डॉ. सुनीति कुमार चटर्जी का पत्र

डॉ. सुनीति कुमार चटर्जी का पत्र

कलकत्ता
29-10-1943
‘सुधर्मा’ 16 हिंदुस्तान पार्क,
डाकघर, रासविहारी अवेन्यू

पंडित श्रीयुत बनारसीदास जी चतुर्वेदी,
टीकमगढ़

श्रद्धास्पद पंडित जी,

आपकी कृपालिपी (20/10 तारीख की) और उसके साथ-साथ प्रस्तावित मध्यभारतीय हिंदी विश्वविद्यालय के विषय में आपका संपादकीय मन्तव्य तथा श्रीयुत युधिष्ठिर भार्गव को लिखा हुआ आपका पत्र (जिसे आपके कथन अनुसार मैं इसके साथ लौटा दे रहा हूँ)–ये सब मुझे मिले हैं। हिंदी विश्वविद्यालय की होने वाली स्थापना की बात पढ़ कर मैं बता नहीं सकता मुझे कितना ही आनंद होता है। शिंदे सरकार का नाम इस महत्त्वपूर्ण काम के कारण चिरस्मरणीय रहेगा। (विक्रम शिंदे वि. वि. नाम से प्रतीत होता है कि ग्वालियर सरकार की ओर से यह प्रस्ताव उपस्थापित किया गया होगा, और आपने भी इस विषय पर कुछ उल्लेख किया है)। मैं इस विश्वविद्यालय के बारे में आपके इच्छानुसार अलग पत्र में अंग्रेजी में मेरी सम्मति आपकी सेवा में पेश कर रहा हूँ यथा अभिरुचि आप इसका उपयोग कीजिएगा।

हिंदी के संबंध में आप मेरा विचार जानते हैं। हिंदी को मैं Prima inter pares अर्थात् ‘समानासु प्रथमा’ मानता हूँ। और भारतीय ऐक्य के लिए एक आवश्यक योगसूत्र के रूप में इसे देखता हूँ। ‘हिंदी’ का अर्थ, खड़ी बोली के आधार पर बनी भाषा; राष्ट्रभाषा बनने के लिए इसका रूप कैसा होना चाहिए, यह विचार मैंने अपनी छोटी पुस्तक Languages & the Linguistic Problem (Oxford University Pamphlets on Indian Affairs No. II) में और मेरी Indo-Aryan Hindi में किया है। पर अब इतना जल्द रोमन-लिपि के सहारे हिंदी-उर्दू झगड़े का फैसला नहीं होने का। इस वक्त हिंदी और उर्दू मजबूर होकर अपनी-अपनी राह में चलेंगी। उर्दू वाले यदि हिंदी और संस्कृत शब्दों की ओर कुछ उचित ममता बोध दिखाते, हिंदी वाले जैसे आमफहम फारसी और अरबी अलफाज़ को अपनी हिंदी में स्थान देते हैं वैसे थोड़े शब्दों के लिए करते, तो इसका नतीजा अच्छा निकलता। लिपि एक हो जाने से भाषा को भी जरूर एक बन जाना पड़ेगा। सारे भारत के लिए उर्दू अलफाज़ सर्वबोध्य नहीं हैं, हाँ, सिंध, पंजाब और पच्छाहें के कुछ संप्रदायों के लिए हो सकते हैं। पर हम चाहते हैं कि बंगाल, महाराष्ट्र, गुजरात, ओड़िशा, आंध्रप्रदेश, तमिलनाडु, कर्णाटक और केरल भी बिना कोशिश किए हुए हिंदी को अपना लें; यह काम संस्कृतानुसारी हिंदी ही की मदद से हो सकता।–खैर इस विषय की निष्पत्ति शीघ्र नहीं हो सकती। ‘विकेंद्रीकरण’ के प्रस्ताव से मानों कि अब हिंदी संसार में एक विरोध का गुंजन मच गया है, जो शायद कभी-कभी इस मत के विपक्ष ध्वंसाकांक्षी बज्रनाद की आवाज़ में प्रकट होगा। “निखिल उत्तर-भारत की मातृभाषा हिंदी”–ऐसे विश्वास की निश्चिंत और निद्रित पुरी पर आपने और श्रीयुत राहुल जी ने यह क्या बमबारी शुरू कर दी है! राहुल जी का प्रबंध (विशाल भारत अक्टूबर, 1943) के जवाब में हिंदी लेखक तथा उत्तर भारत के साहित्यिक और राष्ट्रीय नेतालोगों की राय के इंतजार में हम मुश्ताक़ हैं। मुझे भी इच्छा होती है कि मैं भी इस जलसे में मेरा तान छेड़ूँ मगर समयाभाव के कारण लाचार होकर अपने को रोकना पड़ता है। तो भी कुछ नम्र निवेदन मेरी तरफ से, याने एक बंगाली हिंदी-प्रेमी, जो कि अपने को गैर-हिंदी प्रांत के लोगों का प्रतिनिधि सोचने का साहस करता है–उसकी तरफ़ से, किसी अँग्रेजी निबंध में करूँगा। अब सिर्फ दो शब्द आपके सामने उपस्थित करता हूँ। श्री राहुल जी अपने प्रबंध में ‘हिंदुस्तानी-प्रांत’ को (पंजाब से बिहार लेकर) 30 जनपदों या प्रदेशों में विभक्त करना चाहते हैं। मेरे विचार से इतना सूक्ष्म विभाग करने की जरूरत नहीं। मातृभाषाओं को, या घरेलू बोलियों को, शिक्षा साहित्य तथा बाहरी जीवन की भाषा के पद पर उन्नत करने के काम में, नीचे लिखे हुए विषयों पर ध्यान देना चाहिए।

[1] Grammer व्याकरण–आलोच्य भाषा व्याकरण की दृष्टि से सचमुच पृथक भाषा कही जाती है, या किसी प्रौढ़ भाषा की उपभाषा, या किसी बोली समुदाय में की एक बोली। इस वैयाकरण विचार में इस विषय के विशेषज्ञों की राय पर यथायोग्य ध्यान देना पड़ेगा!

[2] Sentiment प्रवणता, ममता बोध, चाव, प्रवृत्ति, वहम–यह देखना चाहिए कि जो लोग किसी जानपद (असाहित्यिक) बोली अपने घर में बोलते हैं, उनमें इस बोली के लिए कहाँ तक ममता-बोध है; अकसर ब-खुशी आपस में ये लोग उस बोली ही को इस्तमाल करते हैं, या न; गैर आदमियों के सामने अपनी बोली से शर्माते हैं और इसे छिपाना चाहते हैं, या न; कहाँ तक इस बोली के लिए उनमें चाव है। ऐसी प्रवृत्ति या प्रवणता या ममता, व्याकरण से भी बढ़कर होती है।

[3] Necessity आवश्यकता, जरूरत–इस विषय पर भी नजर रखनी चाहिए कि जो साहित्यिक या शिक्षा-माध्यम भाषा अब चालू है, उसे अपनाने में अनपढ़ लोगों को और बच्चों को इतनी तकलीफ होती है या न, इस तकलीफ़ को लोग दिक्कत समझते हैं या न।

[4] Possibility संभाव्यता–यह भी विचारयोग्य है कि कहाँ तक किसी प्रांतिक बोली की साहित्यिक स्थापना संभव पर है। प्राचीन साहित्य (जिसकी धारा कुछ दिनों से बंद हो गई है। पर जिसका पुनर्जीवन संभव है) रहने से किसी बोली की जागृति सहल होती है, जैसे मैथिली और मारवाड़ी की; जहाँ ऐसा साहित्य नहीं है, तहाँ कठिनाई जरूर ही पड़ेगी–जैसे मगही और हिंदकी (?) में हम देखते हैं। इन सब बातों को विचार कर हमें तय करना पड़ेगा। बुंदेली कहाँ तक ब्रजभाषा और कन्नौजी से न्यारी बोली है, कहाँ तक इसके साहित्य को हम ब्रज के साहित्य से अलग कर सकते हैं, कहाँ तक हिंदी बुंदेलखंड के आम लोगों के लिए एक बोझ-सी बनी है, और बुंदेली की साहित्यिक पुनर्जागृति कहाँ तक संभव है, ये सब देखना चाहिए। यदि ब्रज वालों में ऐसी प्रवृत्ति प्रकट हुई हो (या अंत:सलिला होकर, दबी हुई होकर लोगों के हृदय में विलीन हो गई हो, पर मौका मिलने से फिर प्रकट होनेवाली हो) कि अपनी मातृभाषा ब्रजभाषा फिर अपने नष्ट गौरव का पुनरुद्धार करे, तो ऐसी अवस्था में इसका साहित्यिक पुन:प्रयोग स्वाभाविक होगा, शायद अवश्यंभावी होगा। मातृभाषा या घरेलू बोली किसी बड़ी भाषा की उपभाषा होने से, उसकी साहित्यिक स्थापना करने के पहले विशेष विचार और विवेचन की अपेक्षा रहती है। कहाँ तक भाषा और उपभाषा की सीमा निर्धारित की जाए, यह भी विचारणीय है। सूक्ष्म भाषातात्त्विक दृष्टि के कारण स्वाभाविकतया एकता-प्राप्त जन समूह को खंड, छिन्न और विक्षिप्त कर देना ठीक नहीं होगा; हाँ, व्याकरण के अलावा यदि पूर्वोक्त प्रवृत्ति और आवश्यकता प्रबल हो, यदि संभाव्यता भी विद्यमान हो, तो मामला दूसरी तौर का होगा। दक्षिण फ्रांस के (Provencal) प्रवेंसाल बोली, और उत्तर-पूर्व स्पेन की (Catalan) कातालान बोली, एक ही भाषा के दो रूप हैं। लिपि एक है। प्रवेंसाल का प्राचीन साहित्य था, जो फ्रेंच साहित्य का प्रतिस्पर्धी था; पर अब प्रवेंसाल-भाषियों ने पूरी तौर से फ्रेंच को अपनाया है, प्रवेंसाल की चर्चा केवल भाषातात्त्विकों में सीमित हो गई है। (Mistral) मिस्त्राल ऐसे कवि ने नया काव्य इस भाषा में रचकर नोबल प्राइज भी हासिल कर लिया है, तो भी प्रवेंसाल अपने देश में पुनरुज्जीवित हो नहीं सकी; प्रवेंसाल लोगों में अपनी मातृभाषा के लिए Sentiment और Necessity इतनी कम हो गई, इसकी जागृति की Possibility इसी से इतनी घटी। ऊधर कातालान, जो दरअसल प्रवेंसाल की एक शाखा है, एक नई साहित्यिक भाषा के रूप में प्रकट हो गई है। स्पेनिश के सामने इसका स्वतंत्र साहित्यिक तथा सांस्कृतिक जीवन शुरू हो गया है, इसका पुराना साहित्य नहीं रहते हुए भी। हम देखते हैं, इधर भोजपुरियों में अपनी भीषा के संबंध में दबी हुई प्रवृत्ति विद्यमान है, व्याकरण की दृष्टि से भी यह हिंदी से बिलकुल स्वतंत्र भाषा है, जैसे कि बंगला या मराठी। अब कहाँ तक भोजपुरी लोग इसकी Necessity को अनुभव करेंगे, उस पर भोजपुरी की साहित्यिक स्थापना निर्भर करती है। श्री राहुल जी ने भोजपुरी उपभाषाओं को पृथक-पृथक भाषा मान लिया है, जैसे ‘काशिका’, ‘माल्लिका’, ‘वज्जिका’; व्याकरण की दृष्टि से यह समीचीन नहीं लगता। सामाजिक योगसूत्र–वैवाहिक आदान-प्रदान, आवाह या पुप्रविवाह तथा विवाह या कन्यादान इसे भी भाषासाम्य के साथ-साथ सोचना पड़ेगा। उपर्युक्त चार प्रकार की चिंतनीय वस्तु–Grammar or Lingnistics, sentiment, Necessity, possibility के अतिरिक्त इस पंचम विचार वस्तु Social affinity को भी लेना चाहिए। यह social affinity कभी-कभी ऐतिहासिक या राष्ट्रनैतिक संयोग का फल है। चटगामी बंगला, कलकतिया बंगला, गौहाटी की असमी–इन तीनों में व्याकरण या भाषातत्त्व की दृष्टि से,–कलकतिया बंगला और गौहाटी की असमी में जितना साम्य है; उतना साम्य चटगामी बंगला और कलकतिया बंगला में नहीं है। परंतु चटगामी लोगों की शादी-ब्याह ढाका और कलकत्ते के लोगों से होता है, Social affinity गढ़ गई है, और असमी लोग कई सदियों से बंगाल से अलग थे, उनकी Social affinity या connexion बंगालियों से नहीं हुई; इसका नतीजा यह हुआ कि चटगामी बंगला ही की उपभाषा समझी जाती है। चटगाम से बंगला के कई प्रमुख कवि कई सदी से उद्भूत हुए हैं, और गौहाटी की बोली असमी हो गई है। अलग साहित्यिक भाषा बन गई है।

एक बात और है। कुछ जातियाँ ऐसी होती हैं जिनमें स्वातंत्र्य-बोध ज्यादातर दिखाई देता है, और कुछ जातियों में मिलन-बोध। Fissiparous tendeney or Sense of unity यूरोप की श्लाव-गोत्र की जातियाँ इस स्वातंत्र्य-बोध के लिए सुपरिचित हैं। श्लाव भाषाएँ जितनी हैं, उनमें साम्य इतना अधिक है कि मानों ये सब एक ही मूलभाषा की dialects या उपभाषाएँ हैं। रूसी, पोल, चेख इनमें लक्षणीय अवश्य पार्थक्य हैं; पर भाषातात्विक लोग कहते हैं कि स्लोवाक दर-असल चेख की ही एक प्रांतिक रूप है, इसे अलग कर लेना, इस स्वातंत्र्य-बोध का परिणाम है। अस्तु–यहाँ प्रवृत्ति ने काम किया, अलग साहित्यिक भाषा बन गई! मेरे विचार में, भारत के चित्त के अंतस्तल में मिलनकामी प्रवृत्ति प्रबल है। इसीलिए प्राचीन काल में संस्कृत का एकाधिपत्य हुआ था, मध्ययुग में (खास करके उत्तर-भारत में) अपभ्रंश का, और हालान् हिंदी-हिंदुस्तानी का। जनता की ओर से इसका प्रतिवाद नहीं हुआ; प्रतिवाद करनेवाला मनोभाव कहाँ? तो भी जनता ने बहुत सी असुविधाएँ अज्ञान होने के कारण मान ली है। जहाँ-जहाँ सचमुच Hardship या कठिनाई है, तहाँ हम Intelligentsia या बुद्धिजीवियों को चाहिए कि जनता की आँख खोल दें, ताकि अपनी भलाई-बुराई ये सोच-विचार कर देख सकें, और इन्हें औचित्य की राह पर चलाएँ। इसलिए मैं आप से सहमत हूँ कि कहीं कहीं ‘विकेंद्रीकरण’ की जरूरत है, और तदनुसार चेष्टा करनी चाहिए। हवा नई तौर से चली है; गए हिंदी साहित्य सम्मेलन में ‘विकेंद्रीकरण’ की ओर कुछ Supressed या दबी हुई बोलियों को Self-development या स्वाधीन आत्मविकास का मौका देने के लिए, फैला हुआ मनोभाव दीख पड़ा, ऐसा मैंने सुना है। –आपने और राहुल जी ने जो ‘विकेंद्रीकरण’ का प्रश्न उत्थापित किया है, वह कालोपयोगी हुआ है। अब देखा जाएगा, इस मामले पर महाकाल की राय कैसी हो।

आपका वशंवद: –
श्री सुनीति कुमार चाटुर्ज्या


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