भारतीय दर्शन में ‘कर्म’ की महत्ता

भारतीय दर्शन में ‘कर्म’ की महत्ता

कर्म की प्रधानता हमारे दर्शन की मूल भित्ति रहती। समय-समय पर सांस्कृतिक ह्रास के काल में दर्शन के बहाने अकर्मण्यता और शोषण का जो क्रम चला वह हमारी परंपरा के सर्वथा प्रतिकूल था।

हमारे भारतीय जीवन ने आरंभ से ही दर्शन को व्यवहारिक जीवन का आधार माना है। हमारी संस्कृति के उदय के आरंभ-काल से ही जिस देश ने दर्शन और धर्म का साम्य स्थापित रखा, उसके जीवन में कर्म-सिद्धांत का प्राबल्य स्वाभाविक था। उपनिषद्-काल से लेकर नाना वेदांतों के विकास तक कर्म की प्रधानता से हमारा जीवन अभिभूत रहा है। भारतीय ऋषियों ने इस तत्त्व का अनुभव पहले ही कर लिया था कि यह विश्व व्यवस्थापूर्ण नियमों से परिचालित हो रहा है। प्रकृति के नियमित पर्यावृत्ति को देख कर हमारे ऋषियों ने इस व्यवस्था को ‘ऋत्’ नाम दिया।

इस ‘ऋत्’ का मूल कारण है ‘कर्म सिद्धांत’। ‘कृतप्रणाश’ और ‘कृताभ्युपगम’ को अपनाकर भारतीय जीवन की उन्नति पर्याप्त मात्रा में हुई। वर्त्तमान जीवन के स्वत: किए गए (कृतप्रणाश) और पूर्व जन्म के कर्म (कृताभ्युपगम) का फल अवश्य होता है–इस सिद्धांत का प्रतिपादन भारतीय मनोवृत्ति की भित्ति रही है।

कर्म सिद्धांत का आरंभ उपनिषद्-काल में हुआ था। कठोपनिषद् में कहा गया है–

‘योनिमन्ये प्रपद्यंते शरीरत्वाय देहिन:
स्थाणुमन्येऽनुसंयंति यथाकर्म यथाश्रुतम्’

अन्य कतिपय उपनिषदों में भी कर्म सिद्धांत की ओर दृष्टि गई है। यह सिद्धांत भारतीय दर्शन के नाना स्कूलों में गृहीत हुआ। षड्दर्शनों की तो बात ही क्या, जैन और बौद्ध दर्शनों ने भी इस सिद्धांत का ग्रहण उपनिषदों से ही किया है।

भारत के दार्शनिक जीवन की पीठिका श्रीमद्भगवद्गीता है। गीता में इस बंध जीवन के लिए अनेक मार्ग बतलाए गए हैं, परंतु उन सबों में प्रमुखता कर्म-मार्ग को ही दी गई है। ‘लोकोऽयं कर्मबंधन:’ की अमर वाणी ने हमें यह बतलाया कि मनुष्य कर्म के बंधनों में जकड़ा है। बिना कर्म किए उसकी मुक्ति नहीं हो सकती ‘न कर्मणामनारम्भानैष्कर्य पुरुषोऽश्नुते।’ कर्म-मार्ग के द्वारा जनक आदि मनुष्यों ने मुक्ति पा ली। गीता के अनुसार कर्म का वास्तविक कर्त्ता प्रकृति या primordial matter ही है, अत: गीता में इस बात पर विशेष जोर दिया गया है कि कर्म में आसक्ति का लेश भी न होना चाहिए “तस्मादसक्त: सततं कार्य-कर्म समाचार।” मानव की सीमा कर्म में करने तक ही सीमित है, इस बात की पुष्टि गीता की ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते’ से ही होती है।

हमने ऊपर ‘ऋत्’ की चर्चा की है। यह ‘ऋत्’ हमारे नाना दार्शनिक स्कूलों में विभिन्न रूपों में विकसित हुआ। अनंत-नियामिका-शक्ति ने हमारे जीवन में श्रद्धा का ऐसा स्थान प्राप्त किया कि हम स्वभावत: कर्म को प्रधानता देने लगे। आस्तिक षड्दर्शनों में सबसे प्राचीन सांख्य दर्शन ही माना जाता है। ‘सांख्य’ दर्शन के अनुसार जीव कर्म नहीं करता। कर्म की कर्तृ प्रकृति या primordial matter ही है। पुरुष या जीव तो कर्म-हीन है। पुरुष स्वभावत: मुक्त है। अविवेक के कारण जब पुरुष या जीव प्रकृति द्वारा किए गए कर्मों का कर्त्ता स्वयं को समझ बैठता है, तब वह बंध हो जाता है और संसार की सृष्टि होती है। वास्तव में प्रकृति से कर्म का कर्तृत्व होता है, परंतु जब पुरुष या जीव कर्म का कर्त्ता स्वयं को मान बैठता है, या जब उसका संबंध कर्म से हो जाता है, तभी सत्व, रजस् और तमस् के समत्व में विषमता आती है और तभी सृष्टि संभव होती है।

योग दर्शन का तो आधार ही कर्म है। गीता या उपनिषदों में ‘योग’ शब्द का व्यवहार कर्मयोग के लिए आया है। योग का अर्थ है चित्त-वृत्तियों का निरोध ‘योगश्चितवृत्ति निरोध:।’ योग दर्शन षड्दर्शनों में सबसे अधिक व्यवहारिक है। इसके अष्टांग इस बात को बतलाते हैं कि योग दर्शन में कर्म को कितनी प्रधानता दी गई है। योग का ‘साधन-पद’ कर्म की महत्ता को बतलाता है। समाधि प्राप्त करने के लिए कर्म की प्रधानता योग में अत्यधिक है।

न्याय और वैशेषिक दर्शन भौतिकता के सर्वाधिक सन्निकट हैं। वास्तव में इन दोनों दर्शनों की प्रवृत्ति अधिकतर प्रमाण-मीमांसा की ओर है; परंतु फिर भी इन दोनों दार्शनिक स्कूलों में कर्म का कम महत्त्व नहीं है। ये दोनों स्कूल सृष्टि या विनाश का तात्कालिक कारण (Immidiate Cause) ईश्वर को मानते हैं। जब ईश्वर की इच्छा होती है, तब अणुओं में गति का संचार होता है, और जब उसकी इच्छा होती है तब उनकी गति बंद हो जाती है। परंतु ईश्वर स्वेछा से ऐसा नहीं करता। न्याय-वैशेषिक के अनुसार ईश्वर अणुओं में गति-संचालन और गति-विनाश का कार्य पूर्व कर्म के अनुसार ही करता है। अत: सृष्टि या विनाश का मूल कारण ईश्वर नहीं; प्रत्युत कर्म ही है। न्याय-वैशेषिक के अनुसार कर्म सदा फलप्रद है। इन दोनों स्कूलों में वैदिक काल का ‘ऋत्’ ‘अदृश्य’ के रूप में विकसित हुआ है।

मीमांसा दर्शन तो उपनिषद् का कर्मकांड ही माना जाता है। मीमांसा दर्शन का लक्ष्य कर्मकांड का विवेचन है। किंतु मिमांसा का ‘कर्म’ अन्य स्कूलों से सर्वथा भिन्न है। यहाँ भौतिक कर्म–यज्ञ आदि की ही महत्ता दी गई है, और उसे ही सब कुछ माना गया है। वैदिक यज्ञादि कर्म का फल स्वर्ग में मिलता है। इसी विश्वास का प्रतिपादन मीमांसा दर्शन का मुख्य विषय है। इस प्रकार मीमांसा कर्म और तद् रूप फल पर सर्वाधिक विश्वास रखता है। मीमांसा के अनुसार कर्म-प्रवर्त्तक-वचन ही धर्म है–“चोदनालक्षणोऽर्धो धर्म:।” मीमांसा का ‘अपूर्व सिद्धांत’ कर्म सिद्धांत की पुष्टि करता है।

वेदांत दर्शन का प्रमुख विषय है ज्ञान मीमांसा। परंतु कर्म सिद्धांत को भी कम महत्त्व नहीं दिया गया है। अद्वैत मत के प्रवर्त्तक शंकराचार्य ने अपने भाष्य में दो प्रकार की निष्ठाएँ बतलाई हैं–‘कर्मनिष्ठा’ और ‘ज्ञान-निष्ठा’। सांसारिक जीवन के लिए शंकराचार्य को कर्म का विधान मान्य है। उन्होंने स्वरूपापत्ति की सिद्धि के लिए तो कर्म को व्यर्थ बतलाया है; क्योंकि कर्म का उपयोग अविद्यमान का उत्पादन करने या किसी स्थान या वस्तु की प्राप्ति के लिए ही है। नित्य सत् सिद्ध-रूप आत्मा की स्थिति को प्राप्त करने के लिए नहीं, परंतु फिर भी उन्होंने कर्म को चित्त शुद्धि का उपाय बतलाया है, जो आत्म-ज्ञानोत्पत्ति में सहायक हो सकता है। उन्होंने भी गीता की तरह निष्काम कर्म को ही मानव के लिए कल्याणकारी बतलाया है। पद्मपादाचार्य ने अपने ग्रंथ ‘विज्ञान दीपिका’ में वेदांत की आचार-पद्धति का विश्लेषण करते हुए कर्म-सिद्धांत का विवेचन किया है। अंत:शुद्धि करने और मोक्ष प्राप्ति के लिए कर्म की उपादेयता पद्मपादाचार्य ने बतलाई है। सदानंद ने भी अपने ‘वेदांत सार’ में वेदांत के अध्ययन के पूर्व नित्य, नैमित्तिक एवं प्रायश्चित्त आदि कर्मों के द्वारा चित्त की शुद्धि कर लेना आवश्यक बतलाया है। शंकराचार्य ने तो यहाँ तक कहा है कि शरीर की स्थिति पूर्णतया कर्म पर ही आश्रित है। ज्ञान-प्राप्ति से ही शरीर का विनाश नहीं हो जाता। पूर्व प्रारब्ध-कर्म के अनुसार यह शरीर या तो जीवित रहता है या मृत हो जाता है। अत: यह आवश्यक नहीं कि जिस समय ज्ञान प्राप्ति हो, उसी समय मृत्यु भी। मुक्ति चाहे कभी भी हो, शरीर का अंत प्रारब्ध-कर्म के अनुसार ही होगा। शंकराचार्य का यह विचार बाद के वेदांतों में ‘जीवन-मुक्ति’ के रूप में विकसित हुआ।

विशिष्टाद्वैत के प्रवर्तक रामानुजाचार्य ने तो कर्म को मुक्ति का एक मार्ग बतलाया है। कर्म से चित्त-शुद्धि और चित्त-शुद्धि से ब्रह्मजिज्ञासा होती है, अत: ज्ञानप्राप्ति के पूर्व कर्म से अनुष्ठान आवश्यक है। रामानुज के दर्शन में कर्म की इतनी महत्ता दी गई, कि ज्ञान-पक्ष से मिल कर वह भक्ति के उदय में सहायक हुआ। वैष्णव संप्रदाय के प्रसार का एक प्रमुख कारण कर्म-भावना भी था। यद्यपि वैष्णव संप्रदाय के आचार्यों में कर्मों के अनुष्ठान के विषय में पर्याप्त मदभेद है, फिर भी कर्म का महत्त्व अधिकाधिक आचार्यों को मान्य रहा है।

मध्वाचार्य के द्वैत वेदांत में ‘कर्म’ दस पदार्थों में से एक माना गया है। कर्म तीन प्रकार का माना जाता है। विहित, निषिद्ध एवं उदासीन। उत्क्षेपण आदि अनेक कर्म ‘उदासीन’ के अंतर्गत ही माने गए हैं। वल्लभाचार्य के शुद्धाद्वैत मत में भगवान के त्रय-रूपानुसार तीन मार्ग बतलाए गए हैं–कर्ममार्ग, ज्ञानमार्ग और पुष्टिमार्ग। कर्ममार्ग आधिभौतिक है और वल्लभ के मत में इसकी सम्यक् प्रधानता है। निंबार्क ने अपने द्वैता-द्वैत मत में जीव का कर्तृत्व माना है। बंध की दशा में तो वह अनुभवगम्य है, मुक्त दशा में भी जीव का कर्तृत्व मान्य है।

नास्तिक दर्शनों में चार्वाक को छोड़ कर जैन और बौद्ध दर्शन कर्म-सिद्धांत को स्वीकार करते हैं, यह बात ऊपर की गई है। जैन दर्शन ईश्वर को नहीं मानता, अत: कर्म-सिद्धांत की प्रतिष्ठा पर्याप्त मात्रा में है। जैन दर्शनानुसार कर्म पौद्गलिक हैं, अणुओं से बने हैं। जीव का जब कर्म से संपर्क हो जाता है, तो वह बंध हो जाता है और सृष्टि संभव होती है। जगत् या शरीर के साथ जीव का संबंध कर्म के द्वारा ही होता है। ऐसा जैन मत वाले मानते हैं। जीव और कर्म के संयोग और वियोग के क्रम को सात पदार्थों में रखा गया है।

बौद्ध दर्शन भी ईश्वर को नहीं मानता। हाँ, कर्म-सिद्धांत को अवश्य मानता है। जैसा काम करोगे, तदनुसार फल होगा–यही बौद्ध दर्शन बतलाता है। अच्छे कामों का फल अच्छा और बुरे कामों का फल बुरा होगा। बौद्ध दर्शन का यह कर्म-सिद्धांत उसके प्रतीत्य-समुत्पाद के सिद्धांत पर आश्रित है। दोनों के मूल में अविद्या है और दोनों साथ-साथ चलते हैं। प्रतीत्य-सत्मुपाद का अर्थ–कश्चित् वस्तु की प्राप्ति होने पर (प्रतीत्य) अन्य वस्तु का उत्पादन (समुत्पाद) प्रतीत्य-समुत्पाद सारे बौद्ध धर्म का आधार है। इसी को ‘बोधि’ या enlightenment कहते हैं, इसी का नाम धम्म या धर्म है। प्रतीत्य-समुत्पाद की प्रशंसा में स्वयं भगवान् बुद्ध ने कहा है कि ‘जो धर्म को जानता है वह प्रतीत्य-समुत्पाद से परिचित है, और जिसे प्रतीत्य-समुत्पाद की जानकारी है उसे धर्म का ज्ञान है’। शून्यवाद के प्रवर्त्तक नागार्जुन और विज्ञानवाद के प्रवर्त्तक शांति-रक्षित ने प्रतीत्य-समुत्पाद की प्रशंसा में आदर के वाक्य कहे हैं। इस तरह प्रतीत्य-समुत्पाद के सिद्धांत पर ही सारा बौद्ध दर्शन प्रतिष्ठित है। यह प्रतीत्य समुत्पाद का सिद्धांत कर्म-सिद्धांत के अत्यंत सन्निकट और उसका जनक है। इस प्रकार कर्म सिद्धांत से बौद्ध दर्शन पूर्ण रूपेण प्रभावित है। बौद्ध दर्शन का ‘अस्मिन सति इदं भवति’ कर्म सिद्धांत पर ही आश्रित है।

इस प्रकार हम देखते हैं कि ऋषियों ने आरंभ में जिस ‘ऋ’ को पाया, वह उपनिषद् काल में कर्म-सिद्धांत के रूप में प्रतिष्ठापित हुआ। गीता ने कर्म के अमर वाक्य कहे। फिर नाना आस्तिक एवं नास्तिक स्कूलों ने इसके महत्त्व को पहचाना। भारतीय दर्शन के इतिहास में आरंभ से प्रतिष्ठापित ‘कर्म’ का महत्त्व आज भी बना है।


Image: Gouache painting on mica of a blacksmith
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Artist: Company School
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