डॉ. अम्बेडकर की प्रासंगिकता

डॉ. अम्बेडकर की प्रासंगिकता

कोई व्यक्ति कितना प्रासंगिक है या उसके कार्यों की कितनी प्रासंगिकता है, यह उस व्यक्ति के जीवन, उसके संघर्ष और उसके चिंतन के आधार पर जाना जा सकता है। यही सब बातें इतिहास में भी उस व्यक्ति का स्थान निर्धारित करती हैं। इस रूप में डॉ. भीमराव अम्बेडकर दलितों में हुए बड़े व्यक्तियों में से एक हैं, जिन्हें प्यार से हम सभी बाबा साहेब भी कहते हैं। बड़े व्यक्ति का मूल्यांकन उसी स्तर पर किया जा सकता है। अपने जीवन में डॉ. अम्बेडकर ने विभिन्न विषयों में महारथ हासिल की। अनेक आंदोलन किए और राजनीति में भी सक्रिय रूप से भाग लिया। आगे चल कर अपने कहे अनुसार जीवन के अंतिम समय में बौद्ध धर्म में धर्मांतरित हो गए। इसका अर्थ है कि बौद्ध धर्मांतरण उनके जीवन का निचोड़ है। यही उनके मूल्यांकन का आधार भी होना चाहिए। यह कहने में किसी भी तरह की हिचक नहीं है, अगर ‘आजीवक चिंतन’ नहीं आता तो बाबा साहेब डॉ. भीमराव अम्बेडकर का मूल्यांकन संभव ही नहीं था।

इसे दलितों का सौभाग्य समझें या कुछ और कि आजीवक चिंतन इनके बीच आ गया। अब डॉ. अम्बेडकर ही नहीं दुनिया के बड़े से बड़े व्यक्ति का मूल्यांकन दलित अपनी ‘आजीवक परंपरा’ में कर सकते हैं। किसी व्यक्ति का मूल्यांकन ही व्यक्ति विशेष की प्रासंगिकता या अप्रासंगिकता के बारे में बता सकता है।

जैसा कि बताया गया है, किसी व्यक्ति के जीवन, उसके किए संघर्ष और उसके चिंतन के आधार पर व्यक्ति विशेष की प्रासंगिकता तय की जा सकती है। इनके आधार पर हम बाबा साहेब डॉ. भीमराव अम्बेडकर का मूल्यांकन भी कर सकते हैं। उसके बाद ही वे कितने प्रासंगिक या अप्रासंगिक हैं पता लग सकता है। जैसा कि सभी जानते हैं बालक अम्बेडकर का जन्म एक आर्मी या फौजी परिवार में हुआ था। वह आज के अर्थों में भी कम से कम निम्न मध्यम वर्ग की श्रेणी में आता है। यहाँ यह बात इसलिए बताई जा रही है कि बेवजह लोग डॉ. अम्बेडकर का नाता गरीबी से जोड़ते रहते हैं। डॉ. अम्बेडकर उस वर्ण व्यवस्था से लड़ रहे थे, जिसमें दलित से छुआछूत बरती जाती है और जो दलित को व्यवस्थित तरीके से नारकीय गरीबी में रखना चाहती है। इस रूप में दलितों को गरीबी का रोना छोड़ कर वर्ण व्यवस्था को जानना-समझना चाहिए, तभी डॉ. अम्बेडकर की प्रासंगिकता समझी जा सकती है। उनके कार्यों का मूल्यांकन किया जा सकता है। कंधे पर गरीबी लादे रखने जैसी बातें दोहरा कर या दोहरा-तिहरा अभिशाप की रट लगाने से कुछ नहीं होने वाला।

डॉ. अम्बेडकर के जीवन से जुड़ी बातों से पता लगता है कि उनके साथ अछूतता बरती गई। वरिष्ठ लेखक मोहनदास नैमिशराय जी ने इस बारे में जानकारी दी है :

  1. 1. ‘सामाजिक विषमता से संबंधित उनके दो संस्मरण महत्त्वपूर्ण हैं–स्कूल में लगे नल को स्वयं खोलकर वे पानी नहीं पी सकते थे, क्योंकि वे अछूत थे? पानी के घड़े को छूना उनके लिए मना था। इसलिए कभी-कभी पूरे दिन पानी नहीं मिल पाता था और बालक अम्बेडकर मन मसोसकर प्यासा ही रह जाता था। कभी अध्यापक के कहने पर माली नल खोलता था। तब अम्बेडकर को नल से नीचे गिरते हुए पानी पर उल्टा मुँह करके पानी पीना पड़ता था।’
  2. 2. ‘अम्बेडकर को छात्र जीवन में छुआछूत का एहसास हो गया था। सतारा में कोई भी नाई उनके बाल नहीं काटता था। बाल बड़े होने पर उनकी बहन को ही मजबूरी में बाल काटने पड़ते थे।’
  3. 3. ‘एक बार भीम और उनके बड़े भाई को पिता जी से मिलने कोरेगाँव जाना पड़ा। दोनों भाई मसूर स्टेशन पर उतर गए। कुछ देर तक उन्होंने पिता का इंतजार किया। बाद में स्टेशन मास्टर की सहायता से बैलगाड़ी भाड़े पर ली। गाड़ी अभी कुछ आगे ही बढ़ी थी कि गाड़ीवान ने पूछा, ‘तुम किसके बच्चे हो?’ उन्होंने उत्तर दिया, ‘रामजी सकपाल के।’ ‘तुम तो अछूत हो।’ गाड़ीवान बोला, ‘मेरी गाड़ी से फौरन उतर जाओ। तुमने पहले से ही अपनी जाति क्यों नहीं बतलाई।’ कहते हुए गाड़ीवान ने उनका सामान भी फेंक दिया।’
  4. 4. ‘सातारा से लौटने पर उनके जीवन में एक ऐसी घटना घटी, जो जीवनभर उन्हें याद रही। एक दिन उन्हें रास्ते में प्यास लगी। प्यास के मारे उनका गला सूख रहा था। तभी एक स्थान पर उन्हें कुआँ दिखलाई दिया। सोचा पानी खींचकर अपनी प्यास बुझा लूँ। जैसे ही उन्होंने चुल्लू भर पानी पिया, कुछ लोगों ने देखकर शोर मचाया, ‘अरे देखो तो, सारा पानी खराब कर डाला’ मारो-मारो बालक अम्बेडकर की खूब पिटाई हुई। उनकी गलती थी कि उन्होंने कुएँ से पानी पिया था। उनका मन बहुत क्षुब्ध हुआ। आँखों से आँसू निकल आए। बहुत देर तक एक सुनसान स्थान पर बैठकर फूट-फूट कर रोते रहे।’
  5. 5. ‘1911 से उन्हें हर माह 25 रुपये छात्रवृत्ति बड़ौदा नरेश सयाजी राव गायकवाड की ओर से मिलनी शुरू हुई। 1913 में वे बी.ए. की परीक्षा में सफल हुए। …बी.ए. के पश्चात छात्रवृत्ति के करार अनुसार कर्तव्य भावना से भीमराव बड़ौदा सरकार की सेवा में मिलिट्री डिपार्टमेंट (फर्स्ट इन्फेंट्री) एकाउंटेंट जनरल के कार्यालय में 15 जनवरी, 1913 से काम करने लगे। लेकिन पिता की अस्वस्थता का तार आने के कारण 2 फरवरी को उन्हें मुंबई लौटना पड़ा। इसी दिन उनके पिता का निधन हुआ। बड़ौदा के महाराजा से अम्बेडकर की मुलाकात होना एक महत्त्वपूर्ण घटना थी। महाराजा उनके व्यक्तित्व से प्रभावित हुए। अमेरिका के कोलंबिया विश्वविद्यालय में उच्च शिक्षा प्राप्त करने का अम्बेडकर का सपना था जो पूरा हुआ। हर माह साढ़े ग्यारह पौंड की छात्रवृत्ति 4 अप्रैल 1913 को मंजूर कर दी गई। …छात्रवृत्ति के लिए एक साल का समय और बढ़ाया गया। वह भी समय पूरा हो गया उनके मन में और भी पढ़ने की इच्छा थी, पर कर ही क्या सकते थे। मजबूरी में उन्हें भारत लौटना पड़ा। शर्त के अनुसार भीमराव को बड़ौदा राज्य में नौकरी करनी थी। अतः वे बड़ौदा आए। स्टेशन पर उन्हें कोई भी लेने नहीं आया। वे अकेले ही पहली बार अपना सामान उठाए बैलगाड़ी से बड़ौदा स्टेशन पर उतरे। उन्हें बड़ौदा राज्य में सैनिक सचिव की नौकरी मिल गई जो उस समय का बड़ा पद था पर उन्हें न सम्मान मिला और रहने के लिए जगह न मिल सकी। दिन तो कट जाता पर रात मुश्किल से बीतती थी। ऐसे समय सब कुछ भूल कर भी पढ़ने लगते थे। न किसी होटल में स्थान मिला और न ही किसी धर्मशाला में। दफ्तर में भी वे कम परेशान न हुए। चपरासी उनकी मेज पर दूर से ही फाइलें फेंका करते थे। यह सब असहनीय था। इतने बड़े पद पर होते हुए भी वे कुछ भी नहीं कर सकते थे। मजबूर होकर उन्हें वापस लौटना पड़ा। उस समय उनकी मनोदशा अजीब सी हो गई थी। उनके भीतर सवाल उभरता, दलित जाति में जन्म लेकर (होना) क्या उन्होंने कोई अपराध किया?’

असल में, यही वह अपराध है जिसके खिलाफ डॉ. अम्बेडकर ने अपना जीवन झोंक दिया। छुआछूत के खिलाफ उन्होंने महायुद्ध लड़ा, यहाँ तक कि अस्पृश्यता के खिलाफ संवैधानिक व्यवस्था के तहत कानून तक बनवा दिया। बावजूद इसके डॉ. अम्बेडकर देख-महसूस कर रहे थे कि वर्णवादी सुधरने का नाम नहीं ले रहे। अंत में थक-हार कर वे धर्मांतरण की तरफ झुक गए। लेकिन, क्या इससे छुआछूत खत्म हो गई? दरअसल, डॉ. अम्बेडकर इस बात को समझ ही नहीं पाए कि छुआछूत द्विजों के धर्मों की आंतरिक व्यवस्था है। वर्णवादी वर्ण की मानसिकता के साथ ही पैदा होता और मरता है। डॉ. अम्बेडकर के समय में ही वर्णवादियों के सबसे उदार व्यक्ति मोहनदास करमचंद गाँधी भी वर्णाश्रम धर्म का समर्थन करते देखे जा सकते हैं। ऐसे में यह कल्पना करना ही नासमझी है कि कोई इन वर्णवादियों को समझा-सुधार देगा। फिर, यह बात किस से छुपी है, वर्णवादी घीसू माधव से तो छुआछूत बरतता है, लेकिन बुधिया के साथ जारकर्म में संलिप्त पाया जाता है। देखा जाए तो, जारकर्म के खिलाफ युद्ध अस्पृश्यता के खिलाफ लड़ाई का ही विस्तार है। जो दलित अस्पृश्यता का विरोध करता है, लेकिन जारकर्म पर चुप्पी साध जाता है, समझ जाइए वह दलित दलितों की गुलामी का पक्षधर है।

उधर, बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर अस्पृश्यता के खिलाफ तो थे ही, वे जारकर्म के भी विरोध में थे। हाँ, उनके पास चिंतन की पूरी सरणी नहीं थी। एक तरफ वे खुद पुनर्विवाह करते हैं, लेकिन दूसरी तरफ बुद्ध के घर छोड़ने के रहस्य को समझ नहीं पाते। यहीं उनकी सीमा स्पष्ट हो जाती है। इधर, डॉ. धर्मवीर ने अपने ‘जारकर्म के सिद्धांत’ में इन सब बातों से पर्दा उठाया है। यह आईने में अपना चेहरा देखने की तरह स्पष्ट है, अगर दलितों को अस्पृश्यता को पराजित करना है तो जारकर्म के खिलाफ युद्ध में उतरना ही होगा, अन्यथा अक्करमाशियों को पालने के लिए तैयार रहिए।

आगे बढ़ने से पहले यहाँ बताना उचित होगा, हमारे दोनों महापुरुषों डॉ. भीमराव अम्बेडकर और डॉ. धर्मवीर ने अपने साथ हुए व्यक्तिगत अपराध को पूरी कौम के साथ किया गया अपराध मान कर लड़ा है। यही इनके महापुरुष होने की पहचान है। इसमें अस्पृश्यता के खिलाफ लड़ाई सभी को दिखाई देती है, लेकिन जारकर्म के खिलाफ महासंग्राम को वर्णवादी और उनके मानसिक गुलाम अनदेखा करना चाहते हैं। यह कैसे संभव है? जैसे ही दलित जारकर्म के खिलाफ लड़ाई से पीछे हटते हैं अस्पृश्यता इनके सिर पर आ कर नाचने को तैयार बैठी दिखती है। यानी डॉ. अम्बेडकर की अस्पृश्यता के खिलाफ लड़ाई तभी पूरी होनी है जब जारकर्म के खिलाफ युद्ध जीत लिया जाए। इसी में दलित स्त्री की मुक्ति की लड़ाई भी छुपी है। अगर दलित चाहते हैं कि डॉ. अम्बेडकर की प्रासंगिकता बनी रहे तो इन्हें जारकर्म के खिलाफ लड़ना ही होगा।

दरअसल, कुछ लोग डॉ. धर्मवीर के साथ हुए जारकर्म के अपराध को उनका व्यक्तिगत मामला कह कर नकारने की कोशिश करते हैं। ऐसे तिकड़मियों की मानी जाए तो डॉ. अम्बेडकर के साथ भी व्यक्तिगत तौर पर अस्पृश्यता बरती गई थी। तब उन्होंने क्यों व्यक्तिगत अस्पृश्यता को पूरी दलित कौम के प्रति बरती गई अस्पृश्यता के रूप में लड़ा? ऐसे ही डॉ. धर्मवीर ने जारकर्म को पूरी दलित कौम के प्रति बरता गया अपराध माना है। असल में, वर्णवादी दलित पुरुष से अस्पृश्यता बरतता है और हमारी स्त्री को जारकर्म की दलदल में धकेलने की जुगत में पड़ा रहता है। यह अलग बात है कि किसी दलित स्त्री ने इसके विरुद्ध आवाज नहीं उठाई। द्विज स्त्रियाँ तो हैं ही जारकर्म के जीवन को अभिशप्त। यही सनातनी वर्ण व्यवस्था है।

छुआछूतवादियों को पहले दिन से ही पता है कि दलित पुरुष के प्रति बरती गई अस्पृश्यता के खिलाफ स्त्री नहीं बोलने वाली। क्योंकि, अपनी चलती में वर्णवादी स्त्री के साथ जारकर्म में संलिप्त पाया जाता है। तब स्त्री को तो चुप ही रहना है। दलित पुरुष के साथ अस्पृश्यता और दलित स्त्री के साथ जारकर्म, यही इन द्विज-सनातनी के धर्मों की खासियत है। इससे दलित पूरी तरह से टूट जाता है, तभी कोई जाबाला किसी जाबाल को पैदा करती है और एक मछुआरिन व्यास को। आप देखेंगे जारकर्म से उत्पन्न ऐसी संतानों की लाइन लगी रही हैं। अक्करमाशी इसका सबसे ज्वलंत उदाहरण है। फिर वर्णवादी अपनी ऐसी संतानों को इनाम और पुरस्कार भी दे देते हैं। डॉ. अम्बेडकर की अस्पृश्यता के खिलाफ लड़ाई समझ में आती है, लेकिन युद्ध तो जारकर्म के खिलाफ भी है। जारकर्म के खिलाफ महायुद्ध को जीते बिना अस्पृश्यता के खिलाफ लड़ाई से कुछ भी नहीं होने वाला। डॉ. अम्बेडकर ने छुआछूतवादियों को अपने घर में आमंत्रित कर लिया है। इससे वर्णवादी अर्थात जारकर्म समर्थकों को दलित के घर के भीतर ताक-झाँक करने का मौका मिल गया है। इस अस्पृश्यता के खिलाफ लड़ाई का विस्तार डॉ. अम्बेडकर ‘जाति का विनाश’ और ‘अंतरजातीय विवाह’ के पक्ष में करते हैं। बाद में जाति के विनाश के प्रक्षिप्त को वे खुद समझ जाते हैं, इधर अंतरजातीय विवाह और प्रेम विवाह से कैसे दलितों के घरों की तबाही हो रही है किसी से छुपा नहीं है। इन्हीं में अम्बेडकरवाद की प्रासंगिकता को देखा-समझा जा सकता है।

अब हम आते हैं बाबा साहेब डॉ. भीमराव अम्बेडकर की चिंतन प्रक्रिया पर, जिसके लिए उन्होंने कई किताबें लिखी हैं, जो निम्नलिखित हैं :

‘1. शूद्र कौन थे और वे चतुर्थ वर्ण कैसे हो गए? 2. अछूत वह कौन थे और अछूत कैसे हो गए? 3.भारत में जाति प्रथा–जाति प्रथा उन्मूलन 4. हिंदुत्व का दर्शन 5. हिंदू धर्म की पहेलियाँ।’ इन पुस्तकों के लिए की गई रिसर्च डॉ. अम्बेडकर के चिंतन का आधार है, जिसका निचोड़ उनकी अंतिम पुस्तक ‘भगवान बुद्ध और उनका धर्म’ के रूप में सामने आता है। यहाँ हम केवल अछूत अर्थात अस्पृश्य के बारे में बात करेंगे। चूँकि अछूत से ही अस्पृश्यता बरती गई है, और अस्पृश्यता की उत्पत्ति के बारे में डॉ. अम्बेडकर का मानना है :

‘1. ब्राह्मणों द्वारा बहिष्कृत लोगों और बौद्धों के प्रति तिरस्कार भाव रखना तथा घृणा करना। 2. बहिष्कृत लोगों द्वारा गौ मांस भक्षण जारी रखना।’

बीच-बीच में अछूत छितरे व्यक्ति हैं, बहिष्कार का सिद्धांत और ऐसी ही बातों को अछूतता का कारण बताया गया है। असल में, अगर हम इन बातों को तर्क की कसौटी पर कसें तो ये कहीं से भी टिक नहीं पातीं। सर्वप्रथम तो अछूतों को बौद्ध धर्म से जोड़ कर अछूतता की बात करना ही आधारहीन है। जैसा कि खुद डॉ. अम्बेडकर बुद्ध को क्षत्रिय बताते हैं, ऐसे में किसी अछूत अर्थात अवण्ण व्यक्ति का बौद्ध धर्म स्वीकार करना आठवाँ आश्चर्य ही हो सकता है। एक अन्य बात जो बताने लायक है, ब्राह्मण ने सबसे पहले दौड़ कर बौद्ध धर्म को स्वीकार किया है, तो क्या ब्राह्मणों के साथ भी अछूतता बरती गई? फिर, आज बाबा साहेब डॉ. भीमराव अम्बेडकर के धर्मांतरण के बाद जो दलित बौद्ध हो गए हैं, क्या ब्राह्मण उनसे अछूतता नहीं बरतता?

जहाँ तक गौ-मांस खाने के कारण जाति विशेष को अछूत घोषित करने की बात है, तो इसे ऐसे भी देख सकते हैं, इस देश पर मुसलमानों और अँग्रेजों ने लगभग हजार वर्षों तक शासन किया है। जिनके आगे छुआछूतवादियों ने सिर झुका कर सजदा किया है। ये छुआछूतवादी लोग मुसलमानों और अँग्रेजों अर्थात ईसाइयों को अछूत घोषित क्यों नहीं कर पाए? फिर, यह दोनों तो आज भी गौ-मांस खाते हैं। दूसरे, खुद डॉ. अम्बेडकर ने ब्राह्मणों के गौ-मांस खाने के प्रमाण दिए हैं, तब ब्राह्मण क्यों नहीं अछूत घोषित किए गए? और तो और, भारत के कई राज्यों में आज भी गौ-मांस खाया जाता है, क्या द्विज उन्हें अछूत घोषित कर सकते हैं? ऐसे ही अगर दलित गौ-मांस छोड़िए मांस खाना ही छोड़ दें, तो क्या इन्हें दलित नहीं माना जाएगा? असल में अछूतता के पीछे बात कुछ और ही है, इसका खाने-पीने से किसी तरह का कोई संबंध नहीं है। असल में, किस से अस्पृश्यता बरतनी है, किस से नहीं–यह ब्राह्मण धर्म का आंतरिक मामला है। फिर, ब्राह्मण को अपना धर्म चलाए रखने के लिए अस्पृश्य की जरूरत पड़ती है। वह किसी भी अन्य धर्मावलंबी से अस्पृश्यता बरतने को तत्पर रहता है।

दरअसल, ब्राह्मण के रूप में द्विजों का ‘वर्ण का सिद्धांत’ आ गया था, जिसमें विवाह की अटूटता का पवित्र सिद्धांत रोपित कर दिया गया। जिसे सीधे-सीधे पुनर्जन्म के सिद्धांत से जोड़ दिया गया। यह पवित्र विवाह कभी टूट नहीं सकता था।

उधर, वे लोग जिन्होंने वर्ण के सिद्धांत को किसी भी तरह की कोई तवज्जो नहीं दी, मक्खलि गोसाल के रूप में उनका ‘अवण्णवाद का सिद्धांत’ लहलहा रहा था। गोसाल पुनर्जन्म के सिद्धांत को समझ रहे थे, उन्होंने इसे ध्वस्त करते हुए ‘नियति’ का अपना विश्वविख्यात सिद्धांत दिया था। इसी से जुड़ कर ‘पैतृकता का सिद्धांत’ आया, जिसमें विवाह की पवित्रता के स्थान पर स्त्री-पुरुष को ‘मोक्ष’ अर्थात ‘तलाक’ की स्वतंत्रता दी गई। यही वह बिंदु है जो द्विजों के समस्त चिंतन को ध्वस्त कर देता है। तब इन्होंने विवाह में तलाक को मानने वालों के विवाह को असुर, गंधर्व, राक्षस और पिशाच विवाह कह कर श्रेणीबद्ध किया। जबकि मूल बात यह थी कि अवण्णवादी गोसाल विवाह में किसी भी रूप में अनबन होने पर पति-पत्नी को अलग हो जाने और पुनर्विवाह की स्वतंत्रता दे रहे थे। इन अवण्णवादियों को ही ब्राह्मणों ने अपने लेखन में अछूत कहा है। इस रूप में देखने पर डॉ. अम्बेडकर के चिंतन पर सवाल खड़े हो जाते हैं।

यहाँ एक अन्य विचारणीय सवाल यह भी है, ब्राह्मण अगर बौद्धों से अस्पृश्यता बरत रहा था तो डॉ. अम्बेडकर ने बौद्ध धर्म में धर्मांतरण क्यों किया? उन्होंने कैसे मान लिया कि अस्पृश्यतावादी नवबौद्धों से छुआछूत नहीं बरतेंगे?

इसी क्रम में अम्बेडकरवाद की प्रासंगिकता तब पूरी तरह स्पष्ट हो जाती है जब वे बुद्ध के ब्राह्म विवाह में बुद्ध के घर छोड़ने के रहस्य को जानते-बूझते प्रक्षिप्त के रास्ते बढ़ जाते हैं। अगर बुद्ध अवर्णवादी होते तो उनके पास विवाह में तलाक अर्थात मोक्ष का अधिकार रहता। पर वे तो द्विज वर्ण व्यवस्था में दूसरे पायदान पर क्षत्रिय थे और पुनर्जन्म के समर्थक। खुद डॉ. अम्बेडकर ने बुद्ध के जन्म की घटना पर लिखा है, ‘तब सुमेध नाम का एक बोधिसत्व उसके सामने प्रकट हुआ और बोला, ‘मैंने अपना अंतिम जन्म पृथ्वी पर धारण करने का निश्चय किया है, क्या आप मेरी माता बनना स्वीकार करोगी?’ उसने उत्तर दिया, ‘हाँ बड़ी प्रसन्नता से’।’

यहाँ बताया जा सकता है, नवबौद्ध बाबा साहेब डॉ. भीमराव अम्बेडकर को बोधिसत्व कहकर गौरवान्वित होते हैं, तब पूछा जा सकता है, ये बोधिसत्व अपना अंतिम जन्म कब और कौन से ग्रह पर धारण करेंगे? यानी, इस रूप में भी अम्बेडकरवाद की प्रासंगिकता की सीमा समझी जा सकती है।

इस संदर्भ में जो बात जाननी और समझनी है, वह है डॉ. अम्बेडकर ने स्वयं अपनी आजीवक अर्थात दलित परंपरा में पुनर्विवाह किया है। उधर, ये छुआछूतवादी पुनर्विवाह के विरोधी हैं। लेकिन, पता लगता है बुधिया प्रसव के समय जब दम तोड़ देती है तब उसकी कोख में जो संतान पल रही थी वह सनातनी वर्णवादी जमींदार के लौंडे की ही थी। कोई इसे कल्पना कह कर नकारे, तो बताया जा सकता है, भँवरी देवी नाम की दलित नर्स ने पता नहीं कितने वर्णवादी सामंतों से बच्चे पैदा किए थे। ऐसे ही मसायी ने सामंतों से बच्चे पैदा करती रही। अगर दलित विट्ठल कांबले ने मसायी को तलाक नहीं दिया होता तो उसे पता नहीं किस-किस की औलादों को पालना पड़ता। गुलाम दलित इस बात का विरोध करने पर मार दिया जाता है। द्विज के पास ब्राह्म विवाह में आत्महत्या, अवसाद, पागलपन से बचने के लिए घर छोड़ने का विकल्प भी रहता है। ऐसे में जब डॉ. अम्बेडकर बुद्ध के घर छोड़ने को पर ‘रोहिणी के पानी को लेकर शाक्यों और कोलियों के झगड़े’ को आधार बनाते हैं तो हास्यास्पद स्थिति पैदा हो जाती है। देखा जाए तो देश-दुनिया में नदी जल विवाद को लेकर आज भी मिसाइलें तन जाती हैं। लेकिन कोई इस बात को लिए घर और राज्य को नहीं छोड़ता।

पता लगता है कि विवाह के समय सिद्धार्थ यानी बुद्ध की आयु 16 साल की थी। जब वे घर छोड़ते हैं उस समय उनकी और उनकी पत्नी की आयु 29 साल की थी। उस समय उनकी पत्नी यशोधरा गर्भवती थीं। तब ऐसा क्या हुआ कि बुद्ध ने घर छोड़ दिया? महान आजीवक चिंतक डॉ. धर्मवीर अपनी घरकथा ‘मेरी पत्नी और भेड़िया’ में लिखते हैं–‘मैं तभी घर से निकल गया था। मुझे पता नहीं कि मेरे बाद वहाँ क्या हुआ। बस इतना कहा जा सकता है कि वह दिन मेरे अपने घर से निकलने का आखरी दिन था–पर यह मेरी तरफ से बुद्ध का गृहत्याग और महावीर का अभिनिष्क्रमण नहीं था।’ यहाँ डॉ. अम्बेडकर के बौद्ध धर्मांतरण और उनके चिंतन की निचोड़ ‘भगवान बुद्ध और उनका धर्म’ पर सवाल ही सवाल खड़े हो जाते हैं।

असल में, डॉ. अम्बेडकर की लड़ाई अछूतों की पहचान को ले कर थी। इसके लिए उन्होंने लंबी भूमिका बनाई और अपनी रणनीति में अपनी लेखनी का रुख बुद्ध की तरफ मोड़ दिया। यह जाने-समझे बगैर कि दलितों का कभी भी बौद्ध धर्म से किसी भी तरह का कोई संबंध नहीं रहा। महारों को तो उन्होंने 1930 के दशक में ही बौद्ध धर्मांतरित होने की बात कह दी थी। बाद में, जीवन के अंतिम समय में मात्र 53 दिनों के लिए वे बौद्ध हो गए। इसमें उन्हें यह भी ध्यान नहीं रहा कि दलित उन्हें प्यार से बाबा साहेब कहते हैं, जो कबीर साहेब की परंपरा में ही अपनेपन से पुकारा जाता है। और, कबीर साहेब अपनी परंपरा में आजीवक थे, तभी उन्होंने अपने ग्रंथ का नाम ‘बीजक’ रखा था। यहाँ बताया जा सकता है, बीजक प्राचीन भारत में आजीवक महापुरुष थे, जो अपनी पैतृकता की पहचान को ले कर लड़े थे।

एक अन्य बात जो बतानी है, डॉ. अम्बेडकर ने ब्राह्मणी पुराणों और बौद्ध ग्रंथों का अध्ययन कर के ही अपनी वैचारिक प्रक्रिया पूरी की और अपने नतीजे निकाले। ऐसा लगता है उन्होंने जैन धर्म ग्रंथों का अध्ययन नहीं किया था, अन्यथा उनकी वैचारिक प्रक्रिया अलग दिशा में बढ़ती। क्योंकि, ऐतिहासिक-वैचारिक संग्राम अवण्णवादी मक्खलि गोसाल और वर्णवादी महावीर के बीच चला था। यह तब की बात है जब बुद्ध घुटनों के बल चलते थे। इस संग्राम को समझे बिना कोई दलित की समस्या का समाधान कैसे दे सकता है? यही डॉ. भीमराव अम्बेडकर की सीमा है और इसी में उनकी प्रासंगिकता-अप्रासंगिकता का सवाल छुपा हुआ है।


Image: Dr. Bhimrao Ambedkar
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