता है मानो कोई जादुई रहस्य खोल रहा हो!! वैसे ये यह भी बता देते कि अब तक दलित की पढ़ाई-लिखाई में कौन बाधा बन रहा था? किसने दलितों के पढ़ने-लिखने पर कानों में पिघला सीसा डालने का हुक्म दे रखा था? फिर बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर हमारे हैं और वे ही हमें आलोचना का अधिकार देकर गए हैं। अगर हम डॉ. अम्बेडकर की आलोचना कर रहे हैं तो इन जैसों को क्या तकलीफ है? जरा यह भी बता दें कि डॉ. अम्बेडकर किसकी व्यवस्था में पढ़ पाए थे? फिर, वर्णवादियों से युद्ध करना उन्होंने किससे सीखा था, इस बात पर भी ये कुछ प्रकाश डाल देते। ये ‘अक्करमाशी’ को अभिजात्य या क्लासिक रचना बता रहे हैं। सही में अक्करमाशी द्विज जीवन की क्लासिक रचना ही तो है। यह जारज व्यास की अक्करमाशी की कड़ी में जारज लिंबाले की आधुनिक महाभारत है। एक तरह से अक्करमाशी महाभारत का ही विस्तार है। यह द्विज जार परंपरा की परिणति है।

गे यह पूछा जाना है कि रणसुभे और तिवारी की जातीय पहचान के साथ आने वाले ऐसे लोग किस तरह डी-कास्ट हैं? फिर ये जातीय पहचान से डर क्यों रहे हैं? ब्राह्मण साहित्य की तरह दलित यानी चमार साहित्य अपनी पहचान के साथ आ रहा है। इस पर इन जैसों को तकलीफ क्यों हो रही है? यह अच्छी बात है कि ये डी-कास्ट होना चाहे रहे हैं। बता दिया जाए जिस दिन ब्राह्मण डी-कास्ट होगा उस दिन यह देश खुद-ब-खुद ही डी-कास्ट हो जाएगा। तब तक तो हम भी चमार हैं। वैसे लगता है, रणसुभे ने पूरी तरह भ्रम फैलाने का ठेका ले लिया है। ये कह रहे हैं कि हम शरण कुमार लिंबाले को ‘जार संतति कहकर अपमानित कर’ रहे हैं। कोई इनसे पूछे ‘अक्करमाशी’ का अर्थ क्या होता है? अक्करमाशी का अर्थ केवल और केवल जार संतति ही होता है। अपनी आत्मकथा का यह नाम किसी और ने नहीं खुद लेखक ने रखा है और इसके हिंदी अनुवादक रणसुभे महाशय खुद ही हैं।

वैसे, एक बात इनसे पूछी जा सकती है, अगर ‘अक्करमाशी’ ऐसी ही ‘अभिजात्य क्लासिकल’ रचना है तो ये क्यों नहीं इसे द्विज साहित्य का हिस्सा मानते? वैसे भी, पहले ही द्विज साहित्य में जारकर्म की कथाएँ भरी पड़ी हैं। इससे द्विज जार साहित्य समृद्ध ही होगा। दलित साहित्य में ऐसी रचनाओं और ऋचाओं के लिए कोई स्थान नहीं। दलित साहित्य मोरल्टी का साहित्य है। इसमें महान रैदास और कबीर की परंपरा की वाणी आती है। इन्हें आजीवक चिंतक डॉ. धर्मवीर की घरकथा ‘मेरी पत्नी और भेड़िया’ पढ़ लेनी चाहिए। तब इन्हें शायद कुछ समझ आए। दरअसल, रणसुभे जैसों की समस्या है कि ये बात को जानते-समझते हुए ऐसे दर्शाते हैं मानो इन्हें कुछ पता ही नहीं। इसकी आड़ में ये अक्करमाशियों को दलितों पर थोपना चाहते हैं, जबकि हम अक्करमाशी सहित मसामा को भी इन्हें सौंप रहे हैं।

इन्होंने बाबा साहेब डॉ. भीमराव अम्बेडकर को लेकर ऐसे लिखा है मानो ये बाबा साहेब के कितने बड़े समर्थक और खैरख्वाह हैं! पहली बात तो इसमें यही बतानी है कि बाबा साहेब हमारे हैं और हमारे रहेंगे। हम किसी ब्राह्मण या इसके गुलाम को बाबा साहेब की तरफ देखने भी नहीं देंगे। अगली बात इस पर यह बताई जा सकती है, अगर ये सही में डॉ. अम्बेडकर के प्रति रत्तीभर भी सम्मान रखते हैं तो जारकर्म के खिलाफ लड़ाई में हमारा साथ दें। इस नाते इन्हें फौरन शरण कुमार लिंबाले की माँ के जारकर्म पर उन्हें डपटना होगा और उसका विवाह हणमंता लिंबाले से करवाना होगा। डॉ. अम्बेडकर का नाम भर लेने से कोई अम्बेडकरवादी नहीं हो जाता। इन्हें बाबा साहेब के कानून मंत्री के पद से दिए इस्तीफे का अध्ययन करना होगा। यों, बताया जाए, अम्बेडकर के नाम की माला जपने वालों की रग-रग से हम वाकिफ हैं। इस बात की जानकारी रणसुभे ही नहीं शरण कुमार लिंबाले सहित सभी मराठी दलित लेखकों को पता होनी चाहिए। यहाँ पुनः बताया जा रहा है कि लिंबाले और ‘छोरा कोल्हाटी’ जैसों को दलित माना जाना ‘दलित विमर्श’ में हरगिज मंजूर नहीं। प्रकाश झा जैसे फिल्मकारों को भी अपनी सोच दुरुस्त कर लेनी चाहिए, जो अपनी फिल्मों में जारकर्म की औलादों को दलित दिखाते फिरते हैं। यहाँ यह कहने में तनिक भी हिचक नहीं है कि शरण कुमार लिंबाले द्विज जार सामंत की पैदाइश हैं। इसलिए ‘अक्करमाशी’ द्विज जार सामंत के बेटे की आत्मकथा है।

एक बात और इन जैसों को बताई जा सकती है, जो ये डॉ. अम्बेडकर का नाम ले कर दलितों के हित-चिंतक बनने की कोशिश कर रहे हैं। बाबा साहेब को मसायी जैसों के जारकर्म का पता लगते ही उनकी आँखों से आग बरसने लगती है। इतना ही नहीं हणमंता जैसों की तो हमारे बाबा साहेब की छड़ी खाल उधेड़ देती है।

रणसुभे ने जारिणी मसायी के प्रति जिस तरह की हमदर्दी दिखाई है उससे अच्छे-अच्छों को धोखे हो सकते हैं। असल में, जार परंपरा के लेखक ऐसी ही माया रचते हैं। पौराणिक जारिणियों का भी ऐसे ही समर्थन किया गया है। ये कोई अलग थोड़े ही हैं। पूछा जा सकता है, मसायी तो गुलाम दलित की पत्नी थी। मालिक के आगे दलित की क्या चलती। लेकिन, उज्ज्वला शर्मा, रमणिका गुप्ता और इंद्राणी मुखर्जी जैसी जारकर्म में क्यों गिरती हैं? फिर ये तो कुछ नाम हैं जो कभी-कभार सामने आ जाते हैं अन्यथा तो द्विज जार परंपरा में उज्ज्वलाओं और रमणिकाओं की लाइन लगी पड़ी है। इधर द्विज लेखकों का काम इन जैसों को बचाना है। पाठक को ऐसे लेखकों के बारे में बताने की जरूरत नहीं होनी चाहिए। वैसे ये बताएँगे कि मसायी को जारकर्म में गिरने की क्या मजबूरी थी? एक मसायी ही क्यों, ये किसी भी बुधिया के जारकर्म की सच्ची कहानी लेकर हमारे सामने आएँ। तभी आगे बात होनी है। वर्तमान में तो ये इंद्राणी मुखर्जी के जारकर्म की खोज कर सकते हैं।

किसी को भ्रम ना रहे, यहाँ जारिणी के बारे में बताया जा सकता है। जारिणी घर को वेश्यालय में तब्दील कर देती है। उधर वेश्या का कोई पति नहीं होता जिसे मरना पड़े। जारिणी के भय से भले आदमी को घर छोड़कर वन-वन भटकना पड़ता है। नहीं तो डॉ. तुलसी राम के पिता की तरह रेल की पटरी पर कटे मिलने की खबर मिलती है। ऐसे भले लोगों, वह भी केवल दलित को बचाने के लिए ही तो आजीवक चिंतक डॉ. धर्मवीर जारकर्म पर तलाक की बात कहते हैं। हमारे विट्ठल कांबले तलाक की वजह से बच गए, वरना तो जारिणी अपने जारों के साथ मिलकर उन्हें मरवा सकती थी।

अन्य सवालों की तरह मेरी इस बात पर कि ‘मसायी और हणमंता लिंबाले’ यानी जारिणी और जार का विवाह किया जाए साथ ही यह भी कि विट्ठल कांबले को हणमंता की बीवी मिलनी चाहिए, से रणसुभे चकरा गए हैं। ये इधर-उधर की हाँकने लग गए हैं। पूछा जा सकता है, इसमें गलत क्या है, जारिणी मसायी अपने जार से छुप-छुप कर मिल रही है। हम तो दोनों का विवाह करवाने की ही तो कह रहे हैं। ये लिख रहे हैं, ‘आज से 50-60 वर्ष पूर्व क्या यह संभव था?’ चलिए, हम इनकी ही मान लेते हैं। कहना यह है अगर तब यह संभव नहीं था तो आज ये शरण कुमार लिंबाले के साथ मिलकर ‘मसायी और हणमंता’ की कोर्ट मैरिज करवा दें। वैसे भी अभी रोहित शेखर नाम के ब्राह्मण अक्करमाशी ने अपनी माँ उज्ज्वला शर्मा का एन.डी. तिवारी से विवाह करवाया ही है। अब इसमें अगला सवाल जो रणसुभे से पूछना है, वह यह कि तब शरण कुमार किस जाति के ठहरते हैं? इसीलिए यह अकाट्य सत्य है कि ‘अक्करमाशी’ द्विज जार सामंत के बेटे की आत्मकथा है, जिसे दलित साहित्य के नाम पर पाठ्यक्रम में पढ़ाने नहीं दिया जाएगा। द्विज इस आत्मकथा को रस ले-लेकर पढ़ने को अभिशप्त रहेंगे। ऐसे ही ‘छोरा कोल्हाटी का’ और ‘उच्लया’ नामक आत्मकथा के बारे में बता दिया गया है।

अगली बात इसमें जो रह जाती है, वह है हणमंता लिंबाले की बीवी की, जो जार के साथ सोने को अभिशप्त रहीं। असल में यह बलात्कार की श्रेणी में ही आता है। तभी तो द्विज बलात्कार के खिलाफ सख्त कानून की बात आते ही बोलना शुरू कर देते हैं। वे कहते हैं कि कल को कोई स्त्री अपने पति पर ही बलात्कार का आरोप लगा दे तो! अब अगर हणमंता लिंबाले की पत्नी अपने इस जार पति पर बलात्कार का आरोप लगाए तो इसमें गलत क्या है? वैसे, अगर ये भद्र महिला रहीं तो इनका विवाह विट्ठल कांबले से ही होना चाहिए। लेखक महोदय से यह भी पूछने का मन करता है, क्या हणमंता ने मसायी को वस्तु की तरह नहीं भोगा?

रणसुभे पूछ रहे हैं कि मैंने किस आधार पर लिंबाले को लिंगायत माना है? मैं क्या सारी दुनिया जानती हैं कि लिंबाले लिंगायत होते हैं और शरण कुमार ने आज तक इस सरनेम को अपने माथे पर लगा रखा है। दूसरे, इनका यह कहना हास्यास्पद है, ‘लिंबाले तो डंके की चोट पर खुद को दलित कहते हैं।’ इन्हें लिंबाले की लिखत से ही बताया जाए, लिंबाले ने लिखा है, ‘मेरा बाप लिंगायत। उसके दादा-परदादा भी लिंगायत, इसलिए मैं लिंगायत!’ अब आगे की बात रखते हुए पूछा जा सकता है कि कल को लिंबाले खुद को लिंगायत घोषित कर देंगे, तब ये क्या करेंगे? इनके यह लिखने पर कि ‘ये दलितों की जिन यातनाओं व्यथाओं को भोग चुके हैं उसके रत्तीभर भी दहिया जी ने भोगा नहीं होगा।’ यही कहा जा सकता है कि दलितों में लिंबाले नहीं पाए जाते। हर दलित के बच्चे के जैविक माता-पिता होते हैं। अक्करमाशी द्विज परंपरा में पाए जाते हैं। दलित जीवन से अक्करमाशियों का कुछ भी लेना-देना नहीं है। हाँ, लिंबाले के यातना और व्यथा भरे जीवन से दलितों को असीम सहानुभूति है। पूछा यह भी जा सकता है, शरण कुमार लिंबाले को द्विज साबित कर देने का यह मतलब कहाँ निकलता है कि लिंबाले से दलितों का किसी तरह का बैर है, हाँ, यह जरूर कहा जा सकता है कि द्विज लिंबाले को दलित विषयों पर बोलने का रत्तीभर भी अधिकार नहीं।

ये पूछ  रहे हैं, ‘यह जारकर्म के खिलाफ लड़ाई से क्या तात्पर्य है?’ दरअसल, यह ऐसी बात है जो किसी भी द्विज को कभी समझ में नहीं आ सकती और जिसे ये समझना भी नहीं चाहते। समझें भी क्यों, इनकी तो परंपरा ही जारकर्म की है। इनके घरों में जारकर्म सामान्य नियम की तरह जो चलता है। अगर ऐसा नहीं है तो आज तक किसी द्विज ने जारकर्म के खिलाफ कुछ लिखा-बोला हो, तो बताएँ? यहाँ यह भी बताया जा सकता है, जारकर्म में संलिप्त हर व्यक्ति को चौबीसों घंटे जारकर्म के ही सपने आते हैं। फिर चाहे वह मसायी हो या अन्य कोई। इनसे यह पूछा जाए, मोरल की बात करने वाला ‘विकृत मस्तिष्क’ का होता है या जारकर्म का इन जैसा समर्थक मस्तिष्क? फिर, यह कौन कह रहा है मसायी शरण कुमार की माँ नहीं थी? क्या गलत स्त्री की आलोचना नहीं की जाएगी? असल में, रणसुभे मातृत्व और जारकर्म को मिलाकर घालमेल करना चाहते हैं। ये मुद्दे को भटकाना चाहते हैं। कहना यह है कि जारिणी भी जार से गर्भा हो कर माँ बनती है। जार से पैदा बच्चे को अपने बाप का पता तक नहीं होता, जिसके लिए शरण कुमार सारी जिंदगी जूझे हैं। ऐसे बच्चे जिस हीनता-ग्रंथि में पलते हैं, उसके बारे में इन जारकर्म समर्थक लेखक महोदय को बताना चाहिए। फिर, इन्हें अगर ऐसी संततियों के प्रति प्रेम उमड़ रहा है तो ये क्यों लिंबाले को दलित मानने की जिद्द पर अड़े हैं? ये मान-मनौवल से ऐसी औलादों को अपने घरों में ले जाएँ और उनका पालन-पोषण करें। कहना यह भी है कि क्या लिंबाले ने एक बार भी अपनी माँ के जारकर्म पर सवाल खड़ा किया? एक बार तो मसायी से पूछ लिया होता कि वह जारकर्म में क्यों गिरी? यहाँ बताया जा सकता है, ऐसी मसायियों ने ही दलितों को गुलाम बनवाया हुआ था। स्वतंत्रता की कोई भी लड़ाई वगैर स्त्री के अधूरी रहती है। जारिणी स्त्री की दलितों में कोई जगह नहीं। उसे तलाक देकर सामंत के पास भेज दिया जाना है। हमारी मोरल स्त्रियाँ इस युद्ध में हमारे साथ कंधे से कंधा मिला कर खड़ी है। रणसुभे इन बुधियाओं का जो करना है करें।

इन्होंने लिखा है ‘शरण केवल मनुष्य के रूप में जी रहे हैं?’ ये आगे लिखते हैं, ‘इसी कारण वे खुद की पहचान की लड़ाई लड़ते हैं।’ अब इनसे पूछा जाए, अगर शरण केवल मनुष्य के रूप में जी रहे हैं तब फिर किस पहचान की जरूरत है? यानी शरण कुमार को कोई पहचान चाहिए ही। शरण कुमार का द्विज सामंत लिंबाले का सरनेम ओढ़ना उनकी पहचान का मामला ही तो है। उधर, वे ‘अक्करमाशी’ के नाम पर दलित साहित्य में गंदा फैलाना चाहते हैं। दो पहचान एक साथ कैसे चलेगी? कहना यही है कि अक्करमाशी के रूप में भी शरण कुमार लिंबाले ही होते हैं और अक्करमाशियों का दलित जीवन से किसी भी तरह का कोई संबंध नहीं। जहाँ तक मनुष्य के रूप में जीने की बात है तो हम न तो जारिणी को कुछ कह रहे हैं और न ही किसी को सती होने के लिए धकेल रहे। हम तो जारिणी को तलाक देकर उसे उसके जार के पास भेजकर दोनों को जिम्मेवार बना रहे हैं। और, किसी अक्करमाशी का अपनी जारिणी माँ से उसके जारकर्म पर सवाल नहीं उठाने का मतलब होता है जारकर्म का समर्थन। लेखक ना-मालूम किस खुशफहमी में हैं? यह रणसुभे महोदय की समझ की सीमा भी हो सकती है।

ये पूछ रहे हैं–‘स्त्री-पुरुष संबंधों (जार संबंधों से) से जन्मे बालक/बालिका का अपराध क्या है? इनकी इस बात को ब्राह्मण की चालाकी के रूप में देखा जाना चाहिए। कौन कह रहा है ऐसे बालक का कोई अपराध होता है? अपराधी तो जार-जारिणी होते हैं। क्या उन्हें अपनी अक्करमाशी औलाद का लालन-पालन नहीं करना चाहिए? आजीवक चिंतक डॉ. धर्मवीर यही तो कह रहे हैं जार अपनी औलाद को पाले। निरीह पति दूसरे की औलाद को क्यों पाले। दलित पति तो हरगिज ऐसी संतति को नहीं पालने वाला। असल में ऐसे बच्चे द्विज परंपरा में पैदा होते हैं। ये ही जाने अक्करमाशियों का क्या करना है। हम तो पला-पलाया अक्करमाशी इन्हें दे रहे हैं। ये इसे तक तो स्वीकार करने को तैयार नहीं लेकिन ये अक्करमाशी पैदा जरूर करेंगे। पाले कोई और क्यों? जरा ये यह भी बता दें, ‘मजबूरी से अथवा प्रकृति के दबाव से अगर किसी स्त्री का किसी पुरुष से संबंध’ से इनका क्या तात्पर्य है? मसायी की क्या मजबूरी थी या प्रकृति ने उस पर किस तरह का दबाव डाला था?

रणसुभे लिख रहे हैं, ‘सुंदर स्त्री अगर गरीब हो, असहाय हो, मजबूर हो तो उसका फायदा पुरुष वर्ग उठाता ही है।’ पहली बात, इस लिखत का जवाब विमल थोराट, रजनी तिलक और अनिता भारती को देना चाहिए, जिन्होंने बुधिया के जारकर्म की बात पर डॉ. धर्मवीर पर जूते-चप्पल चलाए हैं। दूसरे, इनके इस कथन में स्वीकारोक्ति सुनाई पड़ती है कि मसायी जारकर्म में थी और तीसरी, यह कि द्विज पुरुष सामंत के पूरे प्रतीक ठहरते हैं। ये लिख रहे हैं; ‘असहाय स्त्री के लिए यह (जारकर्म का विरोध) संभव है…?’ उधर, प्रखर चिंतक डॉ. धर्मवीर ने लिखा है–‘सच्चाई यह है कि गैर-जातों के पुरुषों द्वारा दलित स्त्रियों का यौन-शोषण दलित जातियों की दासता की तीव्रता नापने का बैरोमीटर है। जिस दिन दलित स्त्रियों का गैर-जातों द्वारा यौन शोषण रुक जाएगा, उस दिन यह घोषणा कर दी जाएगी कि अब दलित जातियाँ दासता से पूर्णतया मुक्त हो गई हैं।’ यों, देखा जाए तो मसायी ने विट्ठल कांबले को गुलाम बनवाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। अगर कांबले के पास तलाक का अधिकार नहीं होता तो उसे हणमंता लिंबाले नामक द्विज सामंत का गुलाम बनके ही रहना पड़ता और उसके जारकर्म की पैदाइशों का भरण-पोषण करना पड़ता। डॉ. धर्मवीर इसे ही दुनिया की सबसे बड़ी गुलामी कहते हैं। वैसे इनकी बात को इस रूप में देख सकते हैं, यह देश पिछले 2500 सालों से गुलाम रहा है। इस संदर्भ में इनके कथन को हम ज्यों का त्यों मानने को स्वतंत्र हैं। इसी क्रम में इन्होंने जानना चाहा है कि ‘क्या जारकर्म में स्त्री की पूर्ण सहमति होती है?’ इनके माध्यम से सभी को बताया जा सकता है, जारकर्म के लिए अगर कोई जिम्मेदार है तो केवल और केवल स्त्री। स्त्री की सहमति के वगैर जारकर्म संभव ही नहीं फिर चाहे स्त्री दलित हो या द्विज। द्विजों ने तो जारकर्म को अपनी जीवन-शैली बना रखा है। इसीलिए ये जानते-समझते हुए जारकर्म को अनदेखा करके चलते हैं। इधर कोई दलित बुधिया-मसायी जारकर्म में गिर जाती है तो उसका समाधान हमने तलाक के रूप में ढूँढ़ रखी है। दूसरे, ये बलात्कार को जारकर्म से जोड़कर देख रहे हैं। इन्हें मालूम होना चाहिए बलात्कार में पशुवत पुरुष की जोर-जबरदस्ती होती है इसके विपरीत जारकर्म जारिणी स्त्री की सहमति के वगैर संभव ही नहीं है।

फिर, ये न जाने स्त्री पर किन अत्याचारों की बात कर रहे हैं? अगर इनका इशारा दहेज हत्या, सती-प्रथा, कन्या भ्रूण हत्या आदि की तरफ है तो बता दिया गया है कि ये द्विजों की बीमारियाँ हैं जिनसे दलितों का कुछ भी लेना-देना नहीं। जहाँ तक ‘तलाक देने से स्त्री पर होने वाले अत्याचारों (?) में क्या कमी होगी’ की बात है तो बताया जा सकता है, तलाक के बाद बुधिया को जमींदार की चौखट पर ही जाना होगा। यह जानते-समझते हुए जार की पिंडलियाँ थर्र-थर्र काँपने लगती हैं। जारिणी बुधिया-मसायी के साथ जार से पैदा बच्चे भी जमींदार की चौखट पर धरने पर बैठेंगे। निश्चित ही तलाक से माधव जैसों को जारिणी से छुटकारा मिलेगा। जारिणी को भी अपने जार से छुप-छुप के मिलने की जरूरत नहीं रह जाएगी और न ही बुधिया को प्रसव में मरना पड़ेगा। बेहद भोले बनकर इन्होंने लिखा है, ‘मैं अभी भी समझ नहीं पा रहा हूँ कि ‘अक्करमाशी’ कैसे एक द्विज की या सवर्ण की आत्मकथा ठहरती है।’ असल में, इनके भोलेपन में ही सारा राज छुपा हुआ है। इन्हें पता है कि लिंबाले को स्वीकारते ही सारे अक्करमाशी इनके घरों में पहुँच जाएँगे। तब भला ये क्यों मानेंगे कि अक्करमाशी द्विज की आत्मकथा है। इन्हें बता दिया जाए, शरण कुमार को जो दुत्कार मिली है वह उनके अक्करमाशी होने की वजह से मिली है। जो नहीं होना चाहिए। शरण कुमार की तो कोई गलती नहीं है। फिर लेखक ने शरण कुमार की माँ की तरफ से तो रिश्तेदारी गिना दी है। इन्हें जार बाप की रिश्तेदारी का भी खुलासा करना चाहिए। अपनी द्विज जार परंपरा की रौ में बहकर ये लिख गए हैं, ‘तब तो अनेक सवर्णों (द्विजों) को भी दलित घोषित करना पड़ेगा।’ अब इस बात को ये खुद जाने-समझें। हम तो कह ही रहे हैं कि द्विज जार परंपरा है ही ऐसी। वैसे सूरजपाल चौहान की आत्मकथा में इस बात का खुलासा मिलता है कि कैसे ठकुराइन हमारे भंगी से गर्भा होती हैं। हम तो बता ही रहे हैं, द्विज जार परंपरा में जार-जारणियों की लाइनें लगी हुई हैं।

यह अकाट्य तथ्य है कि द्विज ‘दलित साहित्य’ की एक लाइन भी नहीं लिख सकते। दलित साहित्य में रणसुभे और बजरंग बिहारी तिवारी जैसों की पहचान घुसपैठियों के तौर पर की जा चुकी है। वैसे पूछना यह है कि ये दलित साहित्य में घुसपैठ क्यों बनाना चाहते हैं? फिर अगर हमारे बाबा साहब डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने कोई गलती कर दी है तो क्या उसे सुधारा नहीं जाएगा? अंतरजातीय और प्रेम विवाह दलित कौम के लिए घातक सिद्ध हुए हैं। दलित चिंतन ने इसे पहचान कर डॉ. अम्बेडकर की गलती को भी दुरुस्त कर दिया है। रणसुभे जैसे ही डी-कास्ट के नाम पर अक्करमाशियों को बहका सकते हैं। दलित चिंतक इन जैसों के बहकावे में आने वाले नहीं। बताया यह भी जा सकता है, दलित साहित्य कोई चिड़िया उड़ाने का खेल नहीं। असल में, रणसुभे मराठी से हिंदी अनुवाद के नाम पर गुंडे-मवालियों और जारकर्म की संततियों के लेखन को ‘दलित साहित्य’ पर थोपना चाह रहे हैं। ये जान लें, इनकी किसी भी रणनीति को चलने नहीं दिया जाएगा। एक नियम बनाया जा सकता है कि इन जैसों के अनुवाद को भी दलित साहित्य माना ही नहीं जाए। वैसे भी, द्विज भला ऐसा लेखन क्यों आने देंगे जो इनकी जारकर्म की व्यवस्था को नेस्तनाबूद करता है। देवेंद्र चौबे जैसे तभी तो कहते हैं, ‘हम डॉ. धर्मवीर का लेखन ही गायब करवा देंगे।’

हना यह भी है, हमारे दलित विद्यार्थी जारकर्म के समर्थन से भरे इस तरह के लेखन को ध्यान से देखें-समझें। जहाँ तक बाकी के मराठी दलित लेखन की बात है तो वह हमारा ही है। हाँ, नवबौद्धों के लेखन का दलित साहित्य में प्रवेश निषेध है। वे अपने बौद्ध साहित्य में रमें, उसे जानें, समझें। दलित साहित्य में द्विज जारकर्म की व्यवस्था के किसी भी तरह के लेखन के लिए कोई स्थान नहीं।

यों, इनका पूरा लेख जारकर्म के समर्थन में लिखा गया है। लिखे भी क्यों ना, वे अपनी परंपरा को कैसे छोड़ सकते हैं। हम तो केवल यही कह सकते हैं जारिणी मसायी के लौंडे को उसके जार बाप से अधिकार दिलवाए जाएँ। मगर इसमें उनके वकील गलत दरवाजा खटखटा रहे हैं। दरअसल, इस लेख में रणसुभे के रूप में हणमंता राव लिंबाले ने अपना पक्ष रखा है। इसमें इनका जार चेहरा सामने रहना ही था। जार अपने जारकर्म की बात नहीं करता बल्कि वह जारिणी और अक्करमाशी के नाम पर अपने जारकर्म को सही ठहराने की कोशिश करता है। यों, पहले रणसुभे महोदय ने ‘अक्करमाशी’ से उसकी कथा लिखवाई है। अब ये जार का पक्ष रख रहे हैं। अच्छा होगा, अगर ये मसायी से भी उसके जारकर्म की कथा लिखवा लें। तब जारकर्म की ऐतिहासिक कथा सामने आ जाएगी।


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कैलाश दहिया द्वारा भी