कथाकार राधाकृष्ण की पत्रकारिता

कथाकार राधाकृष्ण की पत्रकारिता

पत्रकारिता के कई हिस्सों के साथ, कई भूमिकाओं में जिस आदमी की सतत संलग्नता थी, उस आदमी की अपनी राय पत्रकारिता के बारे में बहुत अच्छी नहीं थी। उनकी राय एक तरह से पोलखोलक थी। इस इलाके की अंदरूनी सच्चाइयों को उजागर करने वाली ऐसी राय वही दे सकता था जिसने पाँच दशकों तक पत्रकारिता के अनगिनत अनुभव सहेजे हों। कभी संपादक के रूप में, कभी अतिथि सम्पादन के रूप में, कभी संपादकीय सहयोगी के रूप में, कभी प्रूफरीडर के रूप में, कभी लेखक के रूप में राधाकृष्ण ने पत्रकारिता के अनुभव एकत्र किये। उनके इन्हीं अनुभवों का सार-संक्षेप उनके व्यंग्य उपन्यास ‘सनसनाते सपने’ में वहाँ हैं, जहाँ राधाकृष्ण ने  प्रेस और पत्रकारिता के यथार्थ का यथार्थ प्रस्तुत किया है।

‘सनसनाते सपने’ उपन्यास में प्रेस भ्रष्ट ऑफ़ इंडिया का प्रतिनिधि सूचित करता है कि हमलोग बिना पैसों के मुफ्त विज्ञापन नहीं करते। वह यह भी बतलाता है कि हमारा प्रेस भ्रष्ट ऑफ़ इंडिया साहित्य, कला, संगीत वगैरह के समाचारों में दिलचस्पी नहीं लेता। पत्रकारिता का काम है कि राजनीतिक समाचारों को इधर से उधर पहुँचाना। प्रेस भ्रष्ट ऑफ़ इंडिया के प्रतिनिधि ने यह भी बताया है कि भारत सरकार से लेकर प्रांतीय सरकारों तक के बजट में हमारे प्रेस भ्रष्ट के लिए रुपया रखा जाता है, इसलिए हमलोग राजनीतिक समाचारों के लिए बहुत उत्सुक रहते हैं।

इस व्यंग्य उपन्यास ‘सनसनाते सपने’ का प्रकाशन 1954 में हुआ था। इसमें पत्रकारिता के अपने तत्कालीन अनुभवों को राधाकृष्ण ने सहेजा है। इसके बाद तो उन्होंने बहुत निकट से अनुभव किया कि आसपास के वातावरण के प्रति सजगता और सघन संवेदनशीलता अब एक गलाकाट प्रतिद्वंद्विता में बदल गई है। विसंगतियों के घटाटोप में आरोपों और अपधातों में बनी पथ बाधाओं से जूझने के क्रम में जनतंत्र का यह चैथा स्तम्भ कितना क्षत-विक्षत हो गया है इस बारे में उन्होंने 8 मार्च 1975 के ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ में यह टिप्पणी लिखी- पुराने चप्पू से झंझावात को पार कर ले, ऐसे इंसान के लिए आज की पत्रकारिता नहीं है। उसमें नए-नए अविष्कार उभरते गए हैं। चप्पू नया है और नाव भी। लेकिन उसे टीकाकार बनना चाहिए, टीकाखोर नहीं। इन दिनों टीकाखोरी की आदत ही पत्रकार के ब्लेकमेलिंग की ओर  ले जा रही है। रत्ती भर सच के ऊपर कूट-कूट कर भरा गया प्रचारवेग पत्रकार को ईमानदार नहीं बनाता।’

इस टिप्पणी से स्पष्ट है कि राधाकृष्ण अपने समय की पत्रकारिता के विपथन से भलीभाँति परिचित थे। उन्हें अनुमान भी था कि उच्चादर्श के राजपथ से उतर कर पीत पत्रकारिता की पतली गली में उतरने के असंख्य नमूने उनके अवसान के बाद उजागर होंगे। साध्य को पाने के लिए साधनों की पवित्रता का निषेध ही पत्रकारिता का आधारभूत सिद्धांत बन जाएगा, यह उन्हें कहाँ पता था? वे तो बाबू राव विष्णु पराड़कर और प्रेमचंद की प्रजाति के आदमी थे। अपने संकल्प के लिए समर्पित, अपने आपको होम करने वाले, अपनी पत्रकारिता में कभी समझौता नहीं करने वाले थे राधाकृष्ण।

1924 में मामराज शर्मा ने राँची में पत्रकारिता की शुरूआत ‘छोटानागपुर पत्रिका’ के प्रकाशन के साथ की। वहीं चौदह-पंद्रह वर्ष के किशोर राधाकृष्ण का पहला परिचय प्रेस की दुनिया से हुआ। बाद में 1928 में राधाकृष्ण ने अपने मित्रों सुबोध मिश्र, जगदीश प्रसाद, शिवशंकर साहु आदि के साथ मिलकर हस्तलिखित पत्रिका ‘वाटिका’ निकाली। पत्रकारिता के क्षेत्र में यह उनकी पहलकदमी थी। ‘वाटिका’ में उस दौर के सभी स्थानीय रचनाकारों के लिए जगह थी। यहाँ तक कुडुख गीत भी ‘वाटिका’ में प्रकाशित होते थे। ‘वाटिका’ का प्रकाशन 1929 के मध्य में बन्द हो गया। लेकिन इस हस्तलिखित पत्रिका से राधाकृष्ण को पत्रकारिता का चस्का लग  गया। उनकी कहानियाँ, इसी कालखण्ड में विभिन्न पत्रिकाओं में छपने लगीं, तो उनका ‘परिचय गल्पमाला’, ‘भविष्य’, ‘जन्मभूमि’, ‘तपस्या’, ‘महावीर’ और ‘हंस’ जैसी पत्रिकाओं से बढ़ा। जनवरी 1930 में प्रेमचंद ने ‘हंस’ का प्रवेशांक निकाला, तो उसमें राधाकृष्ण की कहानी भी थी। लेकिन राधाकृष्ण की पत्रकारिता का अगला पड़ाव ‘वाटिका’ के बाद ‘महावीर’ बना।

‘महावीर’ को 1930 में स्वतंत्रता सेनानी जगतनारायण लाल ने प्रारंभ किया था। इस पत्रिका के कई प्रारंभिक अंकों में राधाकृष्ण छप चुके थे। संपादक जगत नारायण लाल अपने साथ उन्हें पटना ले गए और ‘महावीर’ पत्रिका का सहायक संपादक बना दिया। जगत नारायण लाल के ही सम्पादन में पटना से ही ‘संदेश’ पत्रिका भी निकलती थी। ‘महावीर’ और ‘संदेश’ दोनों ही पत्रिकाओं के सहायक संपादक राधाकृष्ण ही वास्तव में इन पत्रिकाओं के संपादक थे। कुछ अंकों के बाद राधाकृष्ण ने ‘महावीर’ का एक विशेषांक बिहार के स्वाधीनता संग्राम पर निकाला। पत्रिका का यह विशेषांक ब्रिटिश सरकार ने जप्त कर लिया। संपादक जगत नारायण लाल गिरफ्तार हो गए और सहायक संपादक राधाकृष्ण फरार हो गए। इसके साथ ही ‘महावीर’ एवं ‘संदेश’ दोनों पत्रिकाएँ बन्द हो गईं। इसके बाद राधाकृष्ण बिहार से बाहर चले गए। लेकिन काम वही पत्रकारिता। वे 1931 में इलाहाबाद से निकलने वाली कहानी पत्रिका ‘माया’ के सहायक संपादक बनें। फिर 1934 में लखनऊ की पत्रिका ‘स्वाभिमान’ के संपादक बने।  यह पत्रिका दो अंकों के बाद ही बन्द हो गई। कहा तो यह भी जाता है कि 1936 में प्रेमचंद के निधन के बाद शिवरानी देवी ने राधाकृष्ण को ही ‘हंस’ पत्रिका का कार्यभार सौंप दिया था।

1937 में राधाकृष्ण राँची लौट आए। यहाँ उन्होंने गुमला से प्रकाशित होने वाली ‘झारखण्ड पत्रिका’ में काम करना शुरू किया। पत्रिका में उसके मालिक ईश्वरी सिंह बड़ाईक का नाम संपादक के तौर पर छपता था। लेकिन ‘झारखण्ड’ पत्रिका’ के सर्वेसर्वा राधाकृष्ण ही थे। रचनाओं के चयन एव सजावट से लेकर प्रूफरीडिंग तक सारी जिम्मेदारी उन पर ही थी। यह पत्रिका 1940 तक बन्द हो गई। इसके बाद भी राधाकृष्ण ने कई गुप्त, लुप्त और जप्त किस्म की पत्रिकाओं के कई अंकों का सम्पादन किया। लेकिन इन छोटी-छोटी चक्रमुद्रित पत्रिकाओं का सीधा संबंध तत्कालीन स्वाधीनता संग्राम के साथ था। राधाकृष्ण को ‘महावीर’ का अनुभव था कि संपादक को जेल जाना पड़ सकता है, फरार होना पड़ सकता है, इसीलिए ऐसी पत्रिकाओं में संपादक का नाम पता नहीं छपता था, भले ही इनके कर्णधार राँची के लालबाबू उर्फ राधाकृष्ण ही होते थे।

भारत की आजादी की सुगबुगाहट के दिनों में तत्कालीन बिहार सरकार के जनसंपर्क विभाग ने ‘बिहार समाचार’ और ‘आदिवासी’ साप्ताहिकों के प्रकाशन का निर्णय किया। राधाकृष्ण को ‘बिहार समाचार’ का सम्पादन सौंपा गया। लेकिन अपने धुन के धनी राधाकृष्ण ने अपेक्षाकृत कम वेतन पर ‘आदिवासी’ का सम्पादन स्वीकार किया। डॉ. श्रवणकुमार गोस्वामी ने इसे राँची के प्रति उनका मोह कहा है, लेकिन बात इतनी ही नहीं थी। वे ‘आदिवासी’ पत्रिका को छोटानागपुर के तमाम नए-पुराने रचनाओं के लिए एक मंच की तरह सुव्यवस्थित करना चाहते थे और उन्होंने ऐसा किया। 1950 से 1970 के बीच ‘आदिवासी’ के पन्नों को पलटें तो तत्कालीन झारखण्डी समाज, संस्कृति और साहित्य की व्यापक चित्रशाला नजर आएगी। उन दिनों राधाकृष्ण के सम्पादन में ‘आदिवासी’ में छपकर लोग गौरवान्वित होते थे। ‘साप्ताहिक आदिवासी’ के जरिए उन्होंने झारखण्ड में लेखकों और कवियों की कई पीढ़ियों का निर्माण किया। इन सबकी भाषा सुधारकर, रचनात्मक वैभव प्रदान कर राधाकृष्ण ने इस क्षेत्र के लेखकों को नए-नए विषयों पर लिखने की प्रेरणा दी। ‘सरस्वती’ के संपादक महावीर प्रसाद द्विवेदी ने जैसे भाषा और साहित्य के नवोत्थान का व्रत बीसवीं सदी के प्रारंभ में किया था, ठीक वैसी ही प्रतिज्ञा के साथ राधाकृष्ण ने बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में झारखंड के रचनाकारों को एक नई राह पर चलाया।

जीवन भर उन्होंने संघर्ष किया, लेकिन अपनी पत्रकारिता का दीप तूफान में भी बुझने नहीं दिया। ‘रंगभूमि’ उपन्यास के सूरदास की तरह बार-बार हार कर भी पुन: हारने के लिए कमर कसते रहे। अब इस प्रजाति के लोग साहित्य में और पत्रकारिता में भी नहीं पाए जाते।


Image: Newspaperman in Paris (The newspaper)
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Artist: Giovanni Boldini
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