दलित वैचारिकी की कसौटी एवं श्यौराज सिंह बेचैन का साहित्य

दलित वैचारिकी की कसौटी एवं श्यौराज सिंह बेचैन का साहित्य

ऐतिहासिक रूप से; भारतीय हिंदू समाज में, वर्ण व्यवस्था के कारण एक बहुत बड़ा जन-समुदाय मनुष्यता की न्यूनतम श्रेणी के भी नीचे घोषित किया गया है जिसे हर तरह के घृणित कार्य करने के लिए विवश एवं बाध्य किया गया। इस वर्ग को वर्ण से शूद्र तथा अंत्यज कह कर हिंदू धर्म-संहिता की निषेधाज्ञाएँ बनाई गई जिसके जरिये इन्हें समाज की तथाकथित मुख्यधारा से अलग कर दिया गया। इनकी बस्तियाँ अगल, इनकी बोलियाँ अलग। इनके खानपान, पहनावे, रीति-रिवाज, अलग। इनके देवी-देवता अलग, इनके व्रत-त्योहार अलग, इनके पूजा-पाठ अलग। अर्थात इन्हें एक सामूहिक भौगोलिक ग्रामीण इकाई में बसाहट के बावजूद उनके पूरे समाज को अजीब सामाजिक पृथकता/अलगाव में रखा गया। यही नहीं इन्हें छूने, देखने तथा इनकी पहुँच तक को अपवित्र कहकर इन्हें सारे संसाधनों से भी दूर रखा गया। परिणामतः उन्हें बचा-खुचा अखाद्य या सड़ा-गला भोजन तथा मृत जानवरों के मांस आदि को खाकर गुजारा करना पड़ा बल्कि, इन्हीं पर ज्यादा निर्भर रहना पड़ा।

किंतु, बात यहीं पर खत्म नहीं हो जाती। यदि चौथे वर्ण के लोग, हिंदू धर्म की चतुर्वर्ण-व्यवस्थाओं के अनुसार आवंटित कार्यों को करना छोड़ भी दें तो भी वे वर्ण के अस्पृश्य, अंत्यज तथा नीच ही बने रहने के लिए अभिशप्त हैं। यही हिंदू वर्णाश्रम धर्म की अनोखी, अतुलनीय तथा विश्व में अपनी तरह की नायाब व्यवस्था है। जाहिर है कि ऐसे वर्ग को साहित्य-संस्कृति की मुख्यधारा में कोई स्थान नहीं मिला है, फलतः, उन्हें ऐसे किसी साहित्य से नहीं जुड़ने दिया गया। यहाँ भी वर्ण-व्यवस्था की वही सीढ़ियाँ हैं–जहाँ पर ये केवल नीचे ही नहीं बल्कि अलग-थलग भी हैं फिर भी सारी विसंगतियों के बावजूद, शिक्षा तथा ज्ञान के स्रोतों से बहिष्कृत किए गए उस वर्ग ने अपने अनुभव जन्य सीख एवं मानवीय मस्तिष्क के तर्कसंगत प्रयोग के द्वारा भी बहुत सारा मौखिक और लिखित ज्ञान एकत्र किया जिसे उसने मनुष्यता के पक्ष में उद्घाटित तथा प्रयुक्त भी किया। किंतु उसे न तो कोई श्रेय मिला, न तो उसे कभी सामने ही आने दिया गया। इसके ठीक उलट तथाकथित उच्च वर्ण भाइयों ने दलित-वंचितों के द्वारा एकत्रित ज्ञान-विज्ञान को हमेशा अपनी चालाकी तथा मिलावट के जरिये प्रतिगामी तथा निरर्थक ही प्रस्तुत किया है। किंतु मनुष्य के रूप में इस वर्ग ने लगातार अपनी गुलामी और परतंत्रता की बेड़ियों को काटने की छटपटाहट को लेकर आवाज उठाया है। यह साहित्य में भी है और समाज में भी। किंतु यह आवाज लगातार दबाई जाती रही है इसलिए दलित उद्वेलनों को सामने लाने वाला तथा उसके मानवीय सरोकारों की न्यायपूर्ण माँग को प्रस्तुत करने वाला, कोई भी साहित्य, कभी प्रमुखता से न तो विमर्श का मुद्दा बना, न ही इस पर तथाकथित सवर्ण समुदाय ने कभी सकारात्मक रूप से कान ही दिया। आज की स्थितियाँ अलग हैं। अँग्रेजों के भारत आने के बाद से लेकर अब तक लगातार दलितों-अंत्यजों के जीवन में सकारात्मक परिवर्तन होते रहे, किंतु आजादी मिलने के बाद तथा भारत में गणतांत्रिक राज्य व्यवस्था स्थापित होने के बाद तो संवैधानिक अधिकारों के तहत एक बहुत बड़े वर्ग ने अपना हक हासिल करने की जमीनी मुहिम भी छेड़ी तथा उन्होंने अपने सांस्कृतिक हस्तक्षेप को भी पुरजोर तरीके से सामने लाने का काम किया। यहीं से दलित साहित्य की शुरुआत होती है।

दलित साहित्य हिंदी के लिए नया नहीं है किंतु इसकी पहचान तथा इसकी मान्यता जरूर नई है। हिंदी में ऐसे साहित्य की मान्यता उच्च जातीय अन्यमनस्कता के कारण प्रायः नहीं मिली है, किंतु, इसने जोदार आवाज में अपनी उपस्थिति से स्वयमेव भारतीय साहित्य को प्रभावित किया है इसलिए इसे मानना सबकी मजबूरी हो गई है। यही नहीं बल्कि सवर्ण धारा की तथाकथित मुख्यधारा के साहित्य की हठधर्मिता तो आज तक भी दलित साहित्य को पहचानने और स्वीकार करने से लगातार आना-कानी ही करती रही है। किंतु यह सच्चाई इस साहित्य पर भारी पड़ी है कि एक बहुत बड़े वर्ग की आवाज को इतनी आसानी से दबाया नहीं जा सकता।

हम देखते हैं कि दलित साहित्य के सरोकार उसके सामाजिक न्याय, आर्थिक न्याय, राजनीतिक भागीदारी में निहित हैं। इसलिए हम दलित साहित्य की कसौटी को संक्षेप में निम्नलिखित रूप में प्रस्तुत कर सकते हैं–

दलित साहित्य में मनुष्यता के मूलभूत अधिकारों को प्राप्त करने की तथा उसे हासिल करने की आवाज होनी चाहिए और वह आवाज केवल अनुनय-विनय की ही नहीं बल्कि यह जायज प्रतिरोधात्मकता से परिपूर्ण साहित्य समाज के अन्याय के पुरजोर विरोध तथा तर्कपूर्ण नकार का साहित्य होना चाहिए।
दलित साहित्य की दूसरी कसौटी यह होनी चाहिए कि उसमें भारतीय समाज की गैर बराबरी वाली छुआछूत, जाति-भेद की व्यवस्था की खुली निंदा तथा उसका खुला बहिष्कार होना चाहिए तथा एक जाति निरपेक्ष वर्ण रहित समाज के निर्माण का उद्देश्य होना चाहिए।

दलित साहित्य की तीसरी कसौटी यह होनी चाहिए कि वह किसी ऐसे धर्म को स्वीकार न करने संबंधी विचारों को सामने लाए जिसके जरिये मनुष्यता को दरकिनार किया जाता रहा है, जैसे कि हिंदू धर्म में चौथे वर्ण को कई धार्मिक-अनुष्ठानों-मंदिरों आदि में शामिल होने या हिस्सेदारी करने तथा प्रवेश करने से वर्जित किया गया है। अतः ऐसे प्रायोजनों को बहिष्कृत-वर्जित किए जाने की मुहिम उसकी आवाज होनी चाहिए।

चौथी कसौटी यह है कि जो धर्म के नाम पर आडंबर फैलाए गए तथा उस आडंबर द्वारा मनुष्य को छल-प्रपंच का सामना करना पड़ता है, उसका पुरजोर विरोध होना चाहिए तथा उसका नकार होना चाहिए–जैसे कि हिंदू धर्म में पूजा-पाठ द्वारा समाज के किसी खास वर्ग को दान-पुण्य करना, चाहे दान देने वाले को कर्ज ही ले करके ऐसा क्यों न करना पड़े। यह घोर निंदनीय होना चाहिए। इसी प्रकार काल्पनिक देवी-देवताओं को चढ़ावे चढ़ाना उनके नाम पर बलि चढ़ाना तथा उनके नाम पर बहुत बड़े शूद्र वर्ग का आर्थिक शोषण करना, स्त्रियों को गुलाम बनाना तथा उन्हें दोयम दर्जे के नागरिक होने का एहसास कराना–यह सब ऐसी बातें हैं, जिनकी लगातार निंदा-भर्त्सना की जानी चाहिए। ऐसी कृतियों और ऐसे अनुष्ठानों का बहिष्कार किया जाना चाहिए और इस पक्ष में दलित साहित्य को बड़े ही मजबूत ढंग से आवाज उठानी चाहिए।

पाँचवीं कसौटी यह है कि समाज में या देश में जो भी धनार्जना या आमदनी के स्रोत हैं, उन पर किसी खास व्यक्ति या समूह का एकछत्र अधिकार को समाप्त कर इसके समान बँटवारे की आवाज होनी चाहिए ताकि किसी को साधनों से वंचित रह कर के दुख न झेलना पड़े।

ऐसा साहित्य सृजन जिसके जरिये हर वर्ग को देश के शासन-प्रशासन तथा राजनीतिक प्रतिनिधित्व में बराबरी का हक हासिल हो। इसके लिए यदि सामाजिक वातावरण तैयार नहीं है, धार्मिक अंधविश्वास और आडंबरों के जरिये अगर समाज के एक बड़े हिस्से का राजनीतिक शोषण हो रहा है तो इस राजनैतिक शोषण को रोकने के लिए तथा हर जाति वर्ग के लोगों को राजनैतिक प्रतिनिधित्व देने के लिए भी आवश्यक कदम उठाने की तर्कसंगत पहल होनी चाहिए, चाहे विशेष संरक्षण के जरिये हो चाहे किसी अन्य तरीके से।

संक्षेप में समता, स्वतंत्रता एवं बंधुत्व के लोकतांत्रिक मूल स्वर को सामने लाने तथा इसके लिए समुचित वातावरण तैयार करने की साहित्यिक ईमानदारी सबसे जरूरी है। मोटे तौर पर ऊपर लिखी कसौटी पर जो साहित्य खरा करता है उसे हम दलित साहित्य के दायरे में स्वीकार करने के पक्षधर हैं।

इस परिप्रेक्ष्य में यदि हम श्यौराज सिंह बेचेन के साहित्य का अध्ययन करते हैं तो हम उसे उपरोक्त कसौटी पर बहुधा खरा पाते हैं। इस नतीजे पर पहुँचने के लिए हम उनकी आत्मकथा, कविताओं, कहानियों तथा पत्रकारिता आदि से कुछ उदाहरण देकर अपनी बात को स्पष्ट करना चाहेंगे।

श्यौराज सिंह बेचैन की जो सबसे महत्वपूर्ण पुस्तक है वह उनकी आत्मकथा है ‘मेरा बचपन मेरे कंधों पर’। इस आत्मकथा की पूरे देश में ही नहीं बल्कि अन्य भाषा-भाषियों में भी चर्चा हुई तथा इस रचना के कारण उन्हें शोहरत भी मिली। भारत में ही इस रचना का चार-पाँच भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। इस संग्रह की विशेषता यह है कि इसमें बेचैन जी के बचपन के कड़े संघर्षों को वास्तविकता के धरातल पर रखकर सच्ची घटनाओं को ईमानदारी से प्रस्तुत किया गया है। बचपन में उनके पिता की मृत्यु से उपजे खालीपन तथा माँ के वैधव्य के कारण रामलाल नाम के व्यक्ति के साथ उनकी माँ को बैठा दिया जाना तथा रामलाल का बालक श्यौराज के साथ लगातार भेदभाव पूर्ण व्यवहार, पूरी कहानी–पूरी आत्मकथा को बहुत ही संजीदा तथा बहुत ही संवेदनशील बना देता है।

आत्मकथा में लेखक बेचैन जब भूखमरी के शिकार होते हैं और एक दिन गाँव में ही धान के खेतों में जमे हुए जंगली अनाज ढढ़ायन को मजबूरी वस पका कर खाते हैं, और पूरा घर बीमार हो जाता है–यह जहरीला पदार्थ खाकर सब एक साथ ही गंभीर डायरिया के शिकार हो जाते हैं। वे लिखते हैं–‘अम्मा एक अच्छी बात है कि हम सब एक साथ मरि रहे हैं, कोई रोवन और दुख उठावन को जिंदा नहीं बचेगा।’ यह इतना मार्मिक चित्र है कि दलित जीवन की संताप को गहराई से व्यक्त करता है तथा पूरे समाज की संवेदनशीलता को चुनौती देता है।

श्यौराज सिंह बेचैन अपनी आत्मकथा ‘मेरा बचपन मेरे कंधों पर’ में अपने ताऊ द्वारा स्वरचित कविता का उल्लेख करते हैं–

‘संतों! बामन बाग उजारा
ना कुछ ज्ञान-ध्यान फैलाया,
ना कोई काज सँवारा।
संतों! बामन बाग उजारा।’

यहाँ स्पष्ट देखा जा सकता है कि ब्राह्मण की समाज विरोधी गतिविधियों के रूप में उसके द्वारा दूसरों के समृद्धि और सुख के बगीचे को उजाड़े जाने के प्रतीक के माध्यम से उसके कुकृत्यों का भंडाफोड़ किया गया है। साथ ही साथ यह भी कहा गया है कि जिस ज्ञान और ध्यान का वह खुद को ठेकेदार बताता है तथा इसके लिए ढिढोरा पीटता है, वह केवल दिखावा है। उसके सही अर्थों में कोई लोक कल्याणकारी ज्ञान-ध्यान नहीं फैलाया, अन्यथा यह दुनिया सुखी हो जाती। उसका ज्ञान-ध्यान तो केवल उसके अपने भले के लिए है, अर्थात बाकी लोगों को छलने एवं बेवकूफ बनाने के लिए ही है। एक अन्य प्रसंग में–लेखक की माँ सूरजमुखी जो अनपढ़ किंतु धार्मिक कूपमांडूकता के प्रति विद्रोही है। वह अपने पति से कहती है–‘भिकरिया वंदे तू सुरग चाहतु है तो अपने करम सँभाल। हर इतवार गंगा में डुबकी मारन ते, तेरी बगुला भगति ते, तेरे मन के पाप नांय धुल जांगे।’

यह प्रसंग स्पष्ट करता है कि दलित परंपरा एक मजबूत अनीश्वरवादी तथा अंधविश्वास-आडंबर के विरुद्ध स्वस्थ परंपरा है जिसमें धर्म-कर्म, तीर्थ-व्रत आदि को बिना मन की शुद्धता के कोरी बकवास तथा अर्थहीन कहा गया है क्योंकि यह वाचिक परंपरा के माध्यम से पारिवारिक परंपरा के रूप में आगे बढ़ती रही। इसीलिए अनपढ़ होना इसके आड़े नहीं आता। यह परंपरा सही अर्थों में अनपढ़ होकर भी विवेकहीन तथा अज्ञानी नहीं है। इसके पास ज्ञान की ऐसी संपदा है जिसके वाहक रविदास और कबीर जैसे मनीषी हैं! इसके प्रमाण में लेखक अपनी माँ के हवाले से बार-बार अंधविश्वासों को चुनौती देता है–‘अम्मा व्यंग में कहती थीं (अपने पति से)–‘तोड़ जैसे मगरमच्छ कू जरूर सुरग देगी गंगा मईया?’ सूरजमुखी को ढोंग एवं कर्मकांड में विश्वास नहीं है। भिखारी की भक्ति-कर्मकांड उसे पसंद नहीं क्योंकि यह व्यक्ति व्यावहारिक जीवन में निर्मम, क्रूर व एक स्वार्थी इनसान है जो एक स्त्री को चौपाया जानवर की तरह अपने फायदे के लिए उसका दोहन करता है और जहाँ फायदा नजर नहीं आता, वहाँ वह अपना कुछ भी व्यय करना उचित नहीं समझता। भिखारी एक स्त्री विरोधी व्यक्ति है। सूरजमुखी ऐसे पुरुष पर तंज करती है कि जो मन से मैला है और शरीर को बस साफ कर चमकाता है।

एक अन्य प्रसंग में सूरजमुखी देवी अपने बेटे से कहती है, ‘बेटा तेरे बाप के पास दो-चार बीघा हूँ उपजाऊ जमीन होती तो मैं एक डग हूँ गाम तें बाहर ना धती। आदमी की नांय, मोड़ तुम्हारे पेट कू रोटी की जरूरत है।’

स्पष्ट होता है कि सूरजमुखी की समस्या यह नहीं कि वह स्त्री है अपितु वह एक दलित स्त्री है और यह दलित स्त्री जाति के कारण और लिंग भेदभाव के कारण लगातार शोषित होती है। जब भी वह अपना गाँव छोड़कर बाहर जाती है तो उसे इस प्रकार का दुख और अधिक झेलना पड़ता है इसलिए वह गाँव छोड़ने को अपना दुर्भाग्य मानती है क्योंकि बिना खेती के गाँव में रहना कठिन है।

आत्मकथा के एक अंश में लेखक ने सूरजमुखी के बहाने दलितों और स्त्रियों की अधूरी आजादी पर सवाल उठाए हैं। सूरजमुखी कहती है, ‘गरीबी ने देश छुड़ाई दयो। मिली होगी बड़ी जाति को आजादी–हमें तो काम करके केऊ रोटी नाय दई। छुआछुत नांय होती तो मैं कहूँ चाय-बीड़ी की दुकान ही खोल लेती।’

इस प्रकार आडंबर युक्त झूठे पूजा-पाठ एवं स्नान-ध्यान को मनुष्यता विरोधी बताते हुए दलित जीव की मुक्ति का नया संदेश दिया है। उन्होंने ब्राह्मणवाद के निहित स्वार्थपूर्ण रवैये को बेनकाब करते हुए दलित समाज को सावधान किया है, यह अपने आप में दलित वैचारिकी के लिए महत्वपूर्ण संदेश है।
यदि हम उनके काव्य-साहित्य को देखें तो उसमें भी दलित वैचारिकी के अनगिनत सूत्र पिरोये हुए मिलते हैं।

अपने बचपन के दिनों में गाँव की एक सभा में श्यौराज सिंह बेचैन ने एक कविता सुनाने का यों उल्लेख किया है–

‘सभा में बैठे हैं सब अच्छे
बेचकर पत्नी के लच्छे
पिता ऐसे मन के कच्चे
भला क्या सीखेंगे बच्चे?’

इस प्रकार की तुकबंदी वे शुरू से ही किया करते–

‘चलो स्कूल करें तैयार
पढ़े-लिखे हो जाएँ होशियार’

‘ताजे अंडे रुपये के चार
आज नगद कल उधार
अंडे खाए हो होशियार
जो ना खाए वह बीमार’

एवं इसी प्रकार–

‘रस के भरे रसीले नींबू-दस के दो
हँस कर लो भाई हँस कर लो।’

इन कविताओं के माध्यम से भी स्पष्टतः देखा जा सकता है कि बचपन में ही दुखों से लड़ने का जो माद्दा श्यौराज सिंह बेचैन में परिलक्षित होता है, वह दलित संघर्षों में शिक्षा, धैर्य और मेहनत की महत्ता को रेखांकित करता है।

उनके काव्य-साहित्य से ही एक उद्धरण से इस बात की पुष्टि हो जाती है। कुख्यात दस्यु सुंदरी फूलन देवी पर लिखा गया उनका पहला कविता-संग्रह सन् 1982 ई. में प्रकाशित हुआ। इसका नाम था ‘सुंदरी फूलन देवी बारहमासी’, जिसमें एक दलित महिला के शोषण की अजीबोगरीब दास्तान है। फूलन देवी सामाजिक विषमता की शिकार ही नहीं होती बल्कि स्त्री और दलित होने की दोहरी वेदना को सहन करते हुए अंततः हिंसा का रास्ता अपनाती है तथा एक क्रांतिकारी महिला के रूप में अपना आदर्श प्रस्तुत करती है–

‘लाखों होंगी फूलन वरना यह समाज बदलो।’

‘शासकों से लड़ना सीखो
जाति-धर्म पर मत जाओ
बराबरी का दर्जा लो दुनिया की महिलाओं।’

इस कविता में महत्वपूर्ण बात यह है कि शासन द्वारा दस्यु और डाकू घोषित किए जाने वाली महिला को दलित साहित्य में एक आदर्श के रूप में प्रस्तुत किया गया है जो अन्याय और अत्याचार के खिलाफ लड़ने के लिए समाज की अगुवाई करती है। ऐसी भावना समाज के तथाकथित उच्च वर्ग की मान्यताओं के खिलाफ है, लेकिन वह शोषित वर्ग के पक्ष में एक मजबूत आवाज है।

बेचैन जी का दूसरा कविता संग्रह ‘नई फसल’ नाम से सन् 1989 ई. में प्रकाशित हुआ है। उनकी एक कविता है ‘तालीम पर पाबंदी, रोटी के लाले। गोरों से कहीं ज्यादा जालिम यह काले थे।’

एक अन्य कविता में वे लिखते हैं–

‘चाँद लगा रोटी का टुकड़ा, भूखे पेट लिखा मैंने
शामिल होकर मजदूरों में अपना रेट लिखा मैंने।’

इन कविताओं में स्पष्ट रूप से दलित जीवन की त्रासदी को देखा जा सकता है।
सन् 1995 में ‘क्राँच हूँ मैं’ के नाम से उनका तीसरा कविता संग्रह आया–

‘तुम उदार थे गाय के प्रति
हम थे आदमी की शक्ल में निरी गाय।’

इसी प्रकार कई अन्य कविताओं के जरिये वे दलित वेदना तथा सामाजिक भेदभाव के विरुद्ध अपना प्रतिरोध दर्ज करते हैं–

‘वो मुझे मान भी दें
प्यार भी दें
शोहरत भी
मेरी आजादी न देंगे
तो कुछ नहीं देंगे।’

उनका चौथा कविता संग्रह ‘चमार की चाय’ 2017 में प्रकाशित हुआ है। वे इस कविता संग्रह की एक कविता में लिखते हैं–

‘चमार की चाय
पीना तो दूर
छुई भी नहीं जा सकी।

पिछड़े-अगड़े
ब्राह्मण-बनिए
सबने कर दिया बहिष्कार
और फिर चाय भी नहीं बेच सका-दलित बेरोजगार
ग्राहक बचे भंगी-चमार
उनको बर्दाश्त नहीं था, ऐसा अपमान-तिरस्कार।’

इन कविताओं में निश्चित रूप से दलितों के प्रति अन्याय-अत्याचार के विरुद्ध प्रतिरोध की आवाज उठाई गई है जो दलित वैचारिकी के अनुसार उसके मानकों पर खरी उतरती है।

उनका सबसे नया ताजा कविता संग्रह सन् 2018 में आया है, ‘भोर के अँधेरे में’ नाम से। इस संग्रह की एक कविता में वे लिखते है–

‘खुशियाँ है तो गम भी है
रौशनी है तो अँधेरा भी है
पर इस होने से क्या होता है?
वे बोले–यह हमारा गौरव है,
और यही हमारी विविधता है
पर यह तो संविधान पूर्व की ही व्यवस्था है
और यह साहित्य, संगीत?
यहाँ भी तो यथास्थिति की ही चर्चा है
समता स्वतंत्रता वाला बदलाव कहाँ है?’

यहाँ कवि स्पष्ट करता है कि जिस आजादी को आम आदमी के मुक्ति का नया बयान कहा गया था उसमें भी यथास्थिति बरकरार है। इस प्रकार कवित आमजन की झूठी आजादी से सचेत करता है।

श्यौराज सिंह बेचैन की कहानियों में उनका कहानी संग्रह ‘भरोसी की बहन’ महत्वपूर्ण है। एक कहानी ‘संदेश’ नाम से है जिसमें दलित युवक तथा उच्च जातीय सवर्ण स्त्री के बीच शादी से उपजे द्वंद्व और विरोधाभास का वर्णन है। सवर्ण स्त्री दलित-समाज से अपनी पारंपरिक घृणा के कारण अभी भी स्वयं तथा अपने पति को दलित रिश्तेदारों, नातेदारों, मित्रों तथा गाँव वाले लोगों से दूरी बनाकर रखने की हमेशा कोशिश करती है।

एक अन्य कहानी ‘रावण’ नाम से है तथा इसमें रामलीला में रावण का किरदार निभा रहा व्यक्ति मूल सिंह, अपना किरदार निभा नहीं पाता क्योंकि कोई दलित सवर्ण के सामने मंच पर चढ़कर ललकारे–यह सब दलित विरोधी मानसिकता को मंजूर नहीं था। गाँव के सवर्ण ने मूल सिंह को मार-मार कर अधमरा कर दिया। परंतु जब गाँव में जमीन की बात आती है तो कुछ गाँव के लोग उसे मनाकर शहर से गाँव ले जाते हैं। इस प्रकार लेखक ने दोहरे चरित्र वाली सवर्ण मानसिकता को उभार कर दलित चेतना को नया आयाम दिया है।

श्यौराज सिंह बेचैन का एक अन्य बहुत ही महत्वपूर्ण कार्य दलित-पत्रकारिता को लेकर है जिसमें उन्होंने डॉक्टर अंबेडकर की पत्रकारिता पर गंभीर अध्ययन किया है तथा इसी विषय में उन्हें पीएचडी की उपाधि भी प्राप्त हुई है। बेचैन जी ने डॉ. अंबेडकर की पत्रकारिता के संघर्षों को भी सामने रखा है तथा साबित किया है कि अंबेडकर सवर्णवादी मीडिया के विरोध तथा उनके द्वारा लगातार उपेक्षित होकर भी इससे निराश न होकर, वे अपना स्वयं का मीडिया विकसित करते हैं तथा अपनी बात अपने लोगों तक सफलतापूर्वक पहुँचाते हैं। उनकी पत्रकारिता ने ही सामान्य दलित-पीड़ित जनता में अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करने की जागृति पैदा की। यही कारण है कि इस तरह का संघर्ष ही दलित साहित्य के निर्माण में सकारात्मक योगदान करता है। ऐसे ही साहित्य को दलित साहित्य कहते हैं जिसके द्वारा एक बहुत बड़े वर्ग को अपने अधिकारों के प्रति चेतना पैदा करने तथा प्रेरणा देने का संदेश प्राप्त होता है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि श्यौराज सिंह बेचैन का पूरा साहित्य दलित साहित्य की कसौटी पर शत-प्रतिशत खरा उतरता है। ऐसे साहित्य को जनसामान्य के बीच में अधिक से अधिक फैलाए जाने की जरूरत है।