आचार्य शिवपूजन सहाय (दूसरी कड़ी)

आचार्य शिवपूजन सहाय (दूसरी कड़ी)

कहा यह जाता है कि उनके जन्म के पहले कई भाई पैदा होकर चल बसे। शायद उनकी माँ को पुत्रयोग नहीं था। इसीलिए इनके जन्म के समय यह व्यवस्था की गई कि माँ की नज़र पहले अपने बच्चे पर न पड़ कर किसी अन्य नवजात पशु पर पड़े। व्यवस्था के अनुसार उनकी माँ को पहले एक नवजात बछड़ा दिखलाया गया जो जल्द ही परलोक सिधार गया और उनका अपना बच्चा बच गया। इस तरह सभी भाइयों मे वह बड़े हुए। उनके बाद उनके और तीन भाई हुए।

घर की आर्थिक हालत इन्हीं के जन्म के बाद से सुधरने लगी। इसलिए भी इनका बड़ा लाड़-प्यार होता। पिता धर्म परायण थे और माँ कुशल गृहिणी। दोनों ही का बालक पर बड़ा ही गहरा प्रभाव पड़ा और आज भी वे दोनों गुण उनमें प्रचुर मात्रा में हैं। अपनी वर्तमान अवस्था में उन्हें सबसे बड़ा दुख इस बात का है कि वह जी भर कर रामायण का पाठ नहीं कर सकते। रामायण के प्रति साहित्यिक और धार्मिक, दोनों पहलुओं से उनकी बड़ी ममता है। गृहस्थी में वे कितने कुशल हैं यह उनके साथ रहकर ही जाना जा सकता है। खाने-खिलाने का शौक उतना ही है और चर्चा होते ही आर्द्र कंठ से कहते हैं–अब तो लोगों में वह जिंदादिली ही नहीं रही। नहीं तो साठ बरस की उम्र में…उन्होंने बनारस में मुझसे कहा था कि सावन झर झर झरत हौ और तू घर में बैठल हौ। चल, बगीचा में दाल बाटी बनी। सावन झरता हो, कोयल कूकती हो, हवा में सिहरन छा गई हो तो क्या खाया जाए, उनसे पूछिये, उनसे सीखिए। इस सिलसिले में वह प्रसाद जी की तारीफ करते नहीं अघाते। उनका जर्दा, उनका इत्र…।

हाँ, तो बचपन लाड़-प्यार में बीता। पता नहीं किन परिस्थितियों ने उस समय के इस बालक को बिगड़ने से बचाया, शायद माँ-बाप की कड़ी निगरानी ने ही। बचपन से ही इन्हें पढ़ने-लिखने का शौक समाया और गाँव पर पढ़ाई-लिखाई की अच्छी व्यवस्था नहीं रहने के कारण वह अपनी बड़ी बहन के यहाँ पढ़ने चले गए। साहित्य के प्रति अभिरुचि शायद इन्हें वहीं मिली। क्योंकि इनके बहनोई बड़े ही साहित्य-प्रेमी थे और बड़े ही परिश्रम से उन्होंने पुस्तकालयों की एक सूची तैयार की थी जो दुर्भाग्यवश नष्ट हो गई। प्रारंभिक शिक्षा बहन के घर पर रह कर पाने के बाद आरा स्कूल में आप दाखिल हुए। शायद उस समय उम्र की कोई कैद थी इसलिए एक वर्ष आपको गँवाना पड़ा और तब कहीं मैट्रिक की परीक्षा में बैठ सके। जहाँ तक मुझे ज्ञात है; कॉलेज का मुँह विद्यार्थी की हैसियत से आप नहीं देख सके।

छोटी उम्र में शादी हो गई थी और ससुराल बहुत धनी था। स्वयं भी परिवार के सबसे बड़े लड़के थे इसलिए शादी पूरे हौसले से हुई। लेकिन शादी के कुछ ही दिनों के बाद पत्नी का देहांत हो गया। फिर कुछ दिन बाद दूसरी शादी हुई। घरवालों ने पढ़ाई के ऊपर इतना अधिक खर्च करना उचित नहीं समझा इसलिए उन्होंने अपनी स्कूल की पढ़ाई स्वावलंबी होकर चलाई। इसके लिए उन्हें क्या-क्या करना पड़ा होगा यह तो राम जाने, इतना मालूम है कि उन्हें कभी-कभी सड़क की रोशनी के प्रकाश में पढ़ना पड़ता था।

मैट्रिक तक की पढ़ाई खतम करने के बाद आपको अपनी जीविका के लिए बनारस की अदालत में भी कुछ दिनों तक काम करना पड़ा। वहीं इन्हें अपने पुराने शिक्षक से मुलाकात हुई। वह आरा के कोई बंगाली अध्यापक थे। उनकी जिद से आप पुन: आरा चले आए और स्कूल में अध्यापन कार्य शुरू किया। लेकिन उन्हीं दिनों गाँधी जी के असहयोग आंदोलन की एक लहर ने उन्हें इतनी दूर ला पटका कि फिर अँग्रेज़ी सल्तनत के दौरान में कभी सरकारी नौकरी का नाम भी नहीं लिया।

संभवत: यहीं आरा में उन्हें अपने साहित्यिक गुरु श्री ईश्वरी प्रसाद शर्मा से भेंट हुई और कालक्रमानुसार वह उन्हीं के सहारे कलकत्ता पहुँचे। यहीं से उनके साहित्यिक जीवन का श्रीगणेश हुआ। मरवाड़ी सुधार समिति के पत्र से आपने अपना संपादन कार्य शुरू किया। उन्हीं दिनों की चर्चा है कि वह एक बार प्रेस के लिए कुछ पांडुलिपियों का संपादन कर ले गए थे। किसी प्रतिष्ठित साहित्यिक की उन पांडुलिपियों पर नजर पड़ी। संपादन देख कर वह दंग। उन्हें सहसा विश्वास ही नहीं हो सका कि इतनी कम उम्र का यह युवक भी इतनी संजीदगी से इतना सर्वांगपूर्ण संपादन कर सकता है। लेकिन प्रतिभा से कौन इंकार कर सकता है। फिर तो कलकत्ते में उनकी ऐसी धाक जमी कि कुछ पूछिए मत और ‘मतवाला’ के प्रकाशन ने उन्हें हिंदी जगत के एक अन्यतम हास्यरस लेखक और कुशलतम संपादक के रूप में प्रसिद्ध कर दिया। उनकी संपादन कला या उनके संपूर्ण व्यक्तित्व का एक ऐसा पहलू है जो उन्हें एक साथ ही देवत्व और बेचारगी की साकार प्रतिमा बना देता है। वह है उनकी ईमानदारी। किसी पत्रिका पर उनका नाम जाएगा और उसके लिए एक निश्चित रकम मिलेगी ऐसा उन्हें कभी नहीं भाया। पत्रिका पर उनका नाम जाएगा तो पत्रिका के साथ उनका काम भी जाएगा और नाम चाहे न भी जाए, काम तो जरूर जाएगा। इसलिए उनकी कलम के नीचे से जो भी गुजरी, उनकी छाप लेकर। हाँ, उस प्रक्रिया में उसका अपना रूप नष्ट न हो, यही उनकी कोशिश रहती और यही उनका कमाल भी।

साहित्यिक जीवन का कलकत्ते में श्रीगणेश कर वे बनारस पहुँचे। तब तक उनकी एक मात्र संतान ‘बासंती’ का शीतला के प्रकोप से निधन हो चुका था। पत्नी इतनी मर्माहत थीं कि कलकत्ता और बनारस की चिकित्सा के बावजूद नहीं बच सकीं और नैहर में प्राणत्याग किया। उन्हें समाचार मिला तो आकर अंतिम संस्कार किया और दूसरी बार अपनी गृहस्थी का उपसंहार।

इस समय उनकी अवस्था 59 वर्ष की है। इतने लंबे अर्से में उन्हें कहाँ-कहाँ और किन-किन पत्रों का संपादन करना पड़ा यह उनके सिवा कोई नहीं बता सकता। लेकिन कई बार दैवी कुचक्र या आत्मसम्मान पर आघात पहुँचने के कारण उन्हें अपना कारोबार समेटना पड़ा। एक बार हिंदू मुस्लिम दंगे के कारण उन्हें लखनऊ से सिर्फ धोती पहने भागना पड़ा। कुछ साथ ले चलने की गुंजाइश नहीं थी। उनके भाग निकलने के बाद मकान में आग लगा दी गई। उसमें उनकी कितनी चीजें नष्ट हो गईं इसका ठिकाना नहीं क्योंकि उनके जैसा संग्रही प्रवृत्ति का व्यक्ति अपने साथ कितनी चीजें रखे होगा यह तो सहज ही समझा जा सकता है। अभी हाल में उनके घर चोरी हुई। चोरी का समाचार मिला तो मैं उनसे मिलने गया। उस चोरी की चर्चा होते ही वह कहने लगे–मैं तो लुट गया। मैंने समझा घर में जो कुछ रुपया-पैसा रहा होगा वह सब कुछ चला गया शायद। पर उन्होंने बताया कि रुपये-पैसे की तो उतनी चिंता नहीं, अपने जीवन में जितनी भी चिट्ठियों को मैंने महत्त्वपूर्ण समझा था, उन सभी को एक कलमदान में छाँट कर रख दिया था। चोर उसे उठा ले गए और कुछ नहीं पाने पर कुएँ में फेंक दिया। सभी चिट्ठियाँ नष्ट हो गईं। सिर्फ महावीर प्रसाद द्विवेदी और बाबू राजेंद्र प्रसाद की एक-एक चिट्ठी बच पाई है। इस तरह बहुत कुछ गँवाने, बहुत बार बिस्तर लपेट कर इधर से उधर आने-जाने में उन्हें व्यक्तिगत नुकसान तो हुआ ही, उनके द्वारा संगृहीत अमूल्य साहित्यिक निधियाँ भी नष्ट हुईं।

कलकत्ते से आप बनारस आ गए थे। वहाँ इनकी तीसरी शादी की चर्चा चल रही थी। लड़की वालों को वर पसंद था। लेकिन उभय पक्ष की राय थी कि वर भी लड़की को देख ले तो अच्छा हो। गाँव वाली बात, शादी के पहले लड़की कैसे दिखाई जाए! तय यह हुआ कि लड़की की शादी में एक फोटो की जरूरत है। स्टेशन पर फोटोग्राफर से फोटो खिंचाकर भेज दिया जाएगा। घरवालों और गाँव वालों को यही कह सुन कर लड़की स्टेशन पर लाई गई और वहाँ फोटोग्राफर बन कर उन्होंने लड़की देख ली। लड़की देख ली और शादी की स्वीकृति दे दी। लेकिन उसी समय दुर्भाग्यवश बनारस में दोमंजिले की छत से गिर कर उन्होंने अपना पैर तोड़ लिया। कुछ लोगों ने लड़की वालों को बहकाया। स्वयं भी वह पैर टूट जाने से इतने हताश थे कि जीवन भर निकम्मे पड़े रहने की ही बात सोचते थे। इसलिए उन्होंने भी शादी से बाज आने की सलाह देते हुए लड़की वालों को कई पत्र लिखे। आत्मविश्लेषण का उतना सुंदर नमूना शायद अन्यत्र देखने को मिले। लेकिन लड़की वाले अड़ गए और शादी होकर रही। उस शादी में शरीक होने वालों में दो से मेरी मुलाकात हुई है। दोनों जब उस बारात का वर्णन करने लगते हैं तो हँसी के मारे पेट में बल पड़ जाते हैं। संक्षेप में इतना ही कह दूँ कि दूल्हा से लेकर सभी बाराती भाँग के नशे में धुत। कोई नहा रहा था तो साबुन की पूरी टिकिया घिस देने के बावजूद नहाना खतम नहीं कर रहा था। दूल्हे ने बैठ कर जो साहित्य चर्चा शुरू की तो बारात दरवाजे लगाना मुश्किल हो गया। गाँव वालों को भी बड़ी परेशानी उठानी पड़ी और जब बारात लौटने लगी तो गाँव वालों ने बदला लेना चाहा। खैर किसी तरह समझा-बुझा कर बारात लौटी।

पैर टूटने के ही दिनों में श्री रामलोचन शरण बिहारी से उनका परिचय हुआ और वह बनारस से लहेरियासराय चले आए। फिर तो उनका जो क्रमबद्ध शोषण शुरू हुआ वह अपनी कहानी आप बन गया। धीरे-धीरे लहेरियासराय के चंगुल से थोड़ा छुटकारा पाकर वह छपरा कॉलेज में अध्यापक नियुक्त हुए। तीसरी पत्नी से उनकी चार संतानें हुईं–दो लड़कियाँ और दो लड़के। गृहस्थी की गाड़ी अच्छी तरह चल रही थी कि पत्नी का देहांत हो गया। इस बार भी उन्हें पत्नी से अंतिम भेंट नहीं लिखा था। पत्नी घर पर ही मरीं। फिर चार बच्चे-बच्चियों का लालन-पालन जिस असीम धैर्य और स्नेह से उन्होंने किया वह वही कर सकते थे। धीरे-धीरे छपरा भी छूटा और ‘हिमालय’ का संपादन उन्होंने शुरू किया। ‘हिमालय’ के प्रकाशन और उसके बंद होने की कहानी इतनी ताजा है कि उसे दुहराने की अभी जरूरत नहीं।

इस समय वह बिहार राष्ट्रभाषा परिषद के मंत्री और हिंदी साहित्य सम्मेलन, बिहार की पत्रिका ‘साहित्य’ के अवैतनिक संपादक हैं। सरकारी नौकरी के प्रथम परिचय की कहानी कुछ कम मनोरंजक नहीं। लेकिन सरकारी पद पर रह कर भी जिस प्रजातांत्रिक परिपाटी का उन्होंने परिषद की कार्यवाही में निर्वाह किया है वह उन्हीं का काम है। इस समय यह निस्संकोच कहा जा सकता है कि साहित्य संबंधी काम करने वाली सभी गैर सरकारी और सरकारी संस्थाओं में इसी का काम सबसे ज्यादा ठोस और महत्त्वपूर्ण है।


Image Courtesy: LOKATMA Folk Art Boutique
©Lokatma