छत्तीसगढ़ के पर्व और लोकगीत

छत्तीसगढ़ के पर्व और लोकगीत

छत्तीसगढ़ के प्राय: प्रत्येक इलाके में, छोटे-बड़े शहरों एवं दोहातों में उत्साहपूर्वक मनाए जाने वाले जंवारा, तीज, हरेली, कम्हरछठ, पोरा, राखी, भोजली, तीजा, गणेशचतुर्थी, दशहरा, दिवाली, एकादशी, जेठवनी, मंडई, तिल-संकरात, वसंतपंचमी, होली, आदि त्यौहार महत्त्वपूर्ण हैं। विशेषत: ये त्यौहार छत्तीसगढ़ के ग्रामवासी अत्यधिक संख्या में मनाते हैं। क्या स्त्री, क्या पुरुष, प्राय: सभी इन त्यौहारों को सर्वश्रेष्ठ मानते हैं। इसके अतिरिक्त हिंदुओं के अन्य सभी त्यौहार जैसे रामनवमी, कृष्णाष्टमी, नाग-पंचमी, तुलसी-विवाह, महाशिवरात्रि आदि सभी धार्मिक त्यौहारों में भी वे लोग पूर्णत: भाग लेते हैं। त्यौहारों के शुभ अवसर पर स्नेह, उत्साह और आनंद के साथ ये लोग आपस में मिलकर बड़ी ही श्रद्धा एवं भक्ति के साथ पर्व को सफल बनाते हैं। छत्तीसगढ़ की गरीब भोली-भाली निरक्षर जनता त्यौहारों को अत्यंत महत्त्व देती है। यही कारण है कि उनका गरीब जीवन शहरों के स्वर्गीय जीवन से भी अधिक आनंदमय होता है। सुख और दु:ख के हिंडोलों में झूलना और मुस्कुराते रहना ही उनके जीवन का सर्वप्रथम कर्तव्य है।

जंवारा

‘जंवारा’ छत्तीसगढ़ का प्रमुख त्यौहार है। यह त्यौहार चैत्र महीने में नवदुर्गा में मनाया जाता है। इस अवसर पर छत्तीसगढ़ की हर जाति की स्त्रियाँ अपने-अपने घरों में किसी दोने, छोटी टोकरी या मिट्टी के बर्तनों में गेहूँ के पौधे लगाती हैं! जब पौधा तैयार हो जाता है, तब वे चैत्र की उजेरी पाख की नवमी को, जबकि मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान् रामचंद्रजी का शुभागमन दिवस मनाया जाता है अपना-अपना जंवारा सिर अथवा कंधों पर रखकर सैंकड़ों हजारों की संख्या में एकत्रित हो, बाजों के साथ बड़ी ही धूमधाम से देवी दुर्गा की यश गाती हुई किसी तालाब अथवा जहाँ पर देवी का मंदिर हो, जाकर उन्हें पानी में ठंढा करती हैं तथा उसके कुछ पौधे साथ घर ले जाती है और आपस में एक दूसरे को बाँटती हैं। यह पर्व देवी-पूजन अथवा जंवारा कहलाता है। देवी-पूजन को जाते समय तथा लौटते समय छत्तीसगढ़ की स्त्रियों का यह सम्मिलित लोकगीत अन्यंत प्रिय लगता है।

“देवी मैया शारदा!
तोरे गुण गावौं मैया!”
निशिदिन ध्यावौं हो?
टारहु दुर्गा-मैया जग-विसदा!
देवी मैया शारदा!!

आरवातीज

‘आरवातीज’ छत्तीसगढ़ की क्वाँरी लड़कियों का विशेष त्यौहार है, यह त्यौहार वैशाख की उजेरी पाख के तीज के दिन मनाया जाता है। इस दिन लड़कियाँ अपने-अपने घरों में छोटा-सा आम्र-मंडप बनाकर उसे खूब अच्छी तरह सजाती हैं, और गुड्डा-गुड्डी का ब्याह रचाती हैं। विशेषत: इस त्यौहार में लड़कियाँ अपने गाँव या मुहल्ले के हमजोलियों को भोजन भी कराती हैं। इस पर्व को अक्ली अथवा ‘आरवातीज’ कहते हैं। विवाह के अवसर पर, गुड्डा-गुड्डी मिलन की मधुर-बेला में क्वाँरी लड़कियों का यह सामूहिक गीत अति प्रिय लगता है–

“आए हे दुल्हनिया प्यारी-प्यारी!
ओढ़े हे सिर मा चुनरिया-गुलाबी!
पहिरे हे रेशम के सारी!!
आए हे दुल्हनिया प्यारी-प्यारी!!”

हरेली

‘हरेली’ छत्तीसगढ़ के किसानों का विशेष पर्व है। यह श्रावण की अमावस्या के दिन मनाया जाता है। खेतों पर हरियाली छाने की खुशी में ही यह पर्व मनाया जाता है। किसान तथा मजदूर इस दिन अपने-अपने हल, औजार और बैलों की पूजा करते हैं। तथा उस दिन बैलों से कोई काम नहीं लेते, और बाँस की गेंड़ी बनाकर छत्तीसगढ़ के बालक उस पर चढ़कर चलते, दौड़ते और नाचते हैं। इसे ‘हरेरी’ अथवा ‘हरेली’ कहते हैं। खेतों की मेड़ों और क्यारियों में किसान युवक और युवतियों का हर्ष-गीत गूँज उठता है।

कम्हरछठ

‘कम्हरछठ’ छत्तीसगढ़ की स्त्रियों का महत्त्वपूर्ण त्यौहार है। इस दिन स्त्रियाँ गोबर का छठ बनाती हैं, और अपने-अपने घरों के आँगन में छिउला अर्थात मौहे की पत्ती गड़ाती हैं, और मिट्टी की चुकियों को हल्दी और चावल के ऐपन से रंगकर, सिंदूर का टिपका लगा कर, उनमें सात किस्म का अनाज जैसे मक्का, चना, बाजड़ा, उड़द, धान की लाई, गेहूँ और महुआ वगैरह भरकर उसकी पूजा करती हैं, तथा पूजा समाप्त होने तक उपवास रहती हैं। उपवास तोड़ने के बाद पसहर का चावल (जो बोया नहीं जाता), गाय या भैंस का दूध, दही अथवा खोवा और सेंधा नमक के साथ खाती हैं तथा मौहे का दतौन भी करती हैं। यह त्यौहार पुत्र की शुभकामनार्थ ही मनाया जाता है। इस त्यौहार को कम्हरछठ अथवा हरछठ-पूजा कहते हैं। इस पर्व पर गीत गाने की नहीं अपितु प्राचीन कहानियाँ सुनाने की प्रथा है।

पोरा

‘पोरा’ छत्तीसगढ़ के मजदूरों और किसानों का महत्त्वपूर्ण पर्व है। यह भादो की अमावस्या को मनाय जाता है। पोरा के दिन लोग अपने-अपने जानवरों को, विशेषत: बैलों को रंग-बिरंगे रंग से रंगकर, उन्हें घुँघरू आदि पहनाकर बाजों के साथ बड़ी धूमधाम से निकालते हैं। संध्या के समय सब लोग अपने-अपने बैलों को लेकर गाँव या शहर के किसी एक बड़े मैदान या बाजार में इकट्ठे होते हैं। बैल के मालिक अपने-अपने बैलों को लंबी बँधी हुई तोरण और रंगीन झंडी के नीचे एक कतार में खड़े कर देते हैं। जब प्राय: गाँव और शहर के सब लोग उपस्थित हो जाते हैं, तब बैलों की एक शानदार दौड़ होती है। हजारों अपितु लाखों जनता यहाँ मेला देखने के लिए आती है। छोटे-छोटे बच्चे मिट्टी, पीतल या काठ के बैल अथवा घोड़े, हाथी आदि से खेलते हैं। पोरा के दिन लोग बैलों की पूजा करते हैं। उस दिन बैलों से कोई काम नहीं लेते। उस त्यौहार को ‘पोरा’ अथवा ‘पोला’ कहते हैं। यह पर्व केवल मेले के रूप में ही मनाया जाता है, इसमें लोकगीत नहीं गाये जाते।

राखी

‘राखी’ त्यौहार भारतवर्ष की भाँति छत्तीसगढ़ में भी अति उत्तम माना जाता है। स्त्रियाँ और लड़कियाँ अपने-अपने भाइयों को राखी बाँधती हैं। छत्तीसगढ़ के किसान, मजदूर अपने-अपने बैलों की सींगों पर राखी बाँधते हैं। इस त्यौहार को ‘राखी’ अथवा ‘रक्षाबंधन’ कहते हैं। राखी बाँधती हुई छत्तीसगढ़ की स्त्रियाँ व लड़कियाँ निम्नलिखित गीत को बहुत ही स्नेहपूर्ण-स्वरों में गाती हैं–
“राखी बँधावहु भैया, शुभ दिन आए हो।
सुधि हमर राखहु भैया, माता के जाए हो॥”

भोजली

‘भोजली’ छत्तीसगढ़ का अनुपम त्यौहार है। यह त्यौहार भादो की पैरवा अर्थात राखी के दूसरे दिन मनाया जाता है। इस दिन संध्या को छत्तीसगढ़ के प्रत्येक शहर, गाँव और गलियों में एक भारी मेला-सा लगता है। विशेषत: ग्रामीण स्त्रियाँ व लड़कियाँ सुंदर शृंगार कर अपने-अपने हाथों में या सिरों में भुजरिया अर्थात गेहूँ के पौधे, जिसे वे जंवारा की भाँति दौरी, टोकरी, दोना या मिट्टी के बर्तनों में बोती हैं, रखकर हजारों की संख्या में बाजों के साथ बड़ी ही धूमधाम से निकलती हैं, और “देवी गंगा, देवी गंगा, लहर तुरंगा” की सुमधुर स्वर लहरी के साथ अपने-अपने शहर या गाँव के निकटस्थ किसी नदी या तालाब में ठंढा करने अर्थात् सिराने जाती हैं। इस सुहावने त्यौहार का स्वर्गीय आनंद लेने हेतु छत्तीसगढ़ की जनता लाखों की भीड़ में एकत्रित होती है। उच्च घराने की स्त्रियाँ व लड़कियाँ भी इस उत्सव में भाग लेती हैं। संध्या को मेले से लौटकर लोग अपने-अपने संबंधियों एवं परिचित जनों को, स्त्रियाँ व लड़कियाँ अपनी सखी-सहेलियों को भोजली भेंटकर अमर प्रेम का परिचय देती हैं। तथा आपस में एक दूसरे का नाम न लेकर उन्हें ‘भोजली’ या ‘गंगाजल’ के नाम से संबोधित करती है। इस त्यौहार को ‘भोजली’ अथवा ‘भुजरिया’ कहते हैं। भोजली ठंडा करने के लिए, नदी या तालाब की ओर जाते समय छत्तीसगढ़ की सुहागिनों और क्वाँरी लड़कियों का यह मधुर लोकगीत वास्तव में अत्यंत कर्णप्रिय प्रतीत होता है–

“देवी गंगा, देवी गंगा, लहर-तुरंगा।
तोरे भोजल बिन, नाहिं आठो अंगा॥
धीरे-धीरे आपन, धारा बोहा दे।”
जुग-जुग के मैंया तैं पाप धोवा दे।
तहीं गंगा, तहीं जमुना, लहर-तुरंगा।
तोरे भोजल बिन नाहिं आठो अंगा॥ देवी गंगा…
तोरे पग छुए बर हम आए हन माता।
चरण पखार दे, भागीरथीं माता।
डुबे झनि जावैं यह जीवन के नैया।
लगा दे किनारे तैं जीवन के नैया।
कल-कल कल-कल राग-फिरंगा।
तोरे भोजल बिन नाहिं आठो अंगा॥ देवी गंगा…
सतजुग, त्रेता, दुआपर के गंगा।
सरजू, तिरवेनी, गोदावरी, बैनगंगा।
तहीं सुख-सागर, तहीं धर्म-गीता।
तहीं गौरी माता, तहीं सती-सीता।
संगम मा तोरे, बहै रंग बिरंगा।
तोरे भोजल बिन, नाहिं आठो-अंगा॥ देवी गंगा…

तीजा

‘तीजा’ छत्तीसगढ़ की स्त्रियों का विशेष त्यौहार है। यह पर्व भादो की तीज की रात्रि को मनाया जाता है। इस दिन स्त्रियाँ चौबीस घंटे उपवास करती हैं, अपने-अपने घरों में पार्वती जी की झाँकी बिठाकर उसे फूल और बेलपात से खूब सजाती हैं तथा उसकी पूजा करती हैं। रात भर जागरण करती हैं, भजन आदि गाती हैं तथा तीज के दूसरे दिन सुबह उपवास छोड़कर ककड़ी, निंबू के रस आदि का फलहार करती हैं। इस त्यौहार को ‘तीज’ अथवा ‘तीजा’ कहते हैं। इस शुभ अवसर पर शंकर-पार्वती विवाह का यह मधुर गीत छत्तीसगढ़ की स्त्रियों के मुख से लहराता होता है–

“हाँ रे गौरा, तोरा बिहावन शिव आए।
तोरा बिहावन शिव आए, गौरा तोरा बिहावन शिव आए॥
सिर पर जटा-जूट औ सारे अंगमा भसम रमाए हो।
इक कर मा तिरशूल है शोभैं, दूजे मा डमरू भाए हो।
भोलानाथ, राम के ध्यान लगाए।
हाँ रे, गौरा, तोरा बिहावन शिव आए॥…
भूत, प्रेत, पिशाच और बैताल बराती लाए हो।
नंदी बैला मा सज-धज के, भैरव शंख बजाए हो।
पार्वती, मन ही मन घबराए।
हाँ रे, गौरा, तोरा बिहावन शिव आए॥”

गणपति

‘गणपति’ छत्तीसगढ़ का सर्वप्रथम त्यौहार है। भादो की चौथ को श्रीगणेश मूर्ति-स्थापना के बाद लगभग दस दिनों तक इसका उत्सव मनाया जाता है। इसका महत्त्व शहरों और गाँवों में समान रहता है। श्री गणेशजी के मंडप में तरह-तरह के कार्यक्रम जैसे–कीर्तन, भजन, रामायण, कृष्ण-लीला, रामलीला, धार्मिक व्याख्यान, प्रहसन, नाटक, नृत्य और गायन आदि किए जाते हैं। गायन एवं नृत्यों के कार्यक्रम विशेष रूप से किए जाते हैं। जिस स्थान पर श्री गणेशजी की स्थापना की जाती है, उस स्थान के सुंदर दृश्य और वहाँ की सजावट देखकर मन आनंद विभोर हो उठता है। कार्यक्रमों में गाँवों और शहरों की जनता की उपस्थिति अत्यधिक संख्या में रहती है। मूर्ति-विसर्जन रात्रि को होते हैं। छत्तीसगढ़ में इस त्यौहार को ‘गणेश-चतुर्थी’ अथवा ‘गणपति’ कहते हैं। गणपति-पूजन एवं कार्यक्रमों के प्रारंभ करने के पूर्व श्री गणेशजी की यह स्तुति छत्तीसगढ़ में गाई जाती है–

“गुरु गणपित के, गुरु गणपति के।
चरण मनावौं, मैं तो चरण मनावौं॥
घस-घस चंदन के लेप लगावौं।
लड्डू अऊ मेवा का भोग लगावौं।
मैं तो आरती उतारौं, मैं तो चरण मनावौं॥ गुरु…
फूल के सुग्घर हार बनावौं।
गणनायक के गले पहिरावौं।
मैं तो मंगल गीत गावौं, मैं तौं चरण मनावौं॥ गुरु…
गुरु गणेश ला निशदिन ध्यावौं।
चरणन मा शीश नवावौं। मैं तो चरण मनावौं॥…
गुरु गणपति के, मैं तो चरण मनावौं॥…”

इसके अतिरिक्त ग्रामवासियों द्वारा प्रदर्शित नाटक एवं नृत्य अथवा हास्य-प्रहसन आदि में नर्तकी द्वारा नृत्य के साथ गाया जाने वाला यह लोकगीत जनता को मंत्र-मुग्ध-सा कर देता है–

“पिया जी की बतियाँ, पिया जी की बतियाँ।
दिल के दिल मा रहिस, मन के मन मा रहिस॥
अइसन वो आन बसिस, मोरे नैनन मा।
कजरा लगै जइसन, गोरे नैनन मा।
कारी-कारी अँखियाँ, कारी-कारी अँखियाँ।
बिन बरसे ना रहिस, मन के मन मा रहिस॥…
छिपए बहार जइसन, शीतल पवन मा।
अइसन छिपिस, जइसन चंदा गगन मा।
तारों भरी रतियाँ तारों भरी रतियाँ।
मोसे काटे कटिस, मन के मन मा रहिस॥
पिया जी की बतियाँ, पिया जी की बतियाँ॥…”

छत्तीसगढ़ के ग्रामीण कलाकार जनता के सुंदर मनोरंजन के लिए निम्नलिखित हास्य-नृत्य-गीत जैसे कलाकौशल का प्रदर्शन भी बहुत ही सुरुचिपूर्ण ढंग से प्रस्तुत करते हैं–

“निकलिस पक्का जुआँड़ी, बलम जुआँ हार गईस।
कर्धन हार गईस, कंगना हार गईस।
छल्ला रहिस ना निशानी, बलम जुआँ हार गईस॥
बर्तन हार गईस, लोटा हार गईस।
काहे मा पियौं हाय पानी, बलम जुआँ हार गईस॥
सब धन हार गईस, घर-बार हार गईस।
हार गईस मोरी जवानी, बलम जुआँ हार गईस॥
नैहर हे सूना, ससुरार दुख:दायी–
कइसन कटे जिंदगानी, बलम जुआँ हार गईस॥
निकलिस पक्का जुआँड़ी, बलम जुआँ हार गईस॥…”

छत्तीसगढ़ के इन कार्यक्रमों में धार्मिक भावनाओं को भुलाया नहीं जाता, तथा समय-समय पर भगवान की श्रद्धा एवं मृदु स्मृति में भी धार्मिक लोकगीत, नृत्य आदि जनता के समक्ष प्रस्तुत किए जाते हैं। छत्तीसगढ़ में ‘ग्वालन-गीत’ तथा रास-लीला आदि को अधिक महत्त्व दिया जाता है। यह गीत भगवान कृष्ण और गोकुल के ग्वाल-बाल तथा गोपिकाओं की याद जागृत कर देता है तथा जनता का हृदय आनंद-विभोर हो थिरक उठता है। यह ‘ग्वालन-गीत’ छत्तीसगढ़ में बहुत ही विख्यात है–

“दहिया ले लौ हो, दुधवा ले लौ।
गोरस ले लौ हो, मधुरस ले लौ॥
गैया के दूध मोरा; दू आना पउवा!
भैंसी के दूध मोरा, छै पैसा पउवा!
छेरिया के दू पैसा ले लौ, हो दुधवा ले लौ!!
मैं हौं गवालिन रतनपुर के,
आऊ सैंया है मोरा संबलपुर के!
रबड़ी ले लौ हो खोवा ले लौ!! दुधवा…
मैं हर हौ गोपी बिंदावन के–
लेके बर गोरस आयों बन ठन के!
घिया ले लौ हो, लेउना ले लौ!! दुधवा…”
भोला नजर झनि लगाहौ गा बालम!
करके इशारा बलाहौ ना बालम?
पहिल दिल ला अपन समुझा ले हौ!! दुधवा…”

दशहरा

‘दशहरा’ छत्तीसगढ़ का गौरवपूर्ण ऐतिहासिक पर्व है। यह कुँआर की उजेरीपाख की दशमी को मनाया जाता है। संध्या को शहर में भगवान श्री रामचंद्रजी का रथ निकलता है। किसी एक बड़े मैदान में या बाजार में कागज का विशालकाय रावण बनाकर खड़ा कर दिया जाता है तथा भगवान रामचंद्रजी द्वारा उसका वध किया जाता है। लाखों और करोड़ों की भीड़ में जनता वहाँ एकत्र होती है और एक भारी मेला लगता है। रावण-वध होते ही लोग अपने-अपने घरों को वापस लौटकर लोगों को सोनपान बाँटते हैं, तथा भगवान रामचंद्रजी की विजय-तिथि एवं उनकी स्मृति को अमर बनाते हैं। इस पर्व में लोग अपने-अपने बैरभाव को भुलाकर भाई-भाई का परिचय देते हैं। इस पर्व को ‘दशहरा’ अर्थात ‘विजयादशमी’ कहते हैं। इस पर्व में भी गीतों की प्रथा नहीं है।

दिवाली

‘दिवाली’ छत्तीसगढ़ का ज्योतिर्मय-पर्व है। यह कार्तिक की अमावस्या को मनाया जाता है। छत्तीसगढ़ की ग्रामीण जनता मिट्टी की दियालियों को जलाकर लक्ष्मी जी की मूर्ति की धान की लाई, मिठाई और बताशों से पूजा करती हैं। रात्रि को बालक पटाके आदि उड़ाते हैं। किसान, मजदूर इस दिन जुआ भी खेलते हैं, स्त्रियाँ सुआ-नृत्य आरंभ कर देती हैं। एक टोकरी या दौरी में एक मिट्टी या काठ का सुंदर-सा सुआ बिठाकर उसे ओढ़नी ओढ़ा देती हैं और टोलिआँ बनाकर शहर और गाँवों में ‘सुआ गीत’ गाती हुई निकलती हैं। ये स्त्रियाँ धनिकों के दरवाजे पर, विशेषत: अपने परिचित या मालिक-ठाकुरों के यहाँ जाकर गाती और नाचती हैं, मालिक लोग अपनी यथाशक्ति उन्हें अन्न, वस्त्र और द्रव्यादि भेंट करते हैं। ‘सुआ-नाच’ दीवाली के ग्यारह दिन बाद एकादशी तक होता है। इस त्यौहार को छत्तीसगढ़ में ‘सुरहुली’ अथवा ‘देवारी’ कहते हैं। इस पर्व पर गाये जाने वाले सुआ-नृत्य गीतों के परिचय स्वरूप एक गीत यहाँ है–

तारा हरी नाना, नाना सुआना, हो तारा हरी नाना! नाना सुआ ना!!
ये पारा के मैना, वो पारा मा जाके,
चुगरी-चहारी लगावै!
पर मोरा सुअना, कोखरो इहाँ,
जावै ना चुगरी लगावै!
हवै मस्ताना, नाना सुआ ना, हो तारा हरी नाना!! नाना सुआना!!
निशदिन सुअना के गुण मैं गावौ!
सुगना मोला, अऊ मैं सुगना ला भावौं!
गावौं नित गाना, नाना सुआना हो तारा हरीनाना!! नाना सुआना॥
मोरा तो सुगना हरिगुण गावै।
हरिगुण गावै, हो प्रभुगुण गाव।
अइसन सुगना मा वारी मैं जावौ।
ध्यावौं भगवान, नाना सुआना, हो तारा हरी नाना॥ नाना सुआना॥

उपरोक्त गीत छत्तीसगढ़ की ग्रामीण-स्त्रियों द्वारा ताली बजा-बजाकर, गोलाकार नाचते समय गाया जाता है, जिसकी मधुर स्वरलहरी जनता को अपनी ओर आकर्षित कर लेती है। इसी भाँति अन्य और ‘सुआ-गीत’ इस अवसर पर गाये जाते हैं–

“के सुआ हो, चल जाई कोटमी बजार।
कोटमी बजार मा काका बेकाये?
निंबू, नरंगी, अनार।
के सुआ हो, चल जाई कोटमी बजार॥
कोटमी बजार मा का का बेकाये?
केरा, बिही अऊ कुशियार।
के सुआ हो चल जाई कोटमी बजार॥
कोटमी बजार मा का का बेकाये?
बहुंटा बेकाये अऊ नथनी बेकाये।
तरकी बेकाये अनमोल।
के सुआ हो चल जाई कोटमी बजार॥
कोटमी बजार मा का का बेकाये?
कंगना बेकाये अऊ मुंदरी बेकाये।
चुंदरी बेकाय अनमोल।
के सुआ हो चल जाई कोटमी बजार॥
चुनरी पहिर ले तैं लहँगा पहिर ले।
कर ले तैं सोरा सिंगार।
के सुआ हो तोलो पठा दौं ससुरार॥
के सुआ हो चल जाई कोटमी बजार॥…

यह सम्मिलित-गीत भी विशेषत: छत्तीसगढ़ की ग्रामीण-स्त्रियाँ सुआ-नृत्य के अवसर पर ही गाती हैं। तथा इसी प्रकार के अन्य कुछ लोकगीत भी दीवाली पर्व के उपलक्ष में गाये जाते हैं।

एकादशी

‘एकादशी’ छत्तीसगढ़ का विशेष त्यौहार है। यह दीवाली के ग्यारहवें दिन मनाया जाता है। इस दिन स्त्री, पुरुष सभी उपवास करते हैं तथा संध्या के समय अपने घर के आँगन में भगवान चंद्रमा की जुधैंयाँ की पूजा हेतु चौक आदि पूरती हैं जिसमें गन्ना, सिंघाड़ा, बेर, चना की भाजी, भंटे इत्यादि चढ़ाकर भगवान चंद्र की पूजा करती हैं। विशेषत: छत्तीसगढ़ के कृष्ण-वंशी जैसे राउत, अहीर, ग्वाल, आदि जाति के लोग सज-धजकर ग्वाल-बाल-नृत्य नाचना प्रारंभ कर देते हैं जिसे ‘राउत-नाच’ कहते हैं। गाँवों और शहरों में ये लोग टोलियाँ बनाकर बाजों के साथ बड़ी धूमधाम से निकलते हैं तथा अपने परिचित एवं अपने मालिक ठाकुरों के द्वार पर जाकर नाचते हैं। तथा लोग अपनी यथाशक्ति उन्हें देते करते हैं। कुछ लोग दीवाली से ही ‘राउत-नाच’ प्रारंभ कर देते हैं। तथा गाँव के लोग शहर और शहर के लोग बहुधा गाँवों में भी नाचने जाते हैं। कार्तिक की पूर्णिमा को इनके झुंड निकटस्थ शहर में किसी एक बड़े मैदान में या बाजार में लाखों की भीड़ के साथ जमा होते हैं और सब साथ ही मिलकर नाचते हैं। इस मेले को ‘मंडई’ कहते हैं। छत्तीसगढ़ की जनता इस मेले में अत्यधिक संख्या में उपस्थित होती है। ग्रामवासी सैंकड़ों मील पैदल चलकर शहर आते हैं। इस त्यौहार को ‘एकादशी’, ‘जेठउनी’ अथवा ‘मंडई’ कहते हैं। इस पर्व में ‘राउत-नाच’ के अवसर पर बीच-बीच में धार्मिक दोहे बोलने की प्रथा है।

तिलसंकरात

‘तिलसंकरात’ माघ की तेरस को मनाया जाता है। छत्तीसगढ़ के ग्रामवासी इस दिन तिल-दान, तिल-खान और तिल-स्नान करते हैं और तिल्ला के लड्डू तथा खिचड़ी मिलाकर, ब्राह्मण और साधु-संतों को दान बाँटते हैं। पुरुष और स्त्रियाँ गाँव या शहर के किसी तालाब, नदी या नहर में शुभ-स्नान करते हैं तथा इस दिन खिचड़ी का ही भोजन करते हैं। तिलसंकरात के दिन विशेषत: छत्तीसगढ़ के प्राचीन ऐतिहासिक मठ और मंदिरों के निकट मेले भी लगते हैं। इस ‘संकरात’ अथवा ‘तिल-संकरात’ कहते हैं। इस पर्व में लोकगीत बहुधा नहीं गाये जाते।

वसंत पंचमी

‘वसंत पंचमी’ छत्तीसगढ़ का विशेष त्यौहार है। यह माघ की दूसरी पाख की पंचमी को मनाया जाता है। इस दिन लोग बगरंडा के झाड़ की होली गड़ाते हैं और अश्लील कवित आदि गाते हैं। इसी दिन से छत्तीसगढ़ के गाँवों और शहरों में गली-गली ‘फगुआ-गीत’ गाना और नाचना प्रारंभ हो जाता है तथा गाँवों और शहरों में नगाड़े, टिमकी, मृदंग और ढोल पर लोग ‘फाग’ और ‘होरी’ गाने लगते हैं। इसे ‘वसंत पंचमी’ कहते हैं। इस पर्व में भी लोकगीत नहीं गाये जाते। केवल ‘फाग’ और ‘होरी’ के गीत ही गाये जाते हैं, किंतु वे गीत लोकगीतों की भाँति ही छत्तीसगढ़ी भाषा में गाये जाते हैं।

होरी

‘होरी’ छत्तीसगढ़ का विनोदी पर्व है, यह फाल्गुन के अंतिम दिन चैत्र की पैरवा को मनाया जाता है। इस रात्रि को होली जलाकर गाँव-गाँव और शहर-शहर में जनता कबीर भजन और फगुआ आदि गाती है। तथा दूसरे दिन सुबह रंग-गुलाल आदि खेलते हैं। ‘होली’ को वे शूद्रों का सर्वप्रथम पर्व मानते हैं। क्या स्त्रियाँ, क्या पुरुष, बूढ़े-बालक सभी आनंद पूर्वक होली उत्सव मनाते हैं। लोग अपने घरों में भाँति-भाँति के भोजन, पकवान आदि बनाते हैं और अपने हितैषियों एवं संबंधियों को भी भोजन कराते हैं। कहीं-कहीं नर्तकी के नृत्य एवं गाने भी कराये जाते हैं, शहर के लोग होली के नृत्य देखने हजारों की संख्या में गाँवों में जाते हैं। शहर में फगुओं की टोलियाँ भी फाग गाती हुई निकलती हैं। इस दिन शक्कर के हार का व्यवहार तथा भंग और ठंडई की भरमार रहती है। इस पर्व को ‘फगुआ’ अथवा ‘होरी’ कहते हैं। होली के अवसर पर गाये जाने वाले लोकगीत ग्रामीण-नर्तकी भाव बता-बताकर नाचती हुई हजारों जनता के बीच गाती है और अपने इस नृत्य-गीत से लोगों पर जादू-सा असर पहुँचाती है। नमूने का एक गीत देखिए–

बजावत हवै बंसरी, बिंदावन मा।
गूँजत हबै बँसरी, बिंदावन मा॥
राधा के संग, श्याम खेलत है होरी।
श्याम के रंग मा रंगे हे गोपी भोरी।
गावत हवै मुरली, कुंजन वन मा॥
बजावत हवैं बंसरी, बिंदावन मा॥…
आवौ सजनियाँ, ले के पिचकारिय।
घोलन हम गागर मा रंग।
लाल, हरा, नीला, पीला।
गुलाबी, रंग-बिरंग।
गुइयाँ, खेलन हम गोरी, चलो मधुवन मा॥
बजावत हवै बंसरी, बिंदावन मा॥
झूमत हे रे कदम के डारा–
जमुना मा उठिस तरंग।
पनघट तीर मा धूम मचे ले–
बाजत ढोल-मृदंग।
ताथा तेई ताथा तेई–
धिनक-धिनक तिन धान।
नाचत हवै सुंदरी कान्हा संग मा॥
बजावत हवै बंसरी, बिंदावन मा॥…

यह सुंदर लोकगीत भगवान् वृंदावन-बिहारी की गोप-लीला तथा रास-लीला की सुंदर स्मृति मानव के हृदय में पुन: जागृत कर देता है। छत्तीसगढ़ की ग्रामीण जनता हर पर्व और आनंदोत्सव में भगवान का सच्चे हृदय से स्मरण करती है और यही कारण है कि छत्तीसगढ़ के प्रत्येक पर्व महान धार्मिक श्रद्धा से परिपूर्ण होते हैं, जो भारतवर्ष में अपना ही गौरव रखते हैं। होली के अवसर पर, भगवान रामचंद्र, शिव-शंकर, प्रह्लाद-भक्त तथा कृष्णजी के जीवन से संबंध रखने वाले लोकप्रिय भजन लोकगीत एवं लोक-नृत्य आदि के प्रदर्शन छत्तीसगढ़ में बहुत ही स्नेह एवं भक्ति-पूर्वक किए जाते हैं जो हमें भगवान इंद्र के राज-दरबार की सुधि दिलाते हैं। यूँ तो प्रत्येक पर्व में प्राय: सैंकड़ों लोकगीत अलग-अलग ढंग के गाये जाते हैं।

इसके अतिरिक्त हिंदुओं के अन्य सभी छोटे-बड़े त्यौहार भी छत्तीसगढ़ की निरक्षर जनता मनाती है। किंतु उपरोक्त लिखित पर्व ही विशेषत: ग्रामवासी अत्यधिक उत्साह पूर्वक मनाते हैं। छत्तीसगढ़ के प्राय: प्रत्येक इलाके में ये त्यौहार बहुत ही सुरुचिपूर्ण ढंग से मनाए जाते हैं। जो मध्यप्रांत की सर्व साधारण जनता को भी मनोरंजन की पराकाष्ठा तक पहुँचा देते हैं। छत्तीसगढ़ की प्रत्येक रीति भारतवर्ष के अन्य आदिवासियों से अनोखी एवं प्रशंसनीय होती है। छत्तीसगढ़ मध्यप्रांत की उस शोभा तथा सुंदरता का परिचायक है जिसे कभी भुलाया नहीं जा सकता।


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