दलित चिंतन की मौखिक परंपरा

दलित चिंतन की मौखिक परंपरा

दलित चिंतन की परंपरा ‘मौखिक’ रही है। इसी को दलित साहित्य, इतिहास और आंदोलन के अग्रदूत स्वामी अछूतानन्द जी ‘हरिहर’ कहते हैं–‘सुनी जो पुरखन की मौखादी’। यह जो पुरखों के मुख से सुना हुआ ज्ञान अर्थात ‘मौखादी’ है यही मौखादी ही ‘मौखिक परंपरा’ है जो दलितों की अपनी प्राचीन चिंतन परंपरा रही है। सद्गुरु कबीर जब कह रहे होते हैं कि ‘मसी कागद छूओ नहीं, कलम गहौ नहीं हाथ’ तब बड़े उतावलेपन में इसका अर्थ कर दिया जाता है कि कबीर ठेठ अनपढ़ थे जबकि वे कह रहे होते हैं कि मेरा चिंतन द्विज की लिखित परंपरा से नहीं आया बल्कि उसका स्वरूप दलित चिंतन की ‘मौखिक’ परंपरा से है। कबीर के इस दोहे की दूसरी पंक्ति पर कभी ध्यान ही नहीं दिया जाता जिससे बात स्पष्ट होती है। पूरा दोहा है–

‘मसी कागद छूओ नहीं, कलम गहौ नहीं हाथ
चारों युग के महातम कबीरा, मुखहिं जनाई बात।’

इस दोहे में कबीर स्वयं ही स्पष्ट कर देते हैं कि मैंने स्याही, कागज और कलम को कभी छूआ ही नहीं यानी मैंने द्विज की लिखित चिंतन परंपरा का कभी भी अनुसरण ही नहीं किया। चारों युगों के महातम को मैंने मौखिक परंपरा से ही व्यक्त किया है। यह ‘मुखहिं जनाई बात’ ही दलित चिंतन की ‘मौखिक परंपरा’ रही है। अब प्रश्न उठता है कि दलित चिंतन की यह मौखिक परंपरा आई कहाँ से है? दलितों की यह मौखिक परंपरा महान आजीवक मक्खलि गोसाल से आई है।

मक्खलि गोसाल एक दास पुत्र थे। उनके पिता ‘मंख’ थे जिनका नाम मंखली था। मक्खलि गोसाल ने एक कुंभकार हालाहला से शादी की थी। उन्होंने आजीवक धर्म को व्यवस्थित किया था और घर-गृहस्थी से जोड़ा था। मक्खलि गोसाल महावीर से आयु में 7 साल बड़े थे। महावीर का जन्म 599 ई.पू. निर्धारित होता है। उधर बुद्ध 663 ई.पू. में पैदा होते हैं। इस हिसाब से मक्खलि गोसाल बुद्ध से 43 साल बड़े थे। गोसाल की मृत्यु 543 ई.पू. में हुई थी इससे पता चलता है कि उनकी आयु 63 साल की रही थी। जब बुद्ध को कथित ज्ञान प्राप्त हुआ था उससे 15 साल पहले ही गोसाल का देहांत हो चुका था।

मक्खलि गोसाल के छह शिष्य थे–1. शन 2. कलंद 3. कर्णिकार 4. अच्छिद 5. अग्नि-वैश्यायन 6. अर्जुन गोमायुपुत्र। इनको दिशाचर कहा जाता था। यही नहीं इनके अतिरिक्त भी 12 अन्य प्रमुख आजीवकों के नाम प्राप्त होते हैं–1. ताल 2. ताल पलंब 3. उव्विह 4. संविह 5. अवविह 6. दय 7. नामुदय 8. ण्मुदय 9. अणुवालयस 10. संखुवालय 11. अयंपुल 12. कायरम (भगवती सूत्र, शतक आठ, उपदेशक 5) महावीर और बुद्ध से भी पहले भारत में आजीवक दर्शन सबसे अधिक प्रचलित था। मक्खलि गोसाल की मृत्यु महाशिला खंडों का संग्राम लड़ते हुए हुई थी। उनकी मृत्यु के बाद उनके आजीवकों ने आजीवक धर्म के प्रसार-प्रचार के लिए जो अपने धर्म स्थल बनाए उनको मक्खलि गोसाल की स्मृति में ‘मक्ख’ कहा जाता था। बाद में यह शब्द ‘मख’ हो गया। यह अकारण नहीं था कि शुरुआत में द्विजों ने भी आजीवकों की इसी शब्दावली से काम चलाया था। इसका प्रमाण यह है कि द्विजों के धर्म की प्राचीन शब्दावली में यह ‘मख’ शब्द था और शब्दकोशों में आज भी है। आजीवकों ने जो मख शालाएँ बनाई थीं, वह आजीवक धर्म से संबंधित थीं, लेकिन शुरू-शुरू में द्विज भी यज्ञशाला के लिए आजीवकों के इसी शब्द पर आश्रित था। आजीवक धर्म सारे विश्व का सबसे प्राचीन धर्म है। जहानाबाद स्थित बराबर की गुफाएँ दुनिया की पहली गुफाएँ हैं जो सम्राट अशोक द्वारा आजीवकों को दान की गई थीं। इससे पहले किसी भी धर्म के अपने धर्म स्थल का कोई प्रमाण नहीं है। आजीवक साधुओं ने उन गुफाओं के द्वारों पर जो नक्काशी करवाई हुई हैं। आज के तमाम मंदिर उसी शैली में मिलते हैं। अतः सबसे पहले आजीवकों ने ही अपने धर्मस्थल बनवाए जिन्हें वे ‘मख’ कहते थे। बाद में जब आजीवकों की देखादेखी द्विजों ने भी अपनी स्थाई यज्ञशालाएँ बनवाई तब द्विज उस शुरुआती दौर में अपने इन धार्मिक स्थलों के लिए ‘मख’ शब्द से ही काम चलाते थे। आजीवक परंपरा पानी पूजन की परंपरा रही है जैसे द्विज की परंपरा अग्नि पूजक। बिहार में ‘मखाना’ पानी में ही उगता है। मौर्यकाल में वह मखशालाओं में आजीवकों द्वारा प्रसाद रूप में बँटता था। इसी से उस पानी में उगने वाले फल को ‘मखान्न’ कहते थे। वही बाद में ‘मखाना’ हो गया।

आजीवक धर्म की ‘मखशाला’ में मिले ज्ञान को ही ‘मौखिक ज्ञान’ कहा जाता था। यही मौखिक परंपरा महान आजीवक मक्खलि गोसाल से होती हुई सद्गुरु कबीर-रैदास तक आती है और स्वामी अछूतानन्द जी ‘हरिहर’ से होती हुई हमारे तक चली आती है। दलितों-आजीवकों के ये तमाम पुरखे अनपढ़ नहीं थे। यह साक्षरता उन्हें उनके अपने धर्म स्थलों से मिली थी इसीलिए सद्गुरु रैदास कहते हैं–‘चल मन हरि चटसाल पढ़ाऊँ’। यह ‘हरिचटसाल’ मख नामक आजीवक स्थलों का ही भाषिक रूपांतरण है। सद्गुरु कबीर जब कहते हैं कि–

‘तू कहता कागद की लेखी
मैं कहता आँखन की देखी’

तो इसके भी मायने यही हैं। वे द्विज को संबोधित कर रहे हैं कि तेरी चिंतन परंपरा लिखित है और मेरी अनुभवों से सनी हुई मौखिक। इस ‘आँखन देखी’ का मूल भाव भी उसी आजीवक परंपरा से टकराता है। पाणिनी के अनुसार 3 प्रकार के दार्शनिक थे–आस्तिक, नास्तिक (नत्थिक दिट्ठ) और दिष्टिवादी (दैष्टिक, नीयतिवादी–प्रकृतिवादी) गोसाल दिष्टिवादी थे। यानी उनका दर्शन ‘दिट्ठी’ था (आस्ति नास्ति दिष्ट मतिः सूत्र में 4/4/60)।

यह दिट्ठी आठ तत्वों पर आधारित थी–1. चरम पान 2. चरम गीत 3. चरम नृत्य 4. चरम अंजलि (अंजलि चम्म-हाथ जोड़कर अभिवादन करना) 5. चरम पुष्कल संवर्त महामेद्य 6. चरम संचनक गंधहस्ती 7. चरम महाशिला कंटक महासंग्राम 8. मैं इस महासर्पिणी काल के 24 तीर्थंकरों में चरम तीर्थंकर के रूप में प्रसिद्ध होऊँगा और समस्त दुखों का अंत करूँगा। (कहने का अर्थ यह है कि पाणिनी के तीसरे दार्शनिक दैष्टिक या मक्खलि के नियतिवादी थे। इस ‘दिट्ठी’ का अर्थ दृष्टि है) और यही दिट्ठी सतगुरु कबीर साहेब की ‘आँखन की देखी’ है।

आजीवक धर्म के ‘मख’ धर्म स्थलों में जो प्रमुख हुआ करता था वह ‘मुखिया’ कहलाता था। मुखिया शब्द आज नेता, सरदार, अग्रसर, अगुआ के लिए आता है। लेकिन अपने मूल में यह मुखिया शब्द धर्म से संबंधित था, वह भी आजीवक धर्म से। इस मुखिया शब्द का धर्म से ही संबंध था यही वजह है कि आज भी द्विज परंपरा के कई धार्मिक संप्रदायों के प्रमुख मुखी या मुखिया ही कहलाते हैं। मख नामक आजीवक स्थलों में जो झरोखे बने होते थे उन्हीं को ‘मोखा’ कहते थे। मोखा शब्द का अर्थ है–भीत आदि में बना झरोखा। अतः यह मोखा शब्द भी मखशाला से ही संबंधित है। मख नामक आजीवक स्थलों में बच्चों के गले में धर्मचिह्न डालने की प्रथा रही थी। इसीलिए इसे ‘मंखी’ कहते थे। आजीवक परंपरा का वह रूप भारत के गाँवों में आज भी प्रचलित है। इसीलिए मुखी शब्द का अर्थ है–बच्चों के गले में डाला जाने वाला गहना। मक्खलि के लिए मंखली शब्द भी प्रचलित था। मख से ही मोख शब्द आया। मोख शब्द का अर्थ है मुक्ति बंधन से छुटकारा। इसी से मोक्ष शब्द बना है। मक्खलि गोसाल के दर्शन में ‘मंडल मोक्ष’ शब्द आया है। मक्खलि एक दासपुत्र थे। वे पूरे मंडल के दासों की मुक्ति के लिए लड़ रहे थे। इसीलिए आजीवक धर्म में मंडल मोक्ष का अर्थ होता है मनुष्य की हर तरह की गुलामी को मिटाया जाना फिर वह गुलामी एक व्यक्ति की नहीं बल्कि पूरे मंडल की है।

सार रूप में कहा जाए तो मौखिक ज्ञान का अर्थ है आजीवक मखशालाओं में अर्जित ज्ञान। मौखिक शब्द का अर्थ मुख से न होकर ‘मख’ से था। आजीवक मखशाला के मुखी या मुखिया द्वारा मखशाला में उपलब्ध करवाए गए ज्ञान को ही मौखिक ज्ञान कहा जाता था। यह ‘मख संबंधी’ ज्ञान था जो बाद में ‘मुख संबंधी’ हो गया। यही सद्गुरु कबीर की ‘मुख ही जनाई बात’ है और यही स्वामी अछूतानन्द हरिहर की ‘सुनी जो पुरखन की मौखादी’ है।

मक्खलि गोसाल एक दास पुत्र थे। जब बाद के समय में दासों को पढ़ने-लिखने के अधिकार से वंचित कर दिया गया था तब उनके बीच ज्ञान की मौखिक परंपरा ही प्रचलित हो गई। दलित वर्गों के शिल्पकार और कर्मकार इसी आजीवक धर्म के अनुयायी रहे थे। पढ़ने-लिखने के अधिकार से वे भी वंचित ही थे। अतः यही वजह है कि सतगुरु कबीर-रैदास से लेकर स्वामी अछूतानन्द हरिहर तक सभी दलित महापुरुष मौखिक परंपरा के पक्ष में बोल रहे हैं। यह परंपरा आजीवकों के मख नामक धर्म स्थलों से ही चली आई थी।

केवल भाषा में ही इस तथ्य से जुड़े प्रमाण नहीं हैं बल्कि भारत की मिट्टी के सबसे पुराने आजीवक धर्म के उन मख नामक धर्म स्थलों के आज भी जमीन पर प्रमाण हैं। आम जनता इन्हें भाषा के क्षेत्रीय प्रभाव की वजह से मखधाम, माखधाम, मखोड़ा, मोखरा जैसे नामों से पुकारती है। पूरे देश में इस ध्वनि पर आधारित सैकडों स्थल हैं तथा गाँवों के नाम हैं। हैरानी की बात यह है कि इस ध्वनि पर आधारित नाम जहाँ पर भी हैं, वहाँ प्राचीन काल का धर्मस्थल जरूर है। यह आजीवक धर्म स्थल ही थे जो मख ध्वनि पर आधारित थे। हालाँकि आज उन पर द्विज परंपरा का कब्जा है। मैं उन सभी स्थलों का जिक्र यहाँ नहीं कर रहा उनका जिक्र मैं अपने अन्य लेख में करूँगा। यहाँ पर मैं उदाहरणस्वरूप केवल दो स्थलों को ही रखूँगा। पहला है माख धाम या मखौड़ा धाम के नाम से प्रसिद्ध उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले की हर्रेया तहसील में स्थित स्थल। यह सबसे प्राचीन स्थलों में से एक माना जाता है। और दूसरा है हरियाणा के महम में स्थित मोखरा गाँव। यहाँ पर भी एक प्राचीन स्थल आज भी है। इस स्थल पर मख होने की वजह से ही इस गाँव का नाम मोखरा पड़ा है। यह स्थल दलित-आजीवक परंपरा के ही थे इसका प्रमाण है कि बस्ती के माख धाम या मखौड़ा धाम में आज भी चैत्र मास में मेला भरता है। यह चैत्र मास के उत्सव की दलितों की भूली बिसरी छिनी हुई परंपरा का अवशेष है। चैत्र मास के साथ चमार जाति के संबंध पर मौखिक परंपरा भी प्रकाश डालती है–
1. अगहन रजपूत अहीर असाढ़
भादौं भैंसा चैत चमार
2. चैत के बरखा आउ चमार के मट्ठा बेकार
3. चैत के मट्टा चमार के बोल
चैत्र मास संवत का पहला महीना होता है। आज भी हिमाचल में चैत्र मास में ढोल प्रथा के तहत दलित जाति के लोग चैत्र महीने का गीत सुनाने आते हैं। दलित लोक गायकों के मुख से चैत्र महीने का नाम गीत के माध्यम से सुनना पहाड़ों में शुभ माना जाता है। इसी को देश के अन्य भागों में चैत्री या चैता कहा जाता है जिसका अर्थ होता है चैत्र मास में गाया जाने वाला गीत।

दलितों की सामाजिक चेतना, धर्म दर्शन, इतिहास और साहित्य का निकास इसी मौखिक परंपरा से है। यह चिंतन की पूर्णता का रास्ता है। दलित लेखक इसे द्विज की पराई परंपरा में जाकर खोजते हैं। सद्गुरु कबीर का निम्नलिखित तंज ऐसे दलित लेखकों पर भी सटीक बैठता है–

‘कस्तूरी कुंडल बसे
मृग ढूँढ़े बन माहीं।’

क्योंकि दलित चिंतन की यह मौखिक परंपरा कहीं बाहर नहीं है बल्कि दलितों के घरों में आज भी मौजूद है। दलित का सब कुछ लोककथा, लोकगाथा कहावत, किंवदंती, मुहावरे, जनश्रुति आदि ओरल नेरेटिव में ही है। दलित अपने कुल देवों, वीरों और पुरखों की वंशावलियों को स्तुतियों और ‘वंशोलियों’ में सहेजते आए हैं जिसे वह अपने सामाजिक-धार्मिक अनुष्ठानों के समय मौखिक रूप से पढ़ते हैं। गाते-सुनाते हैं।

दलित चिंतन का स्रोत यही है। इसीलिए दलित चिंतन को अपनी पूर्णता के लिए ‘दलित आजीवक चिंतन’ होना है। और ‘दलित लेखक संघ’ को अपनी पूर्णता के लिए ‘दलित आजीवक लेखक संघ’ होना है। यही दलित चिंतन की मौखिक ज्ञान परंपरा का तकाजा है जो महान आजीवक मक्खलि गोसाल से चली आई है।

स्वामी अछूतानन्द हरिहर क्यों अंतरजातीय शादियों का विरोध कर रहे हैं। महान आजीवक मक्खलि गोसाल क्यों हालाहला से शादी कर रहे हैं? डॉ. धर्मवीर क्यों जार कर्म का विरोध कर रहे हैं और मोरलिटी पर जोर दे रहे हैं? कबीर क्यों अपने ग्रंथ का नाम आजीवक दार्शनिक बीजक के नाम पर रख रहे हैं? बीजक मौर्यकाल में हुए महान आजीवक थे। बीजक शब्द का सीधा अर्थ बीज यानी डी.एन.ए. से है। इसे ही औरस पुत्र कहा जाता है। औरस अर्थात समान जाति की विवाहित स्त्री से उत्पन्न पुत्र। क्यों डॉ. धर्मवीर अपने आजीवक चिंतन के माध्यम से जार जारिणी से तलाक माँग रहे हैं ताकि यह दलित चिंतन की मौखिक परंपरा द्विज की लिखित परंपरा के सामने अपनी अस्मिता सहित खड़ी रहे।

स्वामी अछूतानन्द हरिहर और बाबासाहेब डॉ. अंबेडकर ये दो महान दलित पुरखे क्यों ‘हरिजन’ शब्द का विरोध कर रहे हैं? क्योंकि उन्हें अपने ‘स्वजन’ की चिंता है। कोई ‘अक्करमाशी’ कैसे अपनी मौखिक परंपरा को अपनी अगली पीढ़ी तक पहुँचा सकता है? जारिणी बुधिया को धीसू-माधव की मौखिक परंपरा से क्या लेना-देना? वह तो उनकी तरफ पीठ करके खड़ी है और उसका मुख तो जमींदार के लौंडे की तरफ है।