दो नीली चमकीली आँखें

दो नीली चमकीली आँखें

भादो की काली अंधेरी रात–बादल झूम-झूम कर बरस रहे हैं। सर्वत्र गंभीर नीरवता छाई है। सभी फ्लैटों की खिड़कियाँ बंद हैं; मगर दो नंबर की एक खिड़की अभी भी खुली है और वर्षा की गिरती लड़ियों के बीच से एक उदास आकृति काँपती-सी नजर आ रही है। उसके रेशम जैसे बाल हवा में उड़ रहे हैं। काले ब्लाउज और सफेद साड़ी में लिपटी वह खिड़की से लगी बैठी है और सामने की ‘मरकरी’ पर विछलती हुई बूँदों को निहार रही है। वह सोच ही रही थी कि शायद इतनी रात गए वह गायक आज नहीं आए कि वही चिरपरिचित आवाज फिर सुनाई पड़ गई ‘मरने की दुआएँ क्यों मांगूँ जीने की तमन्ना कौन करे!’ धीरे-धीरे आवाज तेज होती गई और उसकी खिड़की के बिलकुल करीब आ गई। वह थोड़ा रुक गया और बोला, ‘बिटिया! अंधे-लाचार पर दया करो–एक रोटी का सवाल है–भूखा हूँ वरना इतनी रात गए आवाज न लगाता।’

शिखा बड़ी उलझन में पड़ गई–इधर घड़ी की सुइयों का जुट जाना और उधर गायक भिखारी का उपस्थित हो जाना। रात काफी हो गई है–अगर दरवाजा खोलती है तो बाबू की निर्मम फटकार सुननी पड़ेगी, “बड़ी दानी बनी है, चलो सो जाओ, कोई जरूरत नहीं है रोटी देने की।” लेकिन वह अपने को रोक नहीं पाई और पैर दबाती हुई धीरे से नीचे उतर आई और दरवाजा खोलकर सहमी-सी बोली, “गायक इधर आओ रोटियाँ ले लो न!” जैसे गायक रोटियाँ लेकर उसी पर एहसान कर रहा हो। मगर यह क्या? आज गायक के हाथ में कटोरा नहीं है। वह हाथ फैला देता है और शिखा उस पर बहुत संभाल कर रोटियाँ रखती है; फिर भी कुछ असावधानी हो गई और उसका हाथ काँप जाता है। गायक रोटियों के साथ ही शिखा के हाथों को भी पकड़ लेता है। वह भिखारी को डाँटना चाहती है कि वह बड़ा शैतान है मगर वह डाँट नहीं पाती। आज उसे पहली बार जीवन में एक अव्यक्त आनंद की अनुभूति हो रही है। सारा शरीर एक सिहरन से भर गया–वह हाथ छुड़ाने की कोशिश भी नहीं करती है। गायक भी चुप है। थोड़ी ही देर बाद वह बोल उठता है, “क्षमा करेंगी बीबी जी, गलती हो गई रोटी के भ्रम में मैंने आपका हाथ पकड़ लिया। अंधा जो ठहरा–डर था, रोटी कहीं गिर न जाए, नहीं तो भूख की ज्वाला कहीं अधिक धधकी तो संभव था मैं मनुष्यता के स्तर से गिर जाता।”

गायक भिखारी रोटियाँ लेकर गाता हुआ मस्ती में आगे बढ़ जाता है। ऐसा लगता है मानो वह दुनिया की तमाम तमन्नाओं और आरजुओं से मुक्त है। इधर शिखा जल्दी से अपने कमरे में आकर खिड़की की छड़ों को जोरों से पकड़ कर गायक की मर्मभरी आवाज में बँध जाती है। वह सोचती है “अरे! मैं छड़ों को क्यों इतने जोरों से पकड़ी हूँ–नहीं पकड़ने से गिर जाऊँगी क्या?–हाँ, यहाँ गिरने का बहुत डर है। यह तूफ़ानी रात है–जहाँ अंदर भी तूफ़ान और बाहर भी तूफ़ान, कैसे कोई अपने को बचाए इन जबरदस्त तूफ़ानों से?”…इसी तूफ़ान में डूबती-उतराती और सोचती–यह भिखारी भी अजीब ही है–न इसको जीने की हवस है और न मरने ही को तैयार है। शिखा की आँखें कब लग गईं उसे पता नहीं।

सुबह को उठी तो देखा दिन काफ़ी चढ़ आया है और सूरज की क्रूर रोशनी घर की प्रत्येक सूराख में चमक रही है। उसे यह उजाला अच्छा नहीं लगता था जो आँखों में दर्द पैदा कर दे और शायद इसीलिए उसने फिर तकिये में मुँह छिपा लिया और सोचने लगी, ‘काश! मैं भी अंधी होती गायक की तरह, जिसके लिए दिन भी रात है जो गीतों की एक अपनी दुनिया में सदा छिपा रहता है।’

संध्या समय पास ही पार्क के कोने में पड़ी एक खाली बेंच पर जा बैठी। तरह-तरह के लोगों का जमघट लगा है। कोई साँसों में ही बातें करता तो कोई जोरों के कहकहे लगाता। लेकिन इन सबसे उदासीन शिखा आँखें बंद किये चुपचाप बैठी थी कि उसने सुना कि कोई कह रहा है, “सूरदास! जरा इधर तो आना” शिखा की आँखें स्वत: खुल गईं और उसने देखा कि वही परिचित गायक भिखारी लंबे-लंबे कदमों से उस युवक की ओर जा रहा था जिसने उसे बुलाया था।

‘क्या है बाबूजी’, गायक बड़ी नम्रता से बोला।

युवक ने आग्रह किया, “जरा एक गीत तो सुनाओ सूरदास” बिना किसी झिझक के गायक ने अपना पुराना राग छेड़ दिया–‘मरने की दुआएँ क्यों मांगूँ…।’ गाना शुरू होने की देर थी कि पार्क में बैठे प्राय: सभी लोग उसकी दर्द भरी आवाज पर खिंच कर उसके पास चले आए। वह झूम-झूम कर गाता रहा और लोग बाज़ तन्मय हो अपनी सुधबुध खोते रहे। जब गीत की कड़ी खतम हो गई तो उसने झोली फैला दी। टपटप जाने कितनी रिजकारियाँ उसमें बरस पड़ीं। कुछ क्षणोपरांत वह शिखा की बेंच पर ही आकर बैठ गया। शिखा कुछ सिमट-सी गई। गायक जब बेंच पर अपना डंडा रखने लगा तब उसे किसी और व्यक्ति को उपस्थिति का ज्ञान हुआ और हठात् वह पूछ बैठा, “कौन!” शिखा धीमे स्वर में बोली, “मैं हूँ गायक जो तुम्हें नित्य रोटियाँ देती हूँ–मेरा नाम शिखा है।”

गायक आवाज पहचानते ही मुस्कुराता बोल उठा, “बिटिया!…” लेकिन शिखा बीच ही में रोक देती है–‘बिटिया नहीं, मुझे शिखा कहो गायक।’ “अच्छा शिखा ही सही–शिखा देखो न कल मुझसे बड़ी गलती हो गई। तुम भी क्या सोचती होगी कि यह गायक कितना बेहूदा है।”

“नहीं तो, भला मैं ऐसा क्यो सोचने लगती।” शिखा ने कहा।

“हाँ शिखा, शायद तुम्हें मालूम नहीं कि जब आँखें बंद हो जाती हैं तब अन्य इंद्रियाँ अधिक क्रियाशील हो उठती हैं और इसीलिए मैंने अपनी आँखों को बंद कर लिया है।” गायक के इन शब्दों ने शिखा को चंचल कर दिया और वह आश्चर्य चकित हो पूछ बैठी, “तो क्या तुमने स्वेच्छा से आँखें नष्ट कर ली हैं?”

“नहीं शिखा, मेरी आँखें नष्ट नहीं हुई हैं–दुनिया के रूखेपन, आडंबर और बेगानेपन से तंग आकर इनपर एक हरी पट्टी मैंने जरूर बाँध ली है।”

“तो सचमुच तुम अंधे नहीं हो? यह सिर्फ अंधेपन का बहाना है, क्यों?” फिर शिखा ने एक लंबी साँस लेते हुए कहा–“ओह! तुमने मेरे सारे सपनों को तोड़ दिया। मैंने सोचा था कि बड़ा अच्छा है जो तुम अंधे हो–तुम आँखवाले हिंसक पशुओं की तरह किसी मासूम मेमने पर झपटोगे नहीं, तुम खामोश हिरनी की आँखों को नहीं देख पाओगे–मैं तो अब डर गई।”

शिखा की बातों से आहत गायक सोचने लगा–“एक शिखा है और एक मारगरेट–दोनों में आकाश और पाताल का अंतर है। शिखा, मारगरेट की तरह मिट्टी में लिपटी नहीं है। वह मारगरेट की तरह एक-एक बेहया ‘पोज’ में कर्कश ‘आरकेस्ट्रा’ की धुन पर मटकती हुई उसके नजदीक नहीं आई है–उसे तो स्वयं भगवान ने भेजा है, संयोग ने मिलाया है।”

लेकिन गायक इस उलझन में पड़ गया कि कैसे वह शिखा को विश्वास दिला दे कि वह पशु नहीं, आदमी है–इंसान है; वह मासूम मेमने पर कभी झपटेगा नहीं। आखिर गायक से रहा नहीं गया और वह अति विनीत स्वर में बोल उठा–“नहीं, नहीं शिखा! ऐसी बात नहीं। मैं वह न हूँ जो तुम समझती हो। तुम अपने हाथों से जरा मेरी आँखों की पट्टी को खोलो और उन आहत आँखों में झाँको–उनकी मौन भाषा को समझो–उनमें तैरती तस्वीर को देखो और पहचानो कि वह आदमी की है या जानवर की?”

गायक की बातों से शिखा अवाक् रह जाती है और सोचती है, ‘नाहक ही मैंने गायक का दिल दुखा दिया। वह काँपते हाथों से उसकी आँखों की पट्टी को हटा देती है जिसके अंदर से दो नीली, चमकीली आँखें चमक उठती हैं। शिखा उन आँखों में अपनी आँखों को डुबो देती है। कितनी वेदनशील हैं ये आँखें–कितनी मार्मिक हैं ये आँखें!’

सूरदास ने पूछा–‘क्या अवाक् ही देख रही हो?’ शिखा ने उसे उसी तरह निहारते हुए कहा–‘क्या आँखों में सचमुच इतनी वेदनाएँ निहित रहती हैं आगंतुक!…एक इतिश्री, एक कहानी…।’
वह उसके हाथों को अपने हाथों में ले लेती है। निर्जीव, निस्पंद!


Image: The girl at the window
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Artist: Kuzma Petrov Vodkin
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उर्मिला सहाय द्वारा भी