डॉ. सच्चिदानंद सिन्हा

डॉ. सच्चिदानंद सिन्हा

डॉ. सिन्हा एक संस्था थे और उनके चरणों में बैठकर बिहार ने सर उठाना सीखा है। उन्होंने दो-तीन पीढ़ियों का जैसा पथ-प्रदर्शन किया वह हर कोई जानता ही है, उनकी ठीक बाद वाली पीढ़ी के राजा साहब हैं। उनकी शैली में सिन्हा साहब के व्यक्तित्व का निखार देखिये। –सं.

वह जो किसी ने कहा है न कि खुदा मिले तो मिले, आशना नहीं मिलता, तो बस समझ लीजिए कि आज बने-ठने आदमी तो हज़ार मिलते हैं, मगर हमारे सिन्हा साहब की वह आदमियत की बानगी तो चिराग लेकर ढूँढ़ने पर भी बिरले ही मिलती है इस युग में। और मिले भी तो कैसे मिले। सभी को तो पड़ी है अपनी-अपनी की ही आठो पहर। वह तो जैसे उनके साथ आई, साथ गई और रह गए हम हाथ मल कर।

“किसी में रंग और बू तेरा न पाया
चमन में गुल बहुत गुज़रे नज़र से॥”

वही पटना शहर है, वही गंगा का तट, वही दोस्तों की चहल-पहल, वही चाय, वही डिनर फिर भी यह सब कुछ क्या वही है? है वह मिल्लत का हवा-पानी, वह दस को साथ लिए खाने-खिलाने का लुत्फ, वह शील, वह तौर, वह तमीज़, वह दिलदारी का दौर? सिन्हा साहब क्या गए, वह दुनिया ही लुट गई जैसे। माना कि वही चमन है, वही चमन के फूल, पर क्या जाने क्या हवा का रुख़ है कि न वह रंग है न वह परिमल।

सिन्हा साहब के मिज़ाज की मौज के क्या कहने। मैं पूछता हूँ, कभी किसी ने उनको अकेला देखा है? कहे तो कोई सीने पर हाथ रख। वे तो जब खाने बैठते तो दस को साथ लेकर ही बैठते और वे दस दस जगह के होते, कुछ पास के लगे-सगे ही नहीं। रहा खाना, तो उसे तो बस ज़बान ही जानती है, यह क़लम क्या जाने। काश हमारी ज़बान को अपनी कलम होती या क़लम को अपनी ज़बान। बस वही जानता है जो वह जानता है। मैंने तो अपनी जिंदगी में न वैसा मेज़बान पाया, न वैसा दस्तरख़ान।

याद आ रहा है मुझे आज वह दिन जब मैं एम. ए. की डिग्री लेकर सिन्हा साहब की पौर पर आया उनके कदमों पर सर रखने। मैं झुका ही था कि वे गले से लगा बैठे। बोले, “देखो भई, तुम आज नई जिंदगी की देहलीज पर खड़े हो। अब अपने भाग्य के विधाता तुम हो, दूसरा नहीं। गिरो या उठो, जिम्मेदार तुम खुद। कहीं पसीने के कड़वापन से मुँह मोड़, ऐश-आराम की जिंदगी पर गए तो गए। इस दुनिया में सुख और दुख दामन-चोली है, फूल और काँटा साथ-साथ। अगर काँटा ही न हो तो फिर फूलों के रंग और बू की न वैसी पूछ हो, न कद्र। तो हमारी तो यही दुआ है, यही तमन्ना कि तुम्हारा खुला दिल हो और खुली नज़र–समझे।”

मैं जब टोक बैठा कि खुले दिल से आपकी क्या मंशा है तो आपने हँस कर फरमाया कि देखो न, अधिकतर कोई जिस हवा-पानी में पल कर जवान होता है उसी को मान लेता है बस सर्वस्व। वही एक पथ्य है, वही उसका प्रिय। वही उसका अपना है, बाक़ी सब पराया। एक वे दिन थे कि हम अपने को देख कर औरों को भी देख लेते रहे, एक आज है कि अपने ही को लिए रह जाते हैं, किसी और को जानने-सुनने की न फुर्सत है, न तबियत। अपना देश, अपना धर्म, अपना समाज, अपनी ज़बान, अपना वाद या सिद्धांत, आज यह एक-एक आफत का परकाला हो जाए अगर वही एकक्षत्र होकर हमारी नज़र पर छा गया। इस अपनेपन के दौर के चलते अक्सर हम अपने ही में सिमट कर रह जाते हैं और आदमी के दरमियान सद्भाव की जगह बद्गुमानी की दीवार खड़ी हो जाती है बेलौस।

देखो न, हमारे जी का सारा रुझान तो परिवार, जात या ज्यादा से ज्यादा प्रांत में ही वह चक्कर लेता रह जाता है कि आदमी के साथ जो आदमियत का रिश्ता है, आत्मीयता का नाता, उस सहज संबंध को सकारने के लिए हमारे पास न खुला दिल है न खुली नजर। बस हम पाते हैं कि हम आदमी और हिंदुस्तानी तो बहुत पीछे हैं, उससे पहले हैं बिहारी, बंगाली, पंजाबी, गुजराती, मद्रासी, मराठी या हिंदू, मुसलमान, सिक्ख, पारसी, जैन, ईसाई। उससे भी पहले हैं ब्राह्मण, क्षत्रिय, भूमिहार, कायस्थ, वैश्य, शेख, पठान। और इससे भी पहले हैं मैथिल, शाकद्वीपी, उज्जैनी, चौहान, श्रीवास्तव, अंबष्ट, अग्रवाल, खंडेवाल, शीया, सुन्नी, वगैरह-वगैरह, जाने क्या-क्या। इस तरह यह बता पाना भी मुश्किल है कि हमारा हुलिया क्या है, कहाँ तक टूट-टूट कर बिखर चुके हैं हम। हम यह नहीं कहते कि हम पर अपने प्रांत का हक नहीं है, अपनी जबान, अपने कल्चर का हक नहीं है। यह सब कुछ है और सब कुछ रहेगा, मगर भाई मेरे घर से प्यार का मतलब पड़ोस से तकरार नहीं होता–Our self-interest must not conflict with the interest of the society at large.

मैंने जब पूछा कि खुली नज़र से क्या इशारा है आपका, तो हँसकर बोले कि कहा न कि तुम आदमी को देखो, उसके रूप, रंग, जात और मजहब को नहीं। वह क्या है, कैसा है, कहाँ का है, कोई बात नहीं। वह मनुष्य है, बस यही मुख्य है।

और, सिन्हा साहब बराबर इस उसूल पर अटल रहे। यह बात न होती तो वह उस युग की सारी रूढ़ियों को ताक पर रख विलायत जाते? और वहाँ से लौट कर आ अपने बंधे-सधे दायरे से बाहर शादी करते। सारे समाज में एक सनसनी-सी उठ गई, एक हड़ताल, बगावत। पर, आप थे कि कान पर जूँ तक न रेंगी। और लीजिए, वे सारे कीचड़ उछालने वाले अपना ही मुँह काला कर रह गए। तो बस, आदम की हर औलाद के साथ उनकी मिल्लत की रुझान बनी की बनी रही। कुछ सोच समझ कर ही नहीं, यह तमीज़ तो उनकी घुट्टी में ही पड़ी थी जैसे। क्या अंग्रेज, क्या सिक्ख, क्या हिंदू, क्या मुसलमान, कितनों से तो भाईचारा रहा उनका। वह भी दिली, कुछ नुमाइशी नहीं।

सिन्हा साहब दुनिया देखे हुए थे और जमाने की नब्ज़ की पहचान भी थी अनूठी। सरकारी अफसर भी उनका लोहा मानते रहे, उनकी सूझ-बूझ के कायल थे, लोग अंदर ही अंदर उनके स्वतंत्र विचारों के दौर से कुढ़े बैठे थे। यह संभव न था कि कोई ऊँची उपाधि देकर उनके होंठ सदा के लिए सी दे।
उनकी बैठक में प्रांत के और देश के माने-जाने बराबर आते, क्या लीडर, क्या साहित्यिक, क्या कलाकार और क्या पत्रकार। और दो दिन भी उनके साथ का लुत्फ उठा लिए तो फिर खुशी-खुशी उनकी गुलामी का दमामी पट्टा लिख बैठे। और युग और जीवन की सारी बातें उस बैठक में सुना कीजिए–नए-नए विचार और नए-नए सुझाव भी। राजनीति और राष्ट्रीयता तो खैर अपनी जगह पर थी ही, साहित्य के हर अंग की भी चर्चा चलती और अपनी ज़बान की रूपरेखा की आलोचना भी।

उनका ‘ड्राइंग रूम’ तो हम जैसे जाने कितनों का तीर्थ था, जो चिराग़ जलते सर के बल आते और आए नहीं कि उस रंग में आ गए। वह रंग जिसका एक छींटा भी आज इस शहर की किसी भी मजलिस को मयस्सर नहीं। और जो आया वह कुछ पाकर ही तो लौटा, कुछ खोकर नहीं। हमने ही अपने जीवन में उस दर पर क्या-क्या नहीं पाया, कुछ ठिकाना है। उस जानी-सुनी-देखी का असर तो हमारे पोर-पोर में है आज भी। और एक हमी हैं? जाने कितने हैं उस मठ के मुरीद–कोई लेखनी का धनी, कोई वाणी का, तो कोई राजनीति का।

उस पीढ़ी के जाने कितने कुएँ के मेंढकों पर नई हवा और नई रोशनी का पानी फेर उनकी काया पलट दी, वह ब्योरा देना तो आसान नहीं। यह उन्हीं की वाणी और लेखनी की देन है कि आज बिहार, बिहार है। उसने नई रोशनी पाई, नई ज़िंदगी भी। नई यूनिवर्सिटी पाई और एक नामी-गरामी लाइब्रेरी भी।

मैं पूछता हूँ, उनकी प्रेरणा न होती तो मैं ही ज़मींदारी की उलझनों से पल्ला छुड़ा साहित्य के अनुशीलन की ओर मुड़ पाता। रह जाता उस अंधी गली में चक्कर काटता। जाने कितने साल वह अंधी गली मेरी निगाह में कुंज गली बनी रही, आज जब सोचता हूँ तो एक हूक-सी उठ आती है अपने अंदर।

सिन्हा साहब ने मेरी आँखों में उँगलियाँ डाल दिखा दिया कि यह आठो पहर धन कमाने की धुन तो इस जीवन में वह धुन है कि कभी किसी की बन नहीं पाती। मेरे कंधे पर हाथ रख एक दर्द भरी आवाज़ में कह बैठे कि तुम्हें क्या करना है और यह कर क्या रहे हो बेकार। हाँ, अभी कुछ गया नहीं है। अब भी आँख खोल अपनी क़लम की बाँह गहो, वही तुम्हारी अपनी राह है, तुम्हारी पनाह भी। याद रखो, इस नश्वर संसार में न धन-धाम चिरंतन है और न पद या नाम! हाँ किसी के ज्वलंत त्याग और सेवा की दीप्ति बनी की बनी रहती है, और जीती-जागती रहती है किसी सच्चे कलाकार की कला की विभूति भी। कितने धनी और मानी, कितने राजा और नेता तो आतिशबाजियों की तरह चमक कर बुझ जाएँगे मगर रवींद्र, शरत् और प्रेमचंद के नाम के सितारे तो कभी डूबने से रहे।

और, बस सुबह का भूला शाम को आया अपनी पौर पर। वह भूली हुई लगन फिर उपट आई और मैं ज़माने से मुँह मोड़ लगा लिखने। वह चाँदी की चिरपरिचित चाँदनी लुट गई, वह राजनैतिक लीडरी की मोहिनी भी।

तो लीजिए, यह उसी प्रेरणा का फल था कि मेरी लेखनी ने हिंदी साहित्य को ‘राम रहीम’ दिया। और आज भी, कितने झोंकों के बावजूद, वह गाड़ी अपनी पटरी से उतर न पाई। हमारे लिखने के ढंग और शैली पर भी एक नज़र उनकी बराबर बनी रही। अक्सर, अपनी चीजें पढ़ कर उन्हें हम खुद सुनाते–और वे बड़े शौक से सुनते। हमारी उन दिनों की रचनाओं में संस्कृत के तत्सम् शब्दों की भरमार उन्हें बराबर खलती रही। यह नहीं कि उनकी जगह अरबी और फारसी को तरजीह देते रहे–हरगिज नहीं। वे तो अक्सर कहा किए कि ज़बान वह है जो बोली जाती है–वह नहीं जिसे समझने के लिए कोई कोश चाहिए। हाँ अपने यहाँ के हर क्षेत्र से नए-नए चलते शब्द लेकर हिंदी में पिरो रखने पर वे ज़रूर ज़ोर देते रहे–और हिंदी की प्रकृति के अनुसार उनकी ध्वनि और रूप में फेर-बदल कर लेने में भी कोई मुज़ायका नहीं। उर्दू ज़बान की चुस्ती से, उर्दू शायरी से भी हिंदी बहुत कुछ ले सकती है जो उसके निखार में चार चाँद लगा देगा–मगर हाँ उसे अपनाने के लिए एक तर्ज चाहिए–यों नहीं।

सीधी-सादी साफ सुलझी हुई शैली पर उनकी उँगली बराबर रही। हमारे यहाँ के संस्कृत के एक पंडित सिन्हा साहब से मिलने आए और बातों के सिलसिले में ‘गत वर्ष’ कह बैठे। बस, सिन्हा साहब तिनक उठे कि यह ‘गतवर्ष’ क्या बला है। वे तो ठक। सिन्हा साहब हमारी ओर मुड़कर बोले कि लो सुनो–अगर एक ओर से यह ‘गतवर्ष’ और दूसरी ओर से ‘साल गुज़स्ता’ चल पड़े, तो फिर हमारी ज़बान की ताज़गी लुट कर रहेगी। हाँ, संस्कृत, फारसी या अँग्रेज़ी के जो शब्द हमारे यहाँ जाने कब से चल रहे हैं–जिन्हें हम अपना चुके, पचा चुके और जो ज़बान की डाल पर खिल-खुल रहे हैं–उनकी जगह नए-नए अनोखे शब्द लाने की योजना तो अपने हाथों अपना गला घोंटना है जैसे!

सिन्हा साहब अँग्रेज़ी के कट्टर हिमायती थे। बात भी है, अँग्रेज़ी की पैठ आज कहाँ नहीं है–क्या एशिया, क्या अमरीका। उसे जानते रहना ज़रूरी है ताकि दुनिया की जानकारी हमारी बनी रहे।
आज सिन्हा साहब न रहे मगर उनकी रूह तो बिहार के जर्रे-जर्रे पर मंडरा रही है निरंतर। जो कुछ वे अपनी रोजमर्रे की बैठक से आलाप-संलाप में दे गए हमको, वह तो अमूल्य निधि है हमारी। जो खुले दिल और खुली नज़र की बानगी, जो मिली-जुली संस्कृति की विभूति उनकी सोहबत से इस नई पीढ़ी को विरासत में मिली है, वह हमारी आज़ादी के निखार में चार चाँद लगा कर रहेगी, अपनी तो यही धारणा है, यही तमन्ना।

और बस रह-रह कर उठ आता है वरजस्ता ज़बान पर वह भूला हुआ पद–

“तेरी सूरत से नहीं मिलती किसी की सूरत
हम जहाँ में तेरी तस्वीर लिए फिरते हैं।”

[ऑल इंडिया रेडियो के सौजन्य से]


Image: Gondola in Venice
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