जोतीबा फुले और किसान समस्या

जोतीबा फुले और किसान समस्या

प्रसिद्ध चिंतक और समतावादी विमर्श के विलक्षण सिद्धांतकार महात्मा जोतिबा फुले ने 19वीं सदी के आठवें दशक में ‘किसान का कोड़ा’ (1883) शीर्षक से बड़ी मारक किताब लिखकर किसानों की समस्या को बड़ी शिद्दत से उठाया था। हमारे यहाँ किसान दुर्दशा को लेकर राज्य संबंधी कारणों पर विचार तो किया गया लेकिन किसान समस्या पर बात करते समय सामाजिक और धार्मिक कारणों को बड़ी चलाकी से गोल कर दिया जाता है। महात्मा जोतिबा फुले ऐसे किसान विमर्शकार के तौर पर उपस्थिति होते हैं जिन्होंने किसानों की दुर्दशा को धार्मिक और राज्य संबंधी कारणों के आइने में देखा था। जोतिबा फुले ने किसानों की दुर्गति का जितना जिम्मेदार सरकारों की किसान विरोधी नीतियों को माना था, उतना ही उच्च श्रेणी की मानसिकता रखने वाले पुरोहितों की ऊटपटाँग प्रथाओं को भी माना था। जोतिबा फुले ने स्पष्ट स्वर में कहा था कि ब्राह्मणों और पुरोहितों ने अनुष्ठानों और संस्कारों की आड़ में बड़ी चालाकी से किसानों के संचित धन और अनाज पर डाका डाला है। जोतिबा फुले ने सवाल उठाया कि जैसे, सरकार किसानों से कर वसूलती है वैसे ही पुरोहित और पोथाधारी भाँति-भाँति की धार्मिक और सामाजिक प्रथाओं के बहाने किसानों से कर वसूली करते हैं। जोतिबा फुले का आकलन था कि जब से किसान के घर बच्चा पैदा होता है उसी समय से पुरोहित तरह-तरह के संस्कारों के बहाने से किसानों का धन और अनाज उड़ा ले जाते हैं। वर्णधर्म के सिद्धांतकारों ने ऐसी रीतियाँ चला दी कि किसानों का कोई भी अनुष्ठान ब्राह्मणों और पुरोहितों के दखल के बिना पूरा नहीं होता था। इन अनुष्ठानों के कारण बहुत सारे किसान साहूकारों और जमींदारों से कर्ज लेकर पुत्र-पुत्रियों के विवाह में पुरोहितों को दान और द्रव्य देकर कंगाल हो जाते थे।

जोतिबा फुले जोर देकर कहते हैं कि इन पुरोहितों और पोथाधारियों के कारण किसान कंगाल और भूमिविहीन होते जा रहे हैं। यह सही बात है कि किसानों को मरते दम तक पुरोहितों की प्रथाओं से छुटकारा नहीं मिलता था। सन् 1883 में फुले जी का कहना था कि गो-दान और श्राद्ध जैसे अनुष्ठानों ने किसानों की आर्थिक स्थिति का भट्ठा बैठाने में बड़ी अहम भूमिका निभाई है। आगे चलकर सन् 1936 में ‘गो-दान’ की हक़ीक़त को कथाकार प्रेमचंद ने ‘गो-दान’ उपन्यास में बड़ी शिद्दत से चित्रित किया था। किसानों के घर की स्त्रियों को पुरोहित ग्रह-नक्षत्रों का भय दिखाकर और इसके निवारण का अनुष्ठान कराने के बहाने किसानों का धन लूटा करते थे। जोतिबा फुले का आकलन था कि पुरोहितों की लूट-खसोट का यह सिलसिला सालों-साल से चलता आ रहा है, जिससे किसानों का बड़ा आर्थिक नुकसान होता रहा है। पुरोहित और पुजारी भोले-भाले किसानों को प्रयाग और काशी यात्रा पर ले जाकर उनका हजारों रुपया खर्च करवा डालते थे। इस यात्रा से लौटकर ब्राह्मण भोज के नाम पर किसानों का धन पानी में मिलवा देते थे। जोतिबा फुले का प्रबल दावा था कि किसानों की आर्थिक बदहाली और कंगाली के काफी हद तक ब्राह्मणों और पुरोहितों की रीतियाँ और प्रथाएँ जिम्मेदार हैं। ब्राह्मणों का सरकारी विभागों में वर्चस्व होने से समाज में भी उनका वर्चस्व कायम था। जोतिबा फुले लिखते हैं कि ‘सरकारी विभागों में ब्राह्मण कर्मचारियों का वर्चस्व होने की वजह से उनकी जाति के स्वार्थी भट्ट-ब्राह्मण अपने मतलबी धर्म के नाम पर अज्ञानी किसानों को इतना फँसाते हैं कि उनके पास अपने नन्हें-मुन्ने बच्चों को स्कूल में दाखिल कराने के लिए साधन नहीं बचते। यदि किसी के पास उस तरह के साधन भी हों, तब भी उनकी गलत सलाह के कारण इस तरह की इच्छा नहीं होती।’ इस महान विचारक का अँग्रेज सरकार से आग्रह था कि ब्राह्मणी प्रथाओं को बंद करवाकर किसानों को पुरोहितों के शिंकजे से आजाद करवाएँ।

जोतिबा फुले ने ब्रिटिश सरकार पर आरोप लगाया कि सरकार बहादुर अपने गोरे और काले अफसरों की बातों को किसानों के संबंध में आँख मूँद कर विश्वास कर लेती है, जबकि गोरे और काले दोनों तरह के अफसर किसानों के हितैषी नहीं बल्कि खून चूसने वाले होते हैं। ब्रिटिश सरकार का निज़ाम किसानों की वास्तविक स्थिति को सरकार के सामने ठीक से नहीं रखता है। गोरे और उच्च श्रेणी की मानसिकता वाले भारतीय अफसर किसानों की समस्या को उठाने के बजाय उस पर परदा डालने का काम करते हैं। गोरे और कुलीन कर्मचारी सरकार बहादुर की नजरों में अच्छा कहलाने की सदिच्छा से किसानों की कठिनाइयों को नहीं बताते है। इसका खामियाजा बेचारे मेहनतकश किसानों को उठाना पड़ता है। इस महान विचारक का ब्रिटिश सरकार से आग्रह था कि यदि सरकार सचमुच में किसानों की हितैषी है और उनकी वास्तविक स्थिति का पता लगाना चाहती है तो किसानों के बीच से ऐसे व्यक्ति का चुनाव करना चाहिए, जो किसानों के दुख-दर्द और उनकी पीड़ा को ठीक से समझता हो। महात्मा फुले ने सरकार से कहा कि गोरे और उच्च कुलीन अफसर अपनी अय्यासी में इतना मशगूल रहते हैं कि किसानों पर तरह-तरह के कर सरकार से लगवा देते हैं। लोकल फंड के नाम पर किसानों से लाखों रुपया वसूला जाता है, लेकिन उस पैसे को किसानों की भलाई में नहीं बल्कि गोरे और कुलीन वर्ग के अफसरों के भोग-विलास पर खर्च कर दिया जाता है।

जोतिबा फुले ने किसानों के हित में सरकार से आग्रह किया कि वह गोरे और काले कर्मचारियों की प्रशंसा में आकर उन्हें मोटी-मोटी तनख्वाह देने के लिए किसानों पर कर का बोझ न लादें। इन बेवजह करों से किसान कंगाल और लूटे जाते हैं। यहाँ तक कि अफसरों की अय्यासियों की पूर्ति के लिए चुंगी आदि टैक्स के लगाने से किसानों की जमीनें तक बिकी जा रही हैं। जोतिबा फुले की माँग थी कि किसानों की भलाई के लिए सरकारी अफसरों की तनख्वाह और पेंशन कम कर दी जाए क्योंकि ऐसा करने से किसानों को कई तरह के टैक्स से निजात और राहत मिलेगी। जोतिबा फुले ने चेतावानी के लहज़े में सरकार से कहा कि सभी सरकारी विभागों के गोरे और कुलीन कर्मचारियों के लिए आवश्यकता से ज्यादा दिए हुए वेतन को एकदम कम कर दें और अज्ञान की वजह से उत्पीड़ित दुर्बल शूद्र किसानों की विद्या पर ध्यान देना चाहिए। उनके सिर पर लादा गया चुंगी आदि कर कम न हुआ तो निकट भविष्य में इस जुल्म का अंजाम अच्छा नहीं होगा। जोतिबा फुले ने 19वीं सदी के उत्तरार्द्ध में ही भाँप लिया था कि समाचार पत्रों में बैठे उच्च कुलीन संपादक किसान हितैषी नहीं हैं और उन्हें किसानों का मुद्दा उठाने में जरा भी दिलचस्पी नहीं है। जोतिबा फुले ने ब्रिटिश सरकार को सुझाव दिया कि किसानों को लेकर उच्च श्रेणी के लेखकों और अखबारों की गुदगुदाने वाली कलम पर विश्वास नहीं करना चाहिए। ब्रिटिश सरकार को अपने स्तर पर किसानों की जमीनी हक़ीक़त जानने के बाद ही किसानों पर कर लगाने का फैसला लेना चाहिए। जोतिबा फुले ने 19वीं सदी के आठवें दशक में किसानों की दुर्दशा का जिम्मेदार ब्रिटिश सरकार और उसके निज़ाम को माना था। उनका कहना था कि काले और गोरे कर्मचारियों ने रात-दिन मज़ा लूटने के लिए ब्रिटिश सरकार की आँखों में धूल झोककर किसानों पर तरह-तरह से हर्जाना लगवाकर उनको इतना बदहाल और कंगाल कर दिया है कि गवर्नर साहब को अपने दरबार में चाय-पान के लिए उन्हें निमंत्रण देकर बुलाने में शर्म आती है। अरे जिनकी मेहनत पर सरकारी फौजी लवा जामा, बारूद, गोला गोरे कर्मचारियों की हद से ज्यादा अय्याशी और काले कर्मचारियों का हक से ज्यादा वेतन, पेंशन और दान दक्षिणा मिलता है उन किसानों को क्या पान-बीड़ी का भी सम्मान नहीं मिलना चाहिए। ज्योतिबा फुले ने अँग्रेज सरकार से कहा कि किसान सभी देशवासियों के आधार हैं, लेकिन उनके इतने बुरे हाल है कि उन्हें न तो पेट भर रोटी मिलती है और न तो तन ढकने के लिए कपड़ा। किसानों की गर्दन पर हमेशा सरकारी लगानों की तलवार लटकी रहती है।

जोतिबा फुले ने ब्रिटिश सरकार से आग्रह किया था कि जैसे यूरोप के किसानों को कृषि आधारित शिक्षा दी जाती है वैसे ही सरकार की तरफ से भारतीय किसानों के लिए कृषि शिक्षा-व्यवस्था का प्रबंध करना चाहिए। यदि किसी किसान का बच्चा कारीगरी में दक्ष है, तो ऐसे बच्चों की परीक्षा लेकर अँग्रेज सरकार को उन्हें इंग्लैंड के कृषि स्कूलों में सरकारी खजाने पर पढ़ने की व्यवस्था भी करे। जोतिबा फुले की ब्रिटिश सरकार से माँग थी कि यदि सरकार सच्चे मन से शूद्र किसानों का भला चाहती है तो उसे किसानों के लिए वार्षिक सम्मेलन अयोजित करवाना चाहिए। और, सरकार को अच्छे किसानों को इनाम और उपाधियाँ देनी चाहिए। इससे किसानों का मनोबल बढ़ेगा और समाज में उन्हें सम्मान और प्रतिष्ठा प्राप्त होगी।

जोतिबा फुले ने किसान मसले पर ब्रिटिश सरकार की बड़ी तीखी आलोचना की थी। इस महान विचारक ने कहा कि जब से अँग्रेजी राज़ कायम हुआ है, उस दिन से किसानों को बड़ी भयंकर लगानों से गुजरना पड़ रहा है। इस अँग्रेजी राज़ में किसानों के तंदुरुस्त और भार वाहक बैलों को मारना काटना शुरू कर दिया गया है। इससे किसानों के पास खेती-किसानी में काम आने वाले तंदुरुस्त बैलों का अभाव हो गया है। इसका असर किसानों की खेती-किसानी पर काफी पड़ रहा है। उन्होंने सरकार को सुझाव दिया कि जब तक भारत के किसान योरोपियन किसानों की तरह यंत्रों से खेती करने के लायक नहीं हो जाते हैं, तब तक सभी गोरे लोगों को हिंदुस्तान के पशुधन को जो खेती के लिए उपयोगी हैं, ऐसे गाय, बैल और उनके बछड़ों को काट कर के नहीं खाना चाहिए बल्कि उन्हें इनकी जगह पर यहाँ की भेड़ बकरियों का मांस खाना चाहिए या विदेशों से बैल आदि खरीद करके यहाँ लाकर उनको खाना चाहिए। यह ध्यान रखना चाहिए कि जोतिबा फुले ने बैलों के वध को रोकने की माँग का मसला धार्मिक दृष्टि से नहीं बल्कि किसानों के नुकसान की वजह से उठाया था। जोतिबा फुले ने सरकार से माँग की कि बैलों का वध रोकने के लिए कानून बनाकर अमल में लाया जाए, क्योंकि भारत में बैलों के बिना किसान न तो खेती कर सकते हैं और न ही अपना समान बाजारों में ले जा सकते हैं।

19वीं सदी के आठवें दशक में जोतिबा फुले ने बड़ी शिद्दत के साथ किसानों के हकों के प्रति गोलबंदी करने में अहम भूमिका निभाई थी। उन्होंने किसान विरोधी अँग्रेज सरकार की नीतियों पर बड़ा मारक प्रहार किया था। जोतिबा फुले ने सरकार और उसके निज़ाम की किसान हितैषी छवि की कलई खोल कर रख दी थी। इस महान विचारक का कहना था किसानों की दुर्दशा के जितने जिम्मेदार अँग्रेज हैं उतने ही जिम्मेदार उच्च श्रेणी की मानसिकता रखने वाला कुलीन तबका भी हैं। जोतिबा फुले उन्नीसवीं सदी के उत्तर्राध में किसानों की जिन समस्याओं पर बात कर रहे थे, 21वीं सदी में आकर भी उनका कोई ठोस समाधान नहीं ही दिखाई देता है। वर्तमान समय में जब किसान अपने हकों की दावेदारी लिए आंदोलनरत हैं तो सरकारी निज़ाम के द्वारा बड़ी निर्ममता से उनके आंदोलन को कुचलने का प्रयास किया जा रहा है। आज भी किसानों को उच्च श्रेणी मानसिकता वाले बड़ी हिकारत भरी दृष्टि से देखते हैं। भारत की आजादी के सात दशक बीत जाने के बाद भी सरकारें किसानों की उपेक्षा ही करती दिखाई दे रही हैं। जोतिबा फुले के शब्दों में कहा जाए तो सरकारें किसानों को लेकर तभी ठोस कदम उठाएँगी, जब किसानों का कोड़ा सरकार और निज़ाम की पीठ पर पड़ेगा।