बहुजन का सर्वनाम

बहुजन का सर्वनाम

मानवता के इतिहास में बुद्ध के दर्शन का अद्वितीय प्रकाश चारों तरफ देदीप्यमान है। बिना किसी आडंबर के मनुष्य की सर्वोपरि सत्ता को पहली बार किसी व्यक्ति ने केवल मान्यता ही नहीं दी बल्कि उसे सर्वोच्च शिखर पर स्थापित कर दिया। बुद्ध का यह स्पष्ट कथन है कि उनके द्वारा संपादित या सिखाये गए धम्माचरण की धुरी ईश्वर एवं व्यक्ति के बीच में नहीं घूमती–यह धुरी मानव एवं मानव के बीच में ही घूमती है। दूसरे शब्दों में यह धुरी प्रज्ञा, शील और समाधि की है जिसमें सम्यक दृष्टि, सम्यक संकल्प, सम्यक वाणी, सम्यक कर्मांत, समयक आजीविका, सम्यक व्यायाम, सम्यक स्मृति एवं सम्यक समाधि पर आधारित आठ अंगों वाला संपूर्णतया संप्रदाय-निरपेक्ष्य धम्म-मार्ग है। यह दुखी को दु:ख-विमुक्त कर सकता है, रोगी को निरोग बना सकता है, अशांत को शांत बना सकता है, मैले को निर्मल बना सकता है, पतित को पावन बना सकता है, निर्बल को सबल बना सकता है, भयभीत को निर्भीक बना सकता है, निर्दयी को दयावान तथा दुर्जन को सज्जन बना सकता है–अर्थात, मानव को सच्चा मानव बना सकता है। यह ईश्वरीय सत्ता के अदृश्य और दुरूह कर्मकांडों से कहीं परे का उपाय है। ईश्वर की सत्ता को अस्वीकार करने का मात्र यही कारण है कि–जिसे हमने देखा नहीं, जाना नहीं, उसे स्वीकार करना या नकारना कोरी बकवास और निरर्थक जुबानी जमाखर्च है। यह केवल काल्पनिक शब्द-संयोजन है जिसकी जैविक उपस्थिति या अनुपस्थिति का प्रश्न भी मूर्खतापूर्ण है। मनुष्य के जो दुःख हमारे सामने हैं उन्हें छोड़कर कहीं अन्यत्र की काल्पनिक दुनिया में विचरण करना सच को पूरी तरह नकारने जैसा है। इसीलिए इस जीवन के दुःख-सुख, हानि-लाभ अथवा प्रत्यक्ष दिखाई देते अन्य कार्य-व्यापार; जिनसे हमारी भौतिक और मानसिक अवस्थाएँ कहीं न कहीं से प्रभावित होती हैं, ही सत्य हैं।

मानव जीवन को अधिक सुखी और संतुष्ट बनाने के सिलसिले में ही बुद्ध ने चार सार्वभौम सत्य की पहचान की तथा संपूर्ण मानवता के लिए उसे उद्घाटित किया–1. दुनिया में दुःख है, 2. दुःख-उपस्थिति का कोई न कोई मूलभूत कारण है, 3. दुःख का निवारण है तथा 4. दुःख के निवारण के लिए मार्ग है। ये हैं जीवन जगत में भगवान गौतम बुद्ध के मूल उपदेश की सच्चाइयाँ जिसमें कोरी कल्पना पर आधारित दार्शनिक मान्यता को मनवाने का न कोई आग्रह है, न किसी कर्मकांड द्वारा अंधभक्ति का बंधन। यहाँ किसी जातीयता या सांप्रदायिकता में फँसने की उलझन भी नहीं है। इससे अधिक उपयोगी बात और क्या हो सकती है कि रोगी अपना रोग जाने, रोग का मूल कारण जाने, उस रोग का निवारण जाने और उस रोग के इलाज की सही दवा लेकर उपचार करे। मौलिक रूप से यही चार बातें किसी भी समस्या के समाधान के लिए वैज्ञानिक रूप से उपयोगी जान पड़ती हैं।

व्यापक अर्थों में दुःख के कारणों की विशद विवेचना करें तो स्पष्ट हो जाता है कि दुनिया में व्यक्ति केवल अपने शारीरिक एवं मानसिक दुःखों से ही पीड़ित नहीं है बल्कि अपने लिए वांछित जायज़ हक़ से दूसरों द्वारा वंचित हो कर भी वह दुःख और पीड़ा का शिकार होता है। इस प्रकार पीड़ित तथा पीड़ा देने वाले लोगों का दो तरह के वैचारिक एवं भौतिक अवयवों के रूप में वर्गीकरण होता है। कदाचित् जनता के अधिसंख्य समूह को एक छोटे समूह द्वारा पीड़ित किया जाता देखकर ही इस तरह के वर्गीकरण को मान्यता दी गई होगी। भगवान बुद्ध भिक्षुओं को निर्देशित करते हुए कहते हैं ‘चरथ भिक्खवे चारिकं, बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय, लोकानुकम्पाय च’ अर्थात भिक्षुओ! अपनी चारिका में चारों दिशाओं में चलते रहो–बहुत से लोगों के हित के लिए बहुत से लोगों के सुख के लिए तथा लोक पर अनुकंपा के लिए। अज्ञान के अँधेरे में भ्रमित जनता तक ज्ञान की ज्योति फैलाने के लिए भिक्षुओं के उस बहुसंख्य वंचित जन को ज्ञान का उजाला दिखाकर पीड़ा के अँधेरे से मुक्ति दिलाई जा सकती है।

सवाल उठता है कि बुद्ध ने केवल बहुत से लोगों के हित और सुख के लिए ही भिक्षुओं को निर्देश क्यों दिया? ऐसी आशंका व्यक्त की जा सकती है कि एक समाज वैज्ञानिक, दार्शनिक और उद्धारक के रूप में उन्हें सभी लोगों के हित की बात करनी चाहिए थी। किंतु यह बहुत सीधी बात है कि यदि समाज में दो वर्ग हैं–एक दुःख देने वालों का और दूसरा दुःख भोगने वालों या सहने वालों का, फिर दोनों वर्गों को सुखी देखने का क्या प्रयोजन हो सकता है? क्या आततायी, आक्रामक, आक्रांता एवं वंचक वर्ग को सुखी देखने का तात्पर्य प्रकारांतर से दुःखी वर्ग को केवल उनकी यथास्थिति में बनाए रखने का अर्थ ही व्यक्त नहीं करता? क्या कोई मारने वाले व्यक्ति का भी समर्थन करे और जो मारा जा रहा हो उसे बचाने का भी प्रयास करे, ऐसा संभव है? इससे भी बढ़कर हास्यास्पद यह है कि ऐसे व्यवहार की घोषणा करते हुए हम किस प्रकार के सामाजिक उत्थान को अवलंब देने की वकालत करते हैं। निश्चित ही बहुजन को सर्वजन में तब्दील नहीं किया जा सकता। यह भ्रम धारणा है। यह मिथ्या धारणा है। यह धोखा देने का शाब्दिक प्रपंच है। यह कथनी एवं करनी के अंतर को उजागर करता वक्तव्य है। इस तरह के वक्तव्य बुद्ध के यहाँ नहीं हैं। वहाँ कथनी और करनी एक ही है। वहाँ भिक्षु एवं शास्ता एक ही है। वहाँ जो भिक्षु के लिए अभीष्ट है, वही बुद्ध के लिए भी है। भिक्षु जिसका पालन करता है, उसी को उपदेशित करता है। यह ‘बहुजन हिताय और सर्वजन हिताय’ के निहितार्थ को समझाने के लिए पर्याप्त है।

प्रश्न उठाया जा सकता है कि धम्म के ही एक सूत्र के अनुसार सभी सत्ताओं को सुखी देखने की कामना क्या सर्वजन हिताय को व्यक्त नहीं करती? सूत्र इस प्रकार है–‘सब्बे सत्था सुखी होन्तु, सब्बे होन्तु च खोमिनो। सब्बे भद्राणि पस्संतु माकञ्चि दुक्खमागमा।’ ध्यान देने की आवश्यकता है कि सभी सत्ताएँ सुखी हों, सब कुशल-क्षेम से रहें, सब कल्याण की दृष्टि से देखें, किसी को दु:ख प्राप्त न हो–यहाँ ऐसी कामना की गई है। सभी सत्ताओं में जीव जगत के साथ-साथ उन सारी प्रकृति प्रदत्त चल-अचल, जीव-निर्जीव सभी सत्ताओं के प्रति शुभकामना की गई है क्योंकि समस्त सृष्टि में सम्यक संतुलन के लिए सबका प्रकृतिस्थ होना जरूरी है। इस प्रकार सूत्र में सभी सत्ताओं का संबोधन, सभी मनुष्यों के संबोधन के रूप में नहीं समझा जाना चाहिए। प्रश्न यह भी उठ सकता है कि सभी मनुष्य अर्थात सर्वजन भी उसी सर्वसत्ता के अंग हैं, इसलिए इसे सर्वजन क्यों न समझा जाए? उत्तर में केवल यही कहा जा सकता है कि सभी सत्ताओं में जीव-सत्ता और जीव-सत्ता के मानव जीव-सत्ता अवश्य सम्मिलित हैं जिसे सुखी देखने की कामना की गई है। किंतु इस मानव जीव-सत्ता के सम्यक सुखी होने के पीछे यह भाव कदाचित् नहीं हो सकता है कि असंतुलन बनाने वाली सत्ताएँ भी प्रोत्साहित की जाएँ। इसीलिए विशिष्ट मानव जीव-सत्ता में असंतुलन को बचाए रखने के लिए बहुजन को सर्वजन में तब्दील नहीं किया जा सकता और उक्त सूत्र में ऐसा कोई संकेत नहीं है।

यदि हम बुद्ध के दर्शन को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखते हुए उसमें वर्तमान परिस्थितियों से पैदा होने वाली समस्याओं का हल ढूँढ़ते हैं तो बहुजन की बात और अधिक स्पष्ट होकर सामने आती है। मिसाल के तौर पर बुद्ध ने एक हिंसक आक्रांता अँगुलीमाल को भी दीक्षा दी थी। पूछा जा सकता है कि हिंसक आक्रांता को भी शरण देने वाले भगवान बुद्ध ने आक्रांत और आक्रांता को एक साथ साधकर क्या सर्वजन हिताय के किसी नये उत्पाद का अन्वेषण एवं परिचालन किया? इसे समझने के लिए उस काल एवं परिस्थिति में उस घटना की बारीकियों को सामाजिक व मनोवैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में जाँचना जरूरी हो जाता है।

सुना है कि एक बार भगवान बुद्ध उस दिशा में अकेले चले जाते हैं जिस दिशा में अँगुलीमाल नाम के हिंसक आक्रांता का इलाका है। रास्ते में ग्रामीण-जन उन्हें रोकते हैं। किंतु वे उनके कहे को प्रायः अनसुना करके आगे बढ़ते चले जाते हैं। अँगुलीमाल उनका पीछा करता है किंतु वह इस बात से अपूर्व आश्चर्य में पड़ जाता है कि सामने का भिक्षु बिना डर-भय के आगे बढ़ता चला जा रहा है और पकड़ में भी नहीं आ रहा है। अँगुलीमाल यह कहते हुए चिल्ला पड़ता है–रुक जाओ! मैं तुम्हारे ठीक पीछे हूँ और तत्काल तुम्हें पकड़ लूँगा।

बुद्ध कहते हैं–मैं तो रुका हुआ हूँ अँगुलीमाल! भाग तो तुम रहे हो! क्रोध, लोभ, मोह और हिंसा के पीछे भागना छोड़कर तुम कब रुकोगे? यह सुनकर अँगुलीमाल हतप्रभ हो जाता है। इसके बाद और भी बातों का जिक्र है जिससे अँगुलीमाल का हृदय-परिवर्तन हो जाता है और वह बुद्ध की शरण में आकर भिक्षु जीवन अपना कर अरहन्त हो जाता है। उधर अजातशत्रु के महल को आक्रोशित जनता ने घेर रखा है। लोग अँगुलीमाल को तत्काल पकड़ने तथा दंडित करने की माँग करते हैं।

अजातशत्रु भिक्षु संघ के पास जाकर भगवान बुद्ध से निवेदन करता है–भगवान! दुःखी एवं आक्रांत जनता चाहती है कि मैं डाकू और अत्याचारी अँगुलीमाल को पकड़ कर उसके अपराध के लिए उसे दंडित करूँ। हमें बताया गया है कि वह आपके पास ही आया हुआ है।

बुद्ध–महाराज! यदि डाकू अँगुलीमाल यहाँ है तो उसे अवश्य ले जाएँ। आप उसे ढूँढ़वा सकते हैं।

अजातशत्रु–लेकिन भगवान! यहाँ तो पूरा भिक्षु-संघ ध्यानावस्था में बैठा है इनमें से डाकू अँगुलीमाल को पहचान पाना बहुत कठिन जान पड़ रहा है। वह कौन है, यह कैसे पता चलेगा?

बुद्ध–मैं भी तो यही कह रहा हूँ राजन! भिक्षु संघ में कोई हिंसक और लुटेरा अँगुलीमाल नहीं है।

कुछ देर बाद अजातशत्रु के सचिव द्वारा बताया जाता है कि अँगुलीमाल भिक्षु बन गया है तथा इसी संघ में बैठा है। इसलिए वह भवगान बुद्ध से इसे देने के लिए पुनः निवेदन करें।

अजातशत्रु–भगवान! ज्ञात हुआ है कि डाकू अँगुलीमाल आपकी ही शरण में आया हुआ है। आज्ञा हो तो मैं उसे ढूँढ़ कर ले जाऊँ।

बुद्ध–महाराज! अँगुलीमाल को ढूँढ़ने के लिए उसके पहचान चिह्न जानने आवश्यक हैं। कृपया बताएँ कि जिस डाकू अँगुलीमाल को आप ढूँढ़ना चाहते हैं वह कैसा है?

अजातशत्रु–भगवान! उसके हाथों में घातक हथियार हैं। वह मनुष्यों को मारकर उनकी अँगुलियाँ काट कर उनकी माला अपने गले में पहने रहता है। उसके गले में हमेशा कटी हुई अँगुलियों की झूलती हुई माला ही उसकी सबसे बड़ी पहचान है।

बुद्ध–तो महाराज! यहाँ पर आपको अँगुलियों की माला पहने हुए क्या कोई दिखाई दे रहा है?

अजातशत्रु–भगवान! यहाँ तो वैसा कोई भी दिखाई नहीं देता है।

बुद्ध–तो महाराज! बताएँ कि यहाँ से आप किसे ले जाना चाहते हैं?

अजातशत्रु–भगवान! वह अँगुलीमाल तो कदाचित् यहाँ नहीं है। किंतु पता चला है कि उसने अस्त्र-शस्त्र एवं अँगुलियों की माला त्याग दी है तथा अब वह भिक्षु जीवन में है।

बुद्ध–तो क्या वह भिक्षु अब भी अँगुलीमाल है?

अजातशत्रु–नहीं, वह तो भिक्षु बन चुका है।

बुद्ध–तो क्या आप किसी भिक्षु को दंडित करना चाहते हैं?

अजातशत्रु–बिल्कुल नहीं, किंतु पूर्व में किए गए अपराध का दंड तो उसे मिलना ही चाहिए।

बुद्ध–किसी दोषी को दंड देने का क्या प्रयोजन होता है महाराज?

अजातशत्रु–भगवान! ताकि लोगों में अमंगल कार्य करने के कारण मिलने वाले दंड से भय उत्पन्न हो एवं अपराध रुके।

बुद्ध–तो क्या दंड के अलावा अन्य कोई विधान नहीं है जिससे ये अपराध रुक सकें।

अजातशत्रु–विधान है। यदि कोई अपराधी अपनी जीवन-पद्धति में सुधार करके अन्य अपराधियों को बदलने के लिए प्रेरणा-स्रोत बनता है तो भी अपराध रुक सकता है।

बुद्ध–महाराज! आप खुद ही निर्णय करें कि ये भिक्षु पाप-कर्म से दूर रहना सिखाते हैं या पाप-कर्म करना।

अजातशत्रु–भगवान! मैं हत-बुद्धि हूँ। कृपया मेरा मार्गदर्शन करें।

बुद्ध–महाराज! जो कल था वह आज नहीं है। आप भी जो कल थे वह आज नहीं हैं। पृथ्वी की प्रत्येक वस्तु हर क्षण बदल रही है। कल का अँगुलीमाल आज वही अँगुलीमाल नहीं है। वह अँगुलीमाल बदल चुका। आज उसे खोज पाना संभव नहीं है। राजन! समय के साथ बदली हुई वस्तुओं और उसकी प्रकृति को पहचाने बिना उसके साथ पूर्ववत व्यवहार विनाशकारी भी हो सकता है। कोई नदी उस विशेष घाट से इस वर्ष भी केवल इसलिए नहीं पार की जानी चाहिए कि पिछले वर्ष उसे पार किया जा सकता था या पार कर लिया गया था। लंबे समय के अंतराल में नदी गहरी और उग्रवाहिनी भी हो सकती है। इसलिए मैं कहता हूँ कि चीजों को उसके वर्तमान स्वरूप में ही पहचानें अन्यथा यह दुःख का कारण बनेंगी। आजातशत्रु! कल आपका पुत्र आज्ञाकारी था किंतु आज वयस्क होकर वह बातें नहीं मानता। आप समझते हो कि आज वह आपकी बातें नहीं मान रहा और दुःखी हो जाते हो। यदि आपको यह समझ आ जाए कि आज आपका वह पुत्र वही नहीं है जो कल था; इसलिए उससे बीते हुए कल की तरह व्यवहार की अपेक्षा उचित नहीं है।

इस प्रकार अजातशत्रु बुद्ध की बातों से संतुष्ट होकर वापस चला जाता है। अब प्रश्न यह उठता है कि क्या भगवान ने अँगुलीमाल के हित तथा उसके सुख की कामना करके अपराध किया? स्पष्टतः भगवान बुद्ध ने बहुजन को सर्वजन नहीं बनाया बल्कि एक आक्रांता को उसके दुःखों से छुड़ाकर बहुत से लोगों के दुःख दूर करने के काम में लगाया। इस प्रकार उनकी बहुजन की संकल्पना वहीं की वहीं रहती है तथा जब आक्रामक व्यक्ति या कौम स्वयं को बदल लेती है तो वह आततायी नहीं रह जाती और उसके साथ आततायियों जैसा व्यवहार असंगत होता है। अल्पसंख्यक शोषक वर्ग एवं बहुसंख्यक शोषित वर्ग की सीमाएँ अलंघ्य नहीं हैं। इनका आपस में रूपांतरण संभव है तथा ऐसा होता भी रहता है। एक शोषक अपना स्वभाव छोड़कर जन-कल्याण के काम में लग सकता है। भविष्य में एक शोषित भी शोषण में शामिल होकर शोषक का साथ दे सकता है। किंतु इस व्यक्तिगत या छिटपुट के रूपांतरण से शोषक का साथ दे सकता है। किंतु इस व्यक्तिगत या छिटपुट के रूपांतरण से शोषक वर्ग का चरित्र या शोषित वर्ग का चरित्र पूरी तरह बदलता हुआ नहीं माना जा सकता। शोषक को उसके उसी रूप में स्वीकार करना या उसका कल्याण करना उसके अमंगल कार्यों का समर्थन है, इसलिए उसे शोषित के कल्याण के साथ जोड़कर ‘सर्वजन के कल्याण’ का जुमला बेईमानी है।

वर्तमान परिप्रेक्ष्य में बहुजन एवं सर्वजन शब्दावली का परीक्षण किया जाना जरूरी है। यों भी बहुजन शब्द की अभिधारणा में कोई निश्चित प्रतिशत या कोई निश्चित सीमांकन नहीं है। किंतु इसका अर्थ कदापि नहीं लिया जाना चाहिए कि इसकी परिधि में सभी लोग शामिल हैं क्योंकि यह एक गत्यात्मक अभिधारणा है जिसके बड़े या छोटे होने, घटने और बढ़ने के विकल्प हमेशा खुले रहते हैं। दूसरे शब्दों में जो आज आक्रांता-वर्ग, अभिजन-वर्ग, सत्ता-समाज-वर्ग या अन्य किसी अभिजात्य शोषक वर्ग में हैं–वे यदि बहुत बड़ा त्याग करके शोषण के विरुद्ध लड़ाई के लिए खुद ही तैयार हो जाएँ तो इसके आगे क्या होना चाहिए? इतना ही नहीं बल्कि उनके इस त्याग एवं लड़ाई के कारण उन्हें भी अल्पसंख्यक शोषक वर्ग का शिकार होना पड़े तो उन्हें बहुजन के साथ खड़े होने में या शामिल होने में कोई मनाही तो नहीं है–होनी भी नहीं चाहिए। किंतु इस बहुजन का बहुजन चरित्र न तो एक जैसा है–न एक ही तरह के शोषण के शिकार सब लोग हैं। इसलिए तदनुसार यहाँ भी संघर्ष का तरीका उसकी सीमा तथा उसकी रणनीति अलग-अलग हो सकती है।

उपर्युक्त शर्तों पर बिना खरा उतरे ही बहुजन को सर्वजन में तब्दील करने की प्रक्रिया को स्वर्ग के सपने दिखाने जैसी या कबीर के शब्दों में दूसरों के लिए या बहुजनों के लिए ‘कपूर बेचने’ की हठधर्मिता जैसा है। सच्चाई को देर तक घटाटोप नहीं रखा जा सकता। इसलिए राजनैतिक संदर्भों की अवसरवादिता की जरूरतों से पैदा हुए ये शब्द सामाजिक ताने-बाने में लोगों की वर्तमान जरूरत नहीं बन सकते। क्योंकि महात्मा गाँधी द्वारा प्रचारित हृदय-परिवर्तन की धारणा मिथ्या कल्पना-प्रसूत मान्यता व शिगूफा बन कर रह गई है। हृदय-परिवर्तन की जगह जुमला परिवर्तन अवश्य दिखाई देता है जहाँ शब्द अपने अर्थ छिपाते फिरते हैं। दिल की बातें और जबान की प्रतिज्ञाएँ सर्वथा विपरीत होकर विश्वसनीयता की किसी पहल को तार-तार कर देती हैं। पुरोहित वर्ग का मूल चरित्र बदलाव के बिना उन्हें बहुजन की सीमाओं में आने से वर्जित करता है। कम से कम उनकी सोच एवं संस्कार के स्तर पर तो ऐसा है ही। लोकतांत्रिक व्यवस्था में बहुमत की जरूरतों के कारण ऐसे हृदय-परिवर्तन के चित्र अवश्य उकेरे जाते रहे हैं ताकि ऐतिहासिक गलतियों की स्वीकारोक्ति द्वारा खास मौके तक उनमें घुसपैठ की जा सके और भविष्य के वादे के आधार पर उन्हें विश्वास में लिया जा सके। सत्ता-समाज द्वारा बिना किसी ठोस त्याग भावना के ही बहुजन-दर्शन का यह हास्यास्पद पहलू है। इस खुलासे के साथ राष्ट्रवाद की संवैधानिक संकल्पना का बहिर्पक्ष एवं अंतर्पक्ष साफ दिखाई पड़ता है। यहाँ डॉ. अंबेदकर की यह उक्ति इस तथ्य को और अधिक उजागर करती है–‘दलितों/अछूतों के प्रति अपना रवैया बदलने के लिए हिंदुओं को उनसे प्राप्त होने वाले आर्थिक एवं सामाजिक लाभ का त्याग करना पड़ेगा। क्या वह इसके लिए तैयार होंगे? यदि ऐतिहासिक साक्ष्य में जाएँ तो मायूसी ही मिलेगी। ऐतिहासिक साक्ष्य तो यही है कि जब भी नीतिशास्त्र और अर्थशास्त्र में टकराव हुआ है, जीत अर्थशास्त्र की ही हुई है। निहित स्वार्थ ने स्वेच्छा से कभी अपने कुत्सित अधिकार का त्याग नहीं किया है। इसके लिए उन्हें बलपूर्वक बाध्य करने की जरूरत पड़ती है।

यदि इस विश्लेषण से कुछ सीख मिलती है तो शायद यही कि बहुजन से सर्वजन की संकल्पना में केवल शोषकवर्ग के द्वारा अर्थशास्त्र की जीत का ही गुर छुपा है। यथार्थ के धरातल पर ऐसे गठजोड़ ने दलितों-पिछड़ों का नुकसान ही किया है। सत्ता के शीर्षस्थ पदों के ये पुश्तैनी दावेदार बदली हुई लोकतांत्रिक व्यवस्था में भी ऐसे ही हथकंडों से अपनी हिस्सेदारी सुनिश्चित करते हैं तथा बहुजन के नाम पर सत्ता के संसाधनों का अपने पक्ष में दोहन करते हैं। बहुजन-दर्शन के प्रति उनकी वफादारी और निष्ठा उनके अपने स्वार्थ तक ही सीमित होती है। इस प्रकार सर्वजन के कल्याण और सर्वजन पर अनुकंपा के खोखले दर्शन की पोल खुलती है। आज भी दलितों-पिछड़ों और आदिवासियों के नाम पर विदेशों से की जाने वाली चंदा उगाही की राशि का अंदाजा लगाना तो कठिन है किंतु असंभव नहीं है। यह चंदा किसी न किसी रूप में भारतीय दरिद्रता और भेदभाव को दूर करने के प्रदर्शन या दिखावा के जरिये विदेशियों के सामने रिरियाकर माँगी गई भीख से अधिक कुछ नहीं है। उस पर भी शान यह बघारी जाती है कि ये स्वयंसेवी संस्थाएँ सामाजिक सुधारों के लिए जी-जान से लगी हुई हैं। सत्ता-समाज की यही खासियत है कि काल और परिस्थिति के अनुसार वह अपनी रीति-नीति बदलता चलता है। इन सभी परिघटनाओं को अपने पक्ष में परिचारित करने का उसका अपना तंत्र है। इस तरह की अंतर निर्भर आर्थिक-सामाजिक प्रक्रिया द्वारा वह अपने उद्देश्यों को पूरा करता चलता है और ‘बहुजन को सर्वजन’ बनाने के मुगालते में रखता है। हैरत यह है कि इतिहास और दर्शन को फिर से विपथित करने में हमारी मूक स्वीकृति हमारे बेहिचक दीवालियेपन की ही घोषणा करती है। सबकी जय कहने वाला किसी की जय नहीं चाहता। यही इन खंडित-विरूपित दर्शनों के पीछे का षड्यंत्र है।


Image : Buddha the Winner
Image Source : WikiArt
Artist : Nicholas Roerich
Image in Public Domain

बी.आर. विप्लवी द्वारा भी