स्वामी अछूतानंद का ‘आदि हिंदू’ ही आजीवक है

स्वामी अछूतानंद का ‘आदि हिंदू’ ही आजीवक है

चंद्रिका प्रसाद जिज्ञासु के प्रयासों से साल 1960 में ‘आदि हिंदू आंदोलन के प्रवर्तक श्री 108 स्वामी अछूतानंद जी हरिहर’ की जीवनी सामने आई। इनसे पहले साल 1956 में बाबा साहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर अपनी किताब ‘दी बुद्धा एंड हिज धम्मा’ पूरी कर चुके थे। इन दोनों पुस्तकों का दलितों के लिए क्या महत्त्व है? अति पिछड़े वर्ग कलवार जाति के एक व्यक्ति ने एक दलित महापुरुष की जीवनी, उनके चिंतन और आंदोलन से परिचय कराया है। कोई भी व्यक्ति स्वामी अछूतानंद पर लिखी इस किताब को पढ़कर दलितों के दुख-दर्द, उनकी सोच और आंदोलन को जान जाता है। इसके विपरीत, एक दलित या अछूत डॉ. अंबेडकर एक क्षत्रिय राजकुमार की जीवनी लिख रहे हैं, जिसे पढ़कर दलितों के दु:ख-दर्द, उनकी सोच और आंदोलन की रत्ती भर भी जानकारी नहीं मिलती। दलित के नाम पर इस किताब में सुणीत भंगी और उपालि नाई झाँकते दिखाई देते हैं, जो क्रमशः बौद्ध मठों की सफाई और भिक्षुओं के बाल मूँड़ने के लिए रखे गए होंगे। क्या इसे डॉ. अंबेडकर यानी एक दलित की हीनता माना जाए जो एक क्षत्रिय राजकुमार की जीवनी लिखते हैं? कल को अगर दलितों की लिखी सारी किताबें नष्ट हो जाएँ और केवल ‘दा बुद्धा एंड हिज धम्मा’ बची रह जाए तो दलित आंदोलन की छोड़िए दलितों के बारे में ही कुछ नहीं पता चलना। इसके विपरीत, केवल जिज्ञासु जी द्वारा लिखी स्वामी अछूतानंद की जीवनी ही बची रह जाए तो दलित आंदोलन स्वतः अपनी गति से बढ़ जाएगा।

पुस्तक के प्राक्कथन में जिज्ञासु जी ने लिखा है, ‘नई पौध को पता नहीं है कि आदि हिंदू-आंदोलन के प्रवर्तक श्री स्वामी अछूतानंद कौन थे, क्या उनका संदेश था, क्या उनका मिशन था, क्या-क्या काम वे कर गए और जीवन को आत्मगौरव-पूर्ण स्वावलंबी बनाने के लिए वह कौन-सा राजमार्ग सुझा गए।’ (5) कितने दु:ख की बात है कि 1960 में अपनी इस पुस्तक में जिज्ञासु जी को 20 जुलाई, 1933 को दिवंगत हुए स्वामी अछूतानंद के बारे में ऐसी पंक्तियाँ लिखनी पड़ रही हैं। इससे दलितों की नालायकी और इनकी गुलामी को समझा जा सकता है। बताइए, स्वामी जी के देहांत के मात्र 27 वर्षों के भीतर ही दलित अपने महापुरुष को बिसरा बैठे! सोचा जा सकता है, सद्गुरु रैदास और कबीर साहेब का आंदोलन कितना ताकतवर रहा होगा, जो उनके नाम आज तक बचे रह गए। महान मक्खलि गोसाल को तो हमने विस्मृत ही कर दिया था।

जिज्ञासु जी ने आदि हिंदू आंदोलन की ग्यारह विशेषताएँ गिनाई हैं। इन विशेषताओं से इस आंदोलन की ताकत को समझा जा सकता है, जाना जाए ये विशेषताएँ क्या हैं :

  1. आदि हिंदू आंदोलन की सबसे बड़ी विशेषता उसकी व्यापकता थी। उसका क्षेत्र संकुचित नहीं, विस्तृत था।
  2. इसमें हर प्रांत से दलित जाति के प्रतिनिधि और दर्शक सम्मिलित होते थे।
  3. तीसरी विशेषता खानपान की एकता थी।… आदि हिंदू आंदोलन की सभाओं में होने वाले प्रीति-भोजों में देखा गया कि सभी दलित जातियों के भाई एक पंगत में बड़े आनंद से भोजन कर रहे हैं, कोई भेद-भाव उनमें नहीं है।
  4. द्विजों द्वारा लादे गए स्वार्थ पूर्ण स्रोत-स्मार्त-धर्म के, जो कि जन-शोषण के विधान हैं, विरोध के अतिरिक्त, अछूतों के विभिन्न विश्वासों के साथ कोई संघर्ष न होता था।
  5. वह (यह) भारत के बहुजन-समाज का आंदोलन था।
  6. उसकी (इसकी) ऐतिहासिक और पुरातात्विक सच्चाई थी।
  7. सातवीं विशेषता उसमें धर्मांतर की भावना का अभाव है। ‘आदि हिंदू’ कहते ही वह भारत की अपार संपत्ति, संस्कृति, धर्म और सभ्यता का स्वामी हो जाता है जो आर्यों के आने से पूर्व इस देश में विद्यमान थी।…ऐसी दशा में उसे किसी भी भारतीय धर्मों–चाहे वह आर्यों, ब्राह्मणों, यवनों, ईसाइयों या किन्हीं भी विदेशियों द्वारा प्रचलित हो–दीक्षित व सेवक होने की आवश्यकता नहीं रहती।
  8. आदि हिंदू शब्द में चूँकि भारत की आदि-सनातन मौलिक संस्कृति का दावा है, इसलिए जैन और बौद्ध धर्म भी उसके अंतर्गत, उसके परिमार्जित अंग बन जाते हैं।
  9. इस आंदोलन की नवीं विशेषता यह है कि ‘वह (यह) भारतीय मौलिक समाजवाद तथा भारतीय समाज-शोषकों के धार्मिक और सामाजिक विधानों के विरुद्ध क्रांति है।
  10. ‘आदि हिंदू-आंदोलन की दसवीं विशेषता उसका आत्मवाद है।’ स्वामी जी बताते हैं, ‘अनुभव-सिद्ध आत्मज्ञान वेदों से परे की बात है, जो सदा ‘संत-मत’ के रूप में प्रचलित रहा और प्रचलित है।’ स्वामी जी की बताई इस बात से ‘आत्म’ शब्द को लेकर खड़े की गए सभी भ्रम मिट जाते हैं। यह ‘अनुभव-सिद्ध आत्म ज्ञान’ ही बुद्धि और विवेक का आधार है। यह आत्म ज्ञान ही इस देश में चले अवर्णवाद का आधार बनता है। यही आजीवक है, जिसकी बुनियाद पर भक्ति आंदोलन खड़ा है।
  11. ‘आदि हिंदू आंदोलन की ग्यारहवीं और सर्वतोमहान विशेषता उसकी आत्मनिर्भरता अथवा अपने पैरों पर खड़ा होना है। दूसरों की सहायता और दूसरों की दया का भरोसा रखने वाली कोई जाति कभी उन्नति के शिखर पर आरूढ़ नहीं हो सकती।’

असल में यह एक मजबूत अवधारणा है, इसे जिज्ञासु जी को भी समझना चाहिए था। जैसे राजनीति में कोई गाँधी आपको नेतृत्व नहीं दे सकता, वैसे ही धर्म का मामला तो जीवन-मरण से जुड़ा है। इसमें कोई बुद्ध कैसे दलित को अपना नेतृत्व दे सकता है? इसीलिए बौद्ध धर्मांतरण ‘आदि हिंदू आंदोलन’ के सामने पिट जाता है। दूसरे, खुद डॉ. अंबेडकर ने स्वामी अछूतानंद के नेतृत्व को स्वीकार नहीं किया अन्यथा क्या वजह है कि उनकी लेखनी में स्वामी जी और आदि हिंदू आंदोलन का जिक्र तक नहीं मिलता, ऐसे में भला दलितों का बौद्ध धर्म में उद्धार कैसे हो सकता है? ‘आदि हिंदू आंदोलन का लक्ष्य यही था कि आदि हिंदू परायों का मुँह ताकना त्याग कर अपने पैरों आप खड़े हों।’ इस विशेषता में आजीवक छुपा हुआ है। धर्मांतरण का एक अर्थ पराया मुँह तकना ही होता है। दरअसल जिज्ञासु जी ने आदि हिंदू आंदोलन की जो विशेषताएँ गिनाई हैं वे बहुत महत्त्वपूर्ण हैं, लेकिन यह आंदोलन इससे भी बड़ा था, इसमें दलितों की धार्मिक भावना और पहचान के स्वर की लहरें उठ रही थी। यह दलितों का धार्मिक आंदोलन तो था लेकिन हिंदू शब्द इसकी ताकत को कम कर रहा था, जिसे आज ब्राह्मण ने अपने हिसाब से बना लिया है। बावजूद इसके अभी भी ब्राह्मण अलग से पहचान में आ जाता है।

‘आदि हिंदू आंदोलन’ के माध्यम से हम ब्राह्मण के उदारवादी चेहरे के सच को समझ सकते हैं। आजादी के समय इन तथाकथित उदारवादियों ने उन्हें हमारे महापुरुषों से जो वादे किए थे उन्हें धता बताते हुए ये अट्टहास कर रहे हैं। दलितों की हत्याएँ और हमारी स्त्रियों पर बलात्कार इस बात की गवाही देते हैं। जो समस्याएँ स्वामी अछूतानंद के सम्मुख थीं वे आज भी ज्यों की त्यों बनी हुई हैं। असल में दलितों को किसी से सावधान रहने की जरूरत है तो वह है उदारवाद की ओट में छुपा ब्राह्मण, जिसने वामपंथ का नकाब ओढ़े रखा है। अगली बात जो इसमें बतानी है वह है धर्मनिरपेक्षता की राजनीति। इन तथाकथित उदारवादियों ने दलितों-पिछड़ों और आदिवासियों को धोखे में रख कर धर्मनिरपेक्षता की राजनीति का छद्म गढ़ा। ये अपने धर्म के साथ धर्मनिरपेक्ष बनने का ढोंग रचते रहे, उधर दलित, पिछड़े और आदिवासी अपने आदि हिंदू का विस्तार न करके इनके छद्म में उलझते गए। बताइए, धर्मनिरपेक्ष सरकार सोमनाथ मंदिर का पुनर्निर्माण करवा रही थी! क्या दलितों को आज की राजनीति समझ नहीं आ रही? असल में, धर्मनिरपेक्षता उस दिन इस देश की जरूरत बन जाएगी जिस दिन इस देश के बहुसंख्यक ‘दलित-पिछड़े-आदिवासी’ अपनी पारंपरिक पहचान आजीवक पर आ जाएँगे। अभी तो धर्मनिरपेक्षता के नाम पर महज तमाशा ही होता है। सार्वजनिक पद पर आसीन व्यक्ति कैसे मंदिर, मस्जिद और गुरुद्वारे जाने का ढिंढोरा पीट सकता है? फिर, कोई कैसे धर्म को व्यक्तिगत मामला बता सकता है? ‘आदि हिंदू आंदोलन’ के रूप में हमें स्वामी अछूतानंद जी की दृष्टि का कायल होना चाहिए, जो अपनी परंपरा और चिंतन में अपना धार्मिक अस्तित्व तलाश रही थी। स्वामी जी सदगुरु रैदास और कबीर साहेब के चिंतन से जुड़े थे। उन्होंने बुद्ध की शरण नहीं ली। दलितों को इस अंतर का ध्यान रखना चाहिए।

यह ध्यान देने वाली बात है कि स्वामी अछूतानंद लगभग दो दशकों तक आर्य समाजियों के साथ रह कर काम कर चुके थे। जब आर्य समाज का असली चेहरा स्वामी जी के सामने खुल गया तो उन्होंने उसे छोड़ दिया। उसके बाद स्वामी जी ने अपना बाकी का जीवन अछूतों के उत्थान के लिए लगा दिया। जब हम जिज्ञासु जी की इस पुस्तक ‘आदि हिंदू आंदोलन’ के प्रवर्तक श्री 108 स्वामी अछूतानंद जी ‘हरिहर’ का अध्ययन करते हैं, तो डॉ. अंबेडकर को ले कर दिया जा रहा तर्क निर्मूल सिद्ध हो जाता है। स्वामी जी के समय-समय पर दिए गए भाषण इस बात की गवाही देते हैं। अमरावती में 28 अप्रैल, 1930 को अपने सुप्रसिद्ध भाषण में स्वामी जी कहते हैं, ‘असुर शब्द का अर्थ यही होता है कि जो सुर नहीं है अर्थात जो सुरों से भिन्न जाति का है। अनार्य का अर्थ भी यही है कि जो आर्य-जाति से भिन्न है। ब्राह्मणी मत से असुर और दैत्य आदि यदि सचमुच बुरे नाम हैं, तो इसका मतलब यह होता है जैसे मुसलमानों को ‘यवन’ और अँग्रेजों को ‘खृष्टान’ आदि कहकर घृणा फैलाई जाती है और स्वार्थवश या भय-वश उन्हें सलाम भी किया जाता है। किंतु पीठ पीछे म्लेच्छ या मेघनादवंशी कहने से मुसलमान या अँग्रेज नीच नहीं हो जाते। ठीक यों ही आर्य लोगों ने अपने विरोधियों को भी कहा। असल में, सच तो यह है कि ‘सुरापान’ करने वाले सुर कहलाए और जो सुरा से दूर थे, वे अ-सुर कहे गए। इतना ही नहीं, इस सुरापान के साथ बलात्कार अपरिहार्य रूप से जुड़ा है। यही इन सुर अर्थात आर्यों की विशेषता है।

आजीवक चिंतक डॉ. धर्मवीर ने द्विज संस्कृति की पहचान जार संस्कृति के रूप में की है। इस जार संस्कृति का अर्थ है बलात्कार और जारकर्म पर खड़ी संस्कृति। जारकर्म ‘ना-तलाक’ की व्यवस्था में सुचारु रूप से चलता रहता है। इसे पुनर्विवाह पर रोक का प्रतिफल कहा जा सकता है। उधर वर्ण व्यवस्था में दलित द्विजों के गुलाम बने रहे हैं। दलितों की स्त्रियों पर बलात्कार ये अपना हक समझते रहे हैं। गाँव-देहातों में आज भी बलात्कार पर चुप की सलाह जार संस्कृति के दर्शन मुख्य औजार कहा जा सकता है। चंद्रिका प्रसाद जिज्ञासु जी ने लिखा है, ‘चर्मकार, पासी और कंजड़ प्रायः ब्राह्मण, ठाकुरों की जिम्मेदारी में, गाँवों में ‘भूदास’ बना दिए गए थे। उन्हें गाँव के छोर पर रहने को थोड़ी सी जगह तथा गुजारे के लिए कुछ बिस्वा जमीन दे दी जाती थीं, जिसके बदले में उन्हें जमींदारों की सारी बेगार करनी पड़ती थी। मर्द बाहरी बेगार करते थे, औरतें घरेलू कार्य जैसे कि लीपना, पोतना, धान-कूटना, चक्की पीसना इत्यादि। फागुन के महीने में बसंत पंचमी से लेकर होलिका दाह तक, जमींदारों के जवान लड़के उनकी नई बहुओं के साथ रोज दोपहर के बाद डगा का खेल खेलते थे। डगा के खेल में एक ओर सारे गाँव या दो-तीन गाँवों की गरीब अछूतों की नई बहुएँ लाठी की ताकत से जबरदस्ती बुलवाकर खड़ी की जाती थीं, दूसरी ओर जमींदारों के जवान मुस्टंडे गोल बाँधकर खड़े होते थे। बीच में अरहर की हरी-हरी छड़ियाँ डाल दी जाती थीं। जमींदारों के जुवंट अत्यंत वीभत्स और महागंदे रसिया गाकर उनकी ओर बढ़ते तथा घृणित मुद्राएँ बनाकर उन्हें दिखाते थे और बेचारी औरतें उन अरहर की छड़ियों से उन्हें मारने दौड़ती थीं। यदि कोई औरत अपनी हद से आगे बढ़ने में पकड़ ली जाती थी तो उसकी बयान से बाहर ‘गतमुकत’ बनती थी। यह डगा का खेल एक प्रकार का निर्लज्ज कबड्डी का खेल था जिसे जमींदारों के जवान लड़के लाचार अछूतों की असहाय गरीब बहुओं के साथ खेलते थे।’ स्वामी जी के प्रयासों से इस कुत्सित खेल पर ग्वालियर रियासत ने रोक लगाई। यह आज से मात्र 80-90 साल पहले की बात है जब देश गाँधी जी के नेतृत्व में देश की आजादी की लड़ाई लड़ रहा था। उधर, स्वामी जी इन द्विजों से दलितों की गुलामी के खिलाफ लड़ रहे थे। यह स्वामी जी के ‘आदि हिंदू आंदोलन’ का ही प्रभाव था कि गाँधी जी को हरिजन उत्थान का प्रयास करना पड़ा।

आदि हिंदू आंदोलन में फूट डालने के लिए चंद्रिका प्रसाद जिज्ञासु जी ने तीन द्विज नेताओं को चिह्नित किया है, इन्होंने लिखा है, ‘स्वामी अछूतानंद…का प्रभाव घटाने, उनके नेतृत्व को भंग करके अछूतों को हिंदुओं के नेतृत्व में रखने के लिए तीन हिंदू महापुरुष अछूतोद्धार करने लगे। आर्य समाज की ओर से स्वामी श्रद्धानंद, काँग्रेस की ओर से महात्मा गाँधी और शर्माशर्मी हिंदुओं की ओर से महामना पंडित मदनमोहन मालवीय जी,…महामना मालवीय जी पंजाबकेसरी लाला लाजपतराय जी एवं सेठ घनश्यामदास जी बिड़ला ने एक अखिल भारतीय अछूतोद्धार  सभा भी खोली थी।’ उधर, आदि धर्म मंडल रिपोर्ट में लिखा है, ‘अंत्यज उद्धार, पतित उद्धार और दयानंद दलित उद्धार जैसी संस्थाएँ अछूतों की मददगार नहीं। ये संस्थाएँ उच्च जातियों के हिंदुओं की ओर से चलाई जा रही हैं। वे भिखारियों की भाँति धन एकत्र करती हैं पर वे उसे अपने लिए ही खर्च करती हैं। वे इस धन को अछूतों के लिए नहीं खर्च करतीं। 99 प्रतिशत अछूतों को तो इन संस्थाओं के नाम भी नहीं पता, पर यदि आप उनकी रिपोर्ट पढ़ें तो वे दावों को बढ़ा-चढ़ा कर बताते हैं। सचाई यह है कि ये संस्थाएँ स्वार्थी लोगों की बनी हैं।’ देखा जा सकता है कि हमारे दो महान आंदोलनकर्ता इन सनातनियों और आर्यसमाजियों के असली चेहरे को उजागर कर रहे थे।

चंद्रिका प्रसाद जिज्ञासु जी ने आदि-हिंदुओं की सात मान्यताओं के बारे में भी बताया है, उनमें पहली मान्यता है, ‘मैं विश्वास करता हूँ कि ईश्वर केवल एक है और वह निरंजन, निर्विकार, अनादि, अनंत, अरूप, अज, अकाल, सर्वव्यापी अद्वितीय और सत्य है।…वही समस्त विश्व में व्याप्त है और उसी की ज्योति मुझ में भी प्रकाश-मान है।’ देख सकते हैं, इन पंक्तियों में दलित की ईश्वर विरोधी बना दी गई छवि ध्वस्त हो जाती है। इतना ही नहीं इन पंक्तियों में बौद्ध धर्मांतरण भी ध्वस्त हो जाता है, क्योंकि बुद्ध खुद को भगवान कह रहे हैं। इन सात मान्यताओं में अछूत अर्थात दलित का इस देश का आदि-निवासी होने, संतों का धर्म ही भारत का आदि-धर्म होने, जन्म-भेद, संप्रदाय-भेद व वर्ण-भेद की भावना मिथ्या होने, मन-वचन-कर्म से निष्पाप होने और अपने पूर्वजों के उज्ज्वल चरित्र और आदि वंश गौरव का प्रकाश करने की बातें भी हैं। इनके अतिरिक्त दलितों अर्थात आदि-हिंदुओं की यह मान्यता अपने आप में पूर्ण धर्म चिंतन की तस्वीर पेश कर देती हैं जिसमें लिखा गया है–‘मैं विश्वास करता हूँ कि परम संत कबीर के वचन अनुसार ब्राह्मणों के सारे धर्म-ग्रंथ स्वार्थ, झूठ और अन्याय पर आधारित हैं, और उन्हीं के धर्म शास्त्रों के विधान आदि-हिंदुओं के पतन और विनाश का कारण हैं। अतएव, मैं प्रज्ञा प्रतिज्ञा करता हूँ कि मैं ब्राह्मण देवताओं, ब्राह्मणी-अवतारों और ब्राह्मणी कथा कहानियों को मिथ्या और विनाशकारी समझकर उनका पूर्ण परित्याग करूँगा, और अपने जन्म, मुंडन, विवाह और मृतक आदि संस्कार ब्राह्मणी विधान या ब्राह्मणों के द्वारा कदापि न कराऊँगा।’ यों, देखा जा सकता है कि आदि हिंदू आंदोलन के केंद्र में कबीर साहेब और उनका चिंतन है। आदि हिंदू आंदोलन की इन्हीं मान्यताओं को आजीवक चिंतक डॉ. धर्मवीर ‘दलित सिविल कानून’ अर्थात ‘आजीवक सिविल कानून’ संहिताबद्ध कर पूर्णता प्रदान कर देते हैं।

स्वामी अछूतानंद का आदि हिंदू आंदोलन कितना विस्तृत था इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि ‘आदि हिंदू नाम की घोषणा स्वामी जी ने सन् 22 (1922) में दिल्ली की विराट अछूत सभा में की थी।’ उसके बाद नवंबर 1930 तक ‘इसकी 208 छोटी-बड़ी जिला आदि हिंदू सभाएँ इस प्रांत के भिन्न-भिन्न स्थानों में हुई।’ नवंबर 30 में, इलाहाबाद में, ऑल इंडिया ‘आदि हिंदू’ कॉन्फ्रेंस का जो आठवाँ अधिवेशन हुआ, उसकी रिपोर्ट में उस समय तक हुई आदि हिंदू-सभाओं का थोड़ा-सा ब्यौरा दिया हुआ है। उसमें लिखा है–अब तक कुल आठ ऑल इंडिया आदि हिंदू कॉन्फ्रेंसें हो चुकी हैं। इनके स्थानों के नाम इस प्रकार हैं–(1) दिल्ली (2) बंबई (3) हैदराबाद (4) नागपुर (5) इलाहाबाद (6) मद्रास (7) अमरावती सी.पी. और (8) इलाहाबाद (प्रयाग)। इनके अतिरिक्त तीन ऑल इंडिया स्पेशल आदि हिंदू कॉन्फ्रेंसें हुईं–(1) दिल्ली में (2) मेरठ में और (3) इलाहाबाद में। इस तरह आठ वर्षों में ग्यारह अखिल भारतीय आदि हिंदू कॉन्फ्रेंसें हुईं। इस प्रकार अब तक 14 प्रांतीय आदि हिंदू कॉन्फ्रेंसें हुईं। जिनमें 9 वार्षिक प्रांतीय कॉन्फ्रेंसें हैं और छह स्पेशल प्रांतीय कॉन्फ्रेंसें, जो कानपुर, लखनऊ, इलाहाबाद, मेरठ, मैनपुरी, मथुरा, इटावा, गोरखपुर, फर्रुखाबाद आगरा इत्यादि स्थानों में हुईं। इस विवरण से पता चलता है कि आदि हिंदू आंदोलन अखिल भारतीय स्तर का था। अगर स्वामी जी कुछ साल और जीवित रह जाते तो निश्चित ही दलितों की स्थिति आज से बेहतर होती। इस संबंध में आजीवक चिंतक डॉ. धर्मवीर के कथन से भी अंदाजा लगाया जा सकता है, उन्होंने लिखा है, ‘वे कुछ और साल जी जाते तो डॉ. अंबेडकर को धर्म के मामले में यों अकेले बुद्ध के दर पर, भटकना न पड़ता।’

जिज्ञासु जी ने स्वामी अछूतानंद को भारत का कार्ल मार्क्स और बाबा साहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर को लेनिन माना है। लेनिन समाजवादी आंदोलन में कार्ल मार्क्स के शिष्य कहे जाते हैं। उन्होंने लिखा है, ‘यदि विचार-दृष्टि से देखा जाए तो आदि हिंदू-आंदोलन ही भारत का मौलिक समाजवाद है, स्वामी अछूतानंद एवं बाबासाहेब अंबेडकर ही भारत के कार्ल मार्क्स और लेनिन हैं, आदि हिंदू ही भारत के सर्वहारा हैं तथा द्विज-हिंदू एवं उनके साथी ही भारतीय बुर्जुआ।’ (40) जिज्ञासु जी के इस कथन से स्वामी जी के महत्त्व और ताकत का अंदाजा लगाया जा सकता है। लेकिन यहाँ दु:ख इस बात का है कि डॉ. अंबेडकर ने अपने लेखन में ना तो स्वामी अछूतानंद का कहीं नाम लिया है और ना ही आदि हिंदू आंदोलन की परंपरा को आगे बढ़ाया, बल्कि वे दलित विरोधी बुद्ध के यहाँ शरणागत हो गए। इससे दलित आंदोलन को तो नुकसान पहुँचा ही, दलितों में दो-फाड़ भी हो गया। यहाँ यह भी ध्यान रहे, लेनिन ने कार्ल मार्क्स के चिंतन को जीया है, जिस पर रूसी समाजवादी क्रांति हुई थी।

स्वामी अछूतानंद और उनके आदि हिंदू आंदोलन को समझने के लिए वर्तमान परिस्थितियों से तब की तुलना कर सकते हैं। स्वामी जी और उनके आंदोलन को छुपाने के लिए द्विजों ने उनका नाम तक बिगाड़ कर रख दिया, इतना ही नहीं द्विजों की लेखनी में स्वामी जी का नाम तक नहीं मिलता। सामंत के मुंशी ने तो स्वामी जी के स्थान पर नकली चमार पात्रों सूरदास जैसों को खड़ा कर दिया। ऐसे पात्र जो चमारों के अपराधी हो सकते हैं उन्हें चमारों के नायक-नायिका बना दिया।

प्रक्षिप्त कैसे गढ़े जाते हैं, इसे ‘दि प्रिंट’ में प्रकाशित सिद्धार्थ के लिखे से जाना जा सकता है, ये लिखते हैं, ‘स्वामी अछूतानंद डॉ. आंबेडकर के समकालीन थे। दोनों के बीच वर्ण-जाति व्यवस्था और दलितों के मुक्ति के प्रश्न पर गंभीर विचार-विमर्श भी हुआ। अछूतानंद ने आंबेडकर के सुझाव पर दलितों के लिए पृथक निर्वाचन के संघर्ष में उनका साथ दिया।’ बताइए, इतिहास को ही उल्टा खड़ा कर दिया है! ये महोदय जिस समय की बात लिख रहे हैं वह स्वामी अछूतानंद का काल था। बीसवीं सदी के दूसरे दशक में स्वामी जी इस देश और दलितों के दिमाग को मत्थ चुके थे। लेखक को पता होना चाहिए कि पृथक निर्वाचन का सुझाव किसका था और किसने इस पर मट्ठा डाला।

यही लेखक आगे लिखते हैं, ‘दोनों लोगों की पहली मुलाकात 1928 में तत्कालीन मुंबई में आदि हिंदू आंदोलन के राष्ट्रीय अधिवेशन में हुई थी। दोनों नेताओं ने दलितों की सामाजिक और राजनीतिक स्थिति पर विचार किया था। डॉ. अंबेडकर ने उन्हें राजनीति में सक्रिय हिस्सेदारी का सुझाव दिया था।’ लगता है इन पंक्तियों को लिखने से पहले इन्होंने अपने दिमाग पर तनिक भी जोर नहीं डाला। इन्होंने जिस ‘आदि हिंदू आंदोलन’ का जिक्र किया है, क्या इन्हें पता नहीं कि इस आंदोलन के प्रवर्तक कौन थे? जहाँ तक डॉ. भीमराव अंबेडकर द्वारा स्वामी जी को राजनीति में सक्रिय हिस्सेदारी के सुझाव की बात है, तो बताया जा सकता है, ‘सन 1922 में, असहयोग आंदोलन के बाद भारत में इंग्लैंड के युवराज प्रिंस ऑफ वेल्स पधारे और काँग्रेस के लीडरों ने उनका बायकाट किया। स्वामी जी उस समय दिल्ली में थे। उन्हें यह अच्छा नहीं लगा। उन्होंने इस अवसर पर दिल्ली में अछूतों का एक बहुत बड़ा जलसा करके उसमें घोषित किया, ‘भाइयो! हम भारत के प्राचीन निवासी ‘आदि हिंदू’ हैं। आर्य-द्विजातीय सब विदेशी हैं। इन लोगों ने हमें नीच, अछूत और गुलाम बना रखा है। हमें इन लोगों के फैलाये हुए भ्रमजाल से निकलकर अपने पैरों पे खड़े होकर अपने सारे मुल्की हकों को हासिल करना चाहिए। हमें ब्रिटिश-सरकार के साथ विद्रोह नहीं करना चाहिए। हमें युवराज का स्वागत करना चाहिए और इंग्लैंड की सरकार से अपने राजनीतिक अधिकारों की माँग करनी चाहिए।’ अब इन्हीं से पूछा जाना चाहिए, ‘सारे मुल्की हकों को हासिल करना चाहिए’ और ‘इंग्लैंड की सरकार से अपने राजनीतिक अधिकारों की माँग करनी चाहिए का क्या अर्थ होता है? फिर, जिज्ञासु जी ने तो लिखा ही है, ‘आदि हिंदू आंदोलन आरंभ में सामाजिक और धार्मिक रूप लेकर उठा, और वह दबी-पिछड़ी-शोषित-सताई जनता के लिए बड़ा ही आकर्षक, प्रिय और आशाप्रद था। किंतु बहुत जल्द उसे राजनीतिक हो जाना पड़ा।’ जिज्ञासु जी आगे लिखते हैं, ‘परिस्थितियों के कारण स्वामी अछूतानंद जी का आदि हिंदू-आंदोलन, जो सामाजिक और धार्मिक रूप में उठा था, दो धाराओं में हो गया। राजनीतिक दल का देशव्यापी संगठन आवश्यक था। किंतु स्वामी जी दोनों ओर रहे। राजनीतिक में भी भाग लेते थे और सामाजिक में भी। जहाँ कहीं कॉन्फ्रेंसें होती थी, उनमें प्रायः पहले दिन ऑलइंडिया आदि हिंदू महासभा की राजनीतिक कॉन्फ्रेंस होती थी, जिसका कोई सुयोग्य अछूत नेता सभापति होता था, दूसरे दिन सामाजिक जिसके सभापति खासतौर से स्वामी जी ही होते थे।’ असल में, इन जैसों की समस्या क्या है? समस्या यह है कि ये विचार शून्य हैं। इन्हें ना ‘आदि हिंदू आंदोलन’ का पता, ना बौद्ध धम्म का। आजीवक तो इन जैसों की समझ से ही बाहर है।

‘आदि हिंदू आंदोलन के प्रवर्तक श्री 108 स्वामी अछूतानंद जी हरिहर’ किताब की एक-एक पंक्ति, एक-एक शब्द दलित आंदोलन के धरोहर हैं। एक शब्द ‘आदि’ और एक नाम ‘अछूतानंद’ से ही आप दलित आंदोलन को समझ लेते हैं। यह दलित आंदोलन अपने महान पुरखों और अपनी महान मोरल परंपरा में चला-बढ़ा है। इसी महान मोरल परंपरा को डॉ. धर्मवीर ने अपने चिंतन का केंद्र बनाया है। यह ‘आदि’ ही आजीवक है और आजीवक ही ‘आदि’। हमारे कुछ दलित साहित्यकार सिंधु घाटी सभ्यता की बात उठाते हैं। इन्हें समझना चाहिए कि अपनी परंपरा की तरफ पीछे लौटते हुए आप सिंधु घाटी सभ्यता ही नहीं बल्कि उस ‘चमड़ा सभ्यता’ तक पहुँच जाते हैं। इसी सभ्यता के लोगों को आज चमार कहा जा रहा है, जो आज भी मनुष्यता के विकास को प्रतिबद्ध हैं।

एक अन्य बात यहाँ बताई जा सकती है, ‘आदि हिंदू आंदोलन’ के प्रभाव में दलितों में जितने भी आदि नाम से आंदोलन चल रहे थे, यदि उस समय की सरकारी रिपोर्ट, गजट और समाचार-पत्रों को खँगाला जाए तो इस ऐतिहासिक आंदोलन का इतिहास जगमगा उठेगा। यहाँ हम ‘आदि हिंदू’ शब्द को ही ले लेते हैं, जिज्ञासु जी ने इसके महत्त्व को रेखांकित करते हुए लिखा है :

‘आदि हिंदू’ शब्द हिंदू-लीडरों, आर्यसमाजियों और ब्राह्मण-पंडितों को शूल सा चुभता क्यों था? यह एक प्रश्न है जिसे पाठक पूछ सकते हैं। इसका सीधा सा उत्तर यह है कि जब भारत का अछूत अपने को ‘आदि हिंदू’ घोषित कर देता है, तो उसका भारत-भूमि पर नैसर्गिक स्वत्व कायम हो जाता है–वह सबका ज्येष्ठ और सबका बुजुर्ग, सबके आदर, सबकी श्रद्धा और सबकी पूजा का अधिकारी हो जाता है, और आर्य, हूण, शक, यवन, क्रिश्चियन, सब उससे छोटे और उसके आगे निःस्तव तो हो जाते हैं, सब विदेशी शरणार्थी या बर्बर विजेता सिद्ध हो जाते हैं। नैतिकता की दृष्टि से सब निस्तेज हो जाते हैं।’

‘आदि हिंदू’ की तरह स्वामी अछूतानंद ने अछूत शब्द की भी नई और सही परिभाषा दी। जिज्ञासु जी ने लिखा है, ‘स्वामी जी अछूत (अछूत) शब्द का अर्थ ‘पवित्र’ करते थे। वह कहते थे ‘ब्रह्म’ अछूत है; ब्रह्म में तनिक भी छूत या विकार नहीं है, इसीलिए वह ‘परम पवित्र’ है। उस परम पवित्र ब्रह्म के पारखी निष्पक्ष आदिवंशी संत षठकोप कबीर, दादू, रैदास, नामदेव आदि भी पवित्र (अछूत) थे।’ स्वामी जी ने बिल्कुल सही बताया है कि दलित या अछूत उस पवित्र ब्रह्म अर्थात यूनिवर्स की तरह है, जिसमें अनगिनत गैलेक्सी, सूर्य, ग्रह, उपग्रह अपनी निश्चित गति से अपने पथ पर घूमते रहते हैं। आजीवक चिंतक डॉ. धर्मवीर यों ही थोड़े कहते हैं कि ‘दलित संसार की सबसे शरीफ कौम’ है। फिर, डॉ. साहब का यह कथन जगमगा उठता है ‘शब्द के अर्थ बदल दो, उसे ताकत दे दो, तो गुलामी फुर्र हो जानी है।’ सद्गुरु रैदास और कबीर साहेब ने ‘दास’ शब्द को इतनी ताकत से भर दिया है कि ब्राह्मण की किसी को दास कहने की हिम्मत नहीं पड़ती। आज भी बंगाल, बिहार, उड़ीसा झारखंड, असम आदि राज्यों में ‘दास’ शब्द को लोग अपने नाम के साथ जोड़कर लिखते हैं। हमारे इन महान चिंतकों ने ‘दास’ को ईश्वर या भगवान या उस अलौकिक शक्ति का दास बताया है जिसके आगे दुनिया झुकती है। हमारे इन महान पुरुषों के नाम के साथ दास शब्द जुड़ा मिलता है–रैदास (रैदास) और कबीरदास (कबीरदास)। कहना यही है कि दलितों को अपने महान पुरखे स्वामी अछूतानंद ‘हरिहर’ के ‘आदि हिंदू आंदोलन’ को समझना चाहिए। जैसा कि बताया गया है, यह पुस्तक इतिहास के द्वार खोलती है, जिज्ञासु जी ने लिखा है, ‘स्वामी अछूतानंद ने मुल्की हकों की माँग में जब चुनाव की बात आई तो उन्होंने पृथक चुनाव की माँग की। क्योंकि उन्हें खतरा था कि हिंदुओं (द्विजों) के साथ मिलकर चुनाव करने में अछूतों के अधिकारों की रक्षा न हो सकेगी। उस जमाने में जितनी भी आदि हिंदू कॉन्फ्रेंसें हुई–जिला, सूबा या ऑल इंडिया, प्राय सभी में संख्या के अनुपात से प्रतिनिधित्व और पृथक चुनाव की माँग की गई।’ इसी पृथक चुनाव की माँग के खिलाफ महात्मा गाँधी यरवदा जेल में थे, अनशन पर बैठे थे। इसके बाद ही पूना समझौता हुआ था। जिज्ञासु जी ने लिखा है, ‘जिस समय पूना समझौता हो रहा था, स्वामी जी बीमार थे। इस कारण वह उसमें अधिक योग नहीं दे सके। बाद में जब उस समझौते पर लोग उनकी राय जानने गए, तो उन्होंने हँसते हुए गंभीर वाणी में कहा–जो हो गया, अच्छा ही है।’ इन पंक्तियों में स्वामी जी के दर्द को महसूस किया जा सकता है।

स्वामी अछूतानंद अपने चिंतन में ‘आदि हिंदू’ तक पहुँच पाते हैं लेकिन यह आदि हिंदू या आदिधर्मी, आदिद्रविड़, आदिमलयालम, नमोशूद्र आंदोलन स्वभावतः आजीवक में बदल जाते हैं। चिंतन की इस परंपरा को स्वामी जी के बाद डॉ. धर्मवीर परिणीति तक ले आते हैं। स्वामी अछूतानंद आज अगर जीवित होते तो उनकी खुशी का अंदाजा लगाना मुश्किल है। वैसे तो आदि हिंदू आंदोलन को बाबा साहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर के माध्यम से विकसित होना चाहिए था, लेकिन डॉ. अंबेडकर राह भटक कर बुद्ध की शरण में जा पहुँचे। उन्हें इतना तो ध्यान रखना चाहिए था कि बौद्ध धर्म भी वर्ण-व्यवस्था और पुनर्जन्म को मानता है।

स्वामी जी की दृष्टि कहाँ तक गई है, इसे फतेहगढ़ (फर्रुखाबाद) में दिये उनके भाषण के इन शब्दों के माध्यम से जाना जा सकता है, ‘हमलोग ब्राह्मण धर्म से बाहर हैं, क्योंकि हमें वेद पढ़ने, ब्राह्मणी देवताओं को मंदिरों में जाने और ब्राह्मण धर्म के सभी कर्म करने को मुमानियत (प्रतिबंध) है। यही सबूत है कि ब्राह्मण धर्म हमारा धर्म नहीं। हमारा धर्म संत-मत है।…यह आदिकाल से हमारे भीतर चला आ रहा है। षठकोप (कंजड़), कबीर (जुलाहा), रैदास (चमार), दादू (धुनिया), नामदेव (छीपी), मत्स्येद्रनाथ (मछुआ), इत्यादि सैकड़ों संत हमारे भीतर हुए हैं। उनका उपदेश दिया धर्म ही हमारा धर्म है। हमारी माताएँ और बहनें भूमि में लाल झंडी गाड़कर अनादि काल से भुइयाँ-माता (मातृभूमि) की पूजा करती हैं।’ असल में, फतेहगढ़ में दिया गया स्वामी जी का भाषण आधुनिक काल में दलित धर्म और साहित्य की बुनियाद मानी जा सकती है। दलितों की दुर्दशा देखकर स्वामी जी दुखी तो होते ही थे, वे इसके कारणों की भी खोज करते, इतना ही नहीं वे दलितों को भी डाँटते-डपटते थे। अपने एक पद (ख्याल) में स्वामी जी कहते हैं : ‘ये आदि हिंदू, अछूत, पीड़ित, दलित कहाँ तक पड़े रहेंगे?/प्रबल अनल के प्रचंड शोले, जमीं में कब तक गड़े रहेंगे?’ वे आगे कहते हैं–‘हे आत्म-ज्ञानी, ऐ संत-पुत्रो जरा न तुमको हया-शरम है।/गुलामी करने को आँख मूँदे बताओ कब तक अड़े रहेंगे?/तुम्हारे मत से यह शूद्र कब से? बताओ किसने बनाया इनको?/तुम्हारी खातिर गरीब मानव कहाँ लौ, कब लौ सड़े रहेंगे?’

वास्तव में उपर्युक्त पंक्तियाँ आज भी दलितों पर ज्यों की त्यों लागू होती हैं। बहुत से दलित साहित्यकार आज भी ब्राह्मण की गुलामी करते हुए इनके आगे पीछे-घूमते देखे जा सकते हैं। सोचा जा सकता है स्वामी जी अपने समय से कितने आगे थे। ऐसे ही, स्वामी जी 6-7 अक्टूबर, 1928 को मोना डिपो, गुजरात की पंजाब प्रांतीय आदि हिंदू कॉन्फ्रेंस के भाषण की शुरुआत करते हुए कहते हैं :

‘शूद्रों गुलाम रहते, सदियाँ गुजर गई हैं/जुल्मो सितम को सहते, सदियाँ गुजर गई हैं/अब तो जरा विचारो, सदियाँ गुजर गई हैं/अपनी दशा सुधारो, सदियाँ गुजर गई हैं।’ देखा जा सकता है, स्वामी अछूतानंद अपनी वाणी में कबीर की परंपरा में आगे बढ़ें हैं।

इस किताब से दलित आंदोलन पूरी तरह खुल जाता है। बौद्ध धर्मांतरण से दलित आंदोलन पूरी तरह से छुपा दिया गया था। सोचा जा सकता है दलित अपने 100 साल पहले हुए महापुरुष स्वामी अछूतानंद के नाम से ही अपरिचित हैं, तब ढाई हजार सालों में हमारे ऐसे कितने अछूतानंद छुपा दिए गए होंगे! उम्मीद है दलित अपने उन भूला-छुपा दिए गए महापुरुषों को खोज निकालेंगे। हाँ, इस क्रम में धर्मांतरणवादियों का नाम शायद ही बचा रह पाए। इसी संदर्भ में स्वामी अछूतानंद जी के अमरावती में 28 अप्रैल, 1930 को दिए भाषण की यह पंक्तियाँ गौर करने लायक हैं, ‘आर्य व्यवस्थापकों की यह पुरानी चाल है कि पहले अपने विरोधी के प्रति घृणा फैलाना और जब उसकी शक्ति, अधिक देखना तो उसका संस्कार करके द्विज (अर्थात ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य में कोई) बना लेना। इसका प्रतिफल यह होता है कि हमारे पढ़े-लिखे विद्वान या धनवान लोग हम से निकलकर उनके गुण गाने लगते और हम ज्यों के त्यों रह जाते हैं और फिर यह ‘नए द्विज’ पुराने द्विजों से भी ज्यादा हम से घृणा करने लगते हैं। फिर जनेऊ पहनकर, बने हुए यह नये द्विजेंद्र ब्राह्मण तो बन ही नहीं सकते; पुराने क्षत्रिय-वैश्यों में भी नहीं मिल पाते। इसी तरह जो लोग ईसाई या मुसलमानों में मिल जाते हैं, वे अपना मूल अस्तित्व खो बैठते हैं। लेकिन वे असली ईसाई या मुसलमानों में मिल नहीं पाते, जाति के अनेक चिह्न उन्हें स्पष्ट कर देते हैं कि वह आदि हिंदू हैं।’ ध्यान रहे, स्वामी जी ने अपना यह भाषण 1930 में दिया था, उधर 22, मार्च 1928 में ‘समाज समता संघ’ नाम की एक संस्था के कार्यक्रम में ‘पंडित पाल्या शास्त्री ने 500 महारों का जनेऊ संस्कार किया। डॉ. बी.आर. आंबेडकर, जी.एन. सहस्रबुद्धे, डॉ. डी.वी. नायक और सीताराम एन. शिवतारकर इस अवसर पर उपस्थित थे।’ इसी क्रम में बताया जा सकता है, धर्मांतरण भी नकली द्विज बनने की प्रक्रिया का ही रूप है। प्रसंगवश यहाँ बताया जा सकता है, तत्कालीन समय में बुद्ध और उन के अनुयायी हमारे शासकों को क्षत्रिय घोषित कर रहे थे, लेकिन नंद और मौर्य वंश इनके जाल में नहीं फँसे। हाँ, सम्राट अशोक इस बौद्धों की क्षत्रिय श्रेष्ठता के बहकावे में आ कर अपना धर्म बिसरा बैठे, जिसका नुकसान आज तक दलित के रूप में हो रहा है। ऐसे ही ब्राह्मण ने शक्तिशाली जातियों को ब्राह्मण घोषित किया है। शुद्धि और जनेऊ संस्कार इसी की तिकड़म है। अगर बाबा साहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर ने लिखा नहीं होता तो उन्हें कब का ब्राह्मण घोषित कर दिया होता।

ऐसे ही, स्वामी जी ने दलितों यानी आदि-हिंदुओं को ‘हरिजन’ और इस तरह के घृणित संबोधन को लेकर 9 फरवरी 1932 को ग्वालियर में दिए गए अपने भाषण में सवाल उठाया है, स्वामी जी कहते हैं, ‘द्विज नेतागण हमें फुटबॉल बनाए हुए हैं। पहले हमें दलित, पतित, अस्पृश्य, पादज, अतिशूद्र और वर्णसंकर (हरामी या दोगला) कहते थे, अब गाँधी जी ने दया करके हमारा एक और नाम ‘हरिजन’ रख दिया है जिसका अर्थ रामजनी (वैश्या), हरिदासी (देवदासी) की तरह ‘बंदेखुदा’ होता है, यानी जिसके माँ-बाप का पता न हो। हमने इस पर ‘आदि हिंदू’ में एक लेख और भजन लिखकर इसकी असलियत दिखा दी है।

पुस्तक के पुनर्मुद्रण के लिए प्रकाशक का आभार व्यक्त करना औपचारिकता मानी जाएगी। दलितों को यह पुस्तक अपने वास्तविक आंदोलन को समझने में मदद ही नहीं करती बल्कि दृष्टि प्रदान करती है, जिसमें कहा गया है, ‘मैं अपने पूर्वजों के उज्ज्वल चरित्र और आदि-वंश-गौरव का प्रकाश करने की निरंतर चेष्टा करता रहूँगा।’ उम्मीद की जाती है कि यह किताब हमारे ज्यादा से ज्यादा पाठकों तक पहुँचेगी।

देखा जाए तो, यह पुस्तक इस देश में पिछले ढाई-तीन हजार सालों से चल रहे सभ्यताओं के संघर्ष की गवाह है इस संघर्ष में एक तरफ हैं इस देश के मूल निवासी जिन्हें दलित और आदिवासी के रूप में चिह्नित किया जाता है दूसरी तरफ हैं वर्णवादी या रंगभेद के पक्षधर जिसे आर्य, द्विज, सनातनी या ब्राह्मण कहा जाता है। शेष जातियाँ मूकदर्शक बनी हुई हैं। स्वामी अछूतानंद ने आर्यों के बीच रह कर इनका असली चेहरा पहचान कर सभ्यता के इस संघर्ष में जो योगदान दिया है वह अतुलनीय है, इसीलिए आजीवक चिंतक डॉ. धर्मवीर ने स्वामी जी को ‘पूर्णिमा के चाँद’ की संज्ञा दी है। इसी संघर्ष में डॉ. साहब जब ब्राह्मण आलोचक डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी को ‘सूर्य पर पूरा ग्रहण’ कहते हैं तो यह वैचारिक युद्ध पूरी तरह खुल जाता है। यह सूर्य कोई और नहीं बल्कि दलितों के दादा-परदादा कबीर साहेब हैं, जिन्होंने इस सभ्यता के संघर्ष में ब्राह्मण का क्रूर और अमानवीय चेहरा पूरी दुनिया को दिखाया है।

पिछले ढाई-तीन हजार सालों से सभ्यताओं का संघर्ष, जिसे बीसवीं शताब्दी में स्वामी अछूतानंद के माध्यम से आदि हिंदू आंदोलन के रूप में लड़ा गया, उसकी परिणति 21वीं सदी में डॉ. धर्मवीर के माध्यम से ‘आजीवक धर्म’ के रूप में हुई है। यह दलित कहे जा रहे आजीवकों की निर्णायक विजय है। अब छुआछूतवादी कितने भी रूप धर लें वह तत्काल पहचान लिए जाने हैं। आदि हिंदू अर्थात आजीवक मानव सभ्यता के विकास में अपने योगदान को प्रतिबद्ध हैं। स्वामी अछूतानंद का योगदान आजीवक महापुरुष के रूप में दर्ज हो गया है।


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कैलाश दहिया द्वारा भी